सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति यू. यू. ललित की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय खंडपीठ आगामी एक सितंबर, 2022 से पदोन्नति में आरक्षण विवाद से जुड़े जरनैल सिंह मुकदमे की आखिरी सुनवाई शुरु करेंगे। करीब पच्चीस साल पुराने इस विवाद का निपटारा होने की अब उम्मीद जगने लगी है और इसके साथ ही ओबीसी को भी पदोन्नति में आरक्षण के दायरे में लाने की मांग फ़िर उठी है।
भारत सरकार ने हलफ़नामा दाखिल कर सुप्रीम कोर्ट से प्रार्थना की है कि उसके संबद्ध सर्कुलर (दिनांक 13 अगस्त, 1997 और 10 अगस्त, 2010) को अवैध ठहराए जाने पर भी सामूहिक पदावनति की कार्रवाई का आदेश न दिया जाए क्योंकि तकरीबन साढे चार लाख एससी-एसटी वर्ग के कर्मचारियों की पदावनति से हंगामा होना तय है। इन दोनों सर्कुलर का खारिज होना इसलिए तय माना जा रहा है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक पीठ द्वारा 2006 के एम. नागराज मामले में फ़ैसले की कम से कम दो पूर्व-शर्तें पूरी कर पाना अब असंभव है।
एससी-एसटी कर्मचारियों पर क्रीमीलेयर का प्रावधान तय किया जाना विवादास्पद मामला रहा है और जबकि डीओपीटी ने 29 मार्च, 2007 के एक मेमोरेंडम में नागराज फ़ैसले के इस बिंदु को अवैध कह दिया था तो जाहिर है कि यह शर्त पूरी नहीं की गई है। सरकारी नौकरियों में राज्य या श्रेणी के बजाए ‘कैडर’ स्तर पर एससी-एसटी कर्मचारियों के प्रतिनिधित्व पर आंकड़े जमा करने की पर्याप्त स्पष्टता भी पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने 28 जनवरी, 2022 को दिए अपने फ़ैसले में ही दी है। बल्कि रेलवे बोर्ड, भारत सरकार ने दिल्ली हाई कोर्ट के समक्ष इस प्रकरण में एससी-एसटी कर्मचारियों के प्रतिनिधित्व के आंकड़े पेश करने से ही पल्ला झाड़ लिया था तो जाहिर है कि 1997 या 2006 से यह शर्त भी पूरी नहीं की गई है।
दरअसल नवंबर, 1992 के मंडल जजमेंट (इंद्रा साहनी प्रकरण) में 8 बनाम शून्य के बहुमत से पदोन्नति में आरक्षण को असंवैधानिक ठहराया गया। स्पष्ट किया गया कि पदोन्नति में आरक्षण संविधान के अनुच्छेद 16(4) में प्रावधानित (भर्ती) आरक्षण के खिलाफ़ है, क्योंकि यह समग्र पिछड़ा वर्ग को अवसर देने की बजाए सिर्फ़ सेवारत व्यक्तियों को अनुचित लाभ देता है। कहा गया कि एक बार आरक्षण समेत सेवा-भर्ती होने के बाद सभी के लिए वरिष्ठता, प्रमोशन, पेंशन जैसी सेवा की सामान्य शर्तें एक समान होना जरुरी है। इंद्रा साहनी फ़ैसले की तारीख तक हो चुके पदोन्नति हेतु वरिष्ठता सूची को सुरक्षित किया और पदोन्नति में आरक्षण के सभी तात्कालिक सेवा नियम पांच साल तक जारी रहने की छूट दी। ताकि उंचे पदों पर एससी-एसटी-ओबीसी वर्गों की उपस्थिति/प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण समेत सीधी भर्ती की व्यवस्था चाहे तो राज्य-सत्ता कर सकती है। पदोन्नति में आरक्ष्ण की असंवैधानिकता का बिंदु पलटाने के लिए जून 1995 में संविधान 77वां संशोधन कराया गया। अनुच्छेद 16 में नया खंड (4-क) जोड़ कर ओबीसी को अलग करते हुए सिर्फ़ एससी-एसटी वर्गों के लिए पदोन्नति में आरक्षण का प्रावधान किया गया। 2006 के एम. नागराज फ़ैसले में एक संविधान पीठ ने ओबीसी कर्मचारियों के साथ इस अन्याय को सही ठहराया। जरनैल सिंह प्रकरण में भारत सरकार की इस नीति की वैधानिकता पर आखिरी फ़ैसला आने वाला है।
इंद्रा साहनी फ़ैसले की प्रमुख राय में संविधान के अनुच्छेद 16 के खंड (4) में दिए “नागरिकों के पिछड़ा वर्ग” के लिए आरक्षण किए जाते समय पिछड़ा और अति-पिछड़ा के उप-वर्गीकरण को सही ठहराया गया था। लेकिन एम. नागराज फ़ैसले में इससे गलत नतीजा निकालते हुए पदोन्नति में आरक्षण से ओबीसी को बाहर कर दिए जाने को वैधता दी गई। 1996 में ही चत्तर सिंह बनाम राजस्थान फ़ैसले से लोक सेवा में आरक्षण के मुद्दे पर ओबीसी की कीमत पर एससी-एसटी को विशेष सुविधा दिए जाने को वैधता दी गई थी। यह कहा गया था कि आरक्षण का उद्देश्य एससी-एसटी को ऐतिहासिक अन्यायों की काट करते हुए मुख्यधारा में लाना है, जबकि ओबीसी के लिए सिर्फ़ सामाजिक और शैक्षणिक विकलांगता दूर करना ही संवैधानिक मकसद है। इस भेदभाव को सही ठहराने के लिए अनुच्छेदों 15, 17, 46, 330, 332, 334 और 335 की व्याख्या का सहारा लिया गया था। सैद्धांतिक सुधार करते हुए 2010 में एक संविधान पीठ ने के. कृष्णामूर्ति बनाम भारत संघ फ़ैसले में साफ़ किया कि उच्च शिक्षा, लोक-सेवा और राजनैतिक भागीदारी के संदर्भों में पिछड़ेपन के प्रकार और प्रभाव अलग-अलग होते हैं। लेकिन जमीनी हकीकत की रोशनी में ओबीसी के पिछड़ेपन को पहचानने, मापने और इसे दूर करने के उपायों की जरूरत को ढांक दिया गया। इस परस्पर भेदभाव पर ओबीसी वर्ग के जनप्रतिनिधि और अधिकार-कार्यकर्ता आज तक जागरूक नहीं हो सके हैं।
लोक सेवा में एससी-एसटी को एक साथ और ओबीसी को उससे बिल्कुल अलग दिखाया जाना तार्किक नहीं है। अनुच्छेद 16(4) की भाषा से ही साफ़ है कि यहां “पिछड़े” “वर्गों” की पहचान कर उनको लोक सेवा में भागीदारी के अवसर की समानता के विशेष प्रयास करना मकसद है। इस नजरिए से एससी-एसटी और ओबीसी तीनों एक समान हैं। जरनैल सिंह मुकदमे के निपटारे के बाद जाहिर तौर पर भारत संघ और राज्यों को संविधान संशोधन समेत नए कानूनी उपाए तलाशने होंगे। इससे लोक सेवा आरक्षण में ओबीसी के साथ जारी अन्याय को दूर करने का जो अवसर आया है, क्या जनप्रतिनिधि उस पर ध्यान देकर सही कदम उठाएंगे?
(संपादन : नवल/अनिल)
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