h n

न्याय को भटकते गोमपाड़ के आदिवासी

सवाल यह नहीं है कि 2009 में सुकमा इलाक़े में मारे गए 16 लोग नक्सली थे या नहीं। सवाल यह है कि देश के नागरिकों की ग़ैर-न्यायिक हत्या की जांच क्यों नहीं होनी चाहिए? आख़िर गोमपाड़ के लोगों को क्यों दिल्ली के कंस्टीट्यूशन क्लब आकर अपनी कहानी सबको सुनाने की ज़रूरत है? बता रहे हैं सैयद जै़गम मुर्तजा

विश्व आदिवासी दिवस के जश्न से परे कई लोग इस मंथन में लगे हैं कि न्याय पाने और अधिकारों के संरक्षण के लिए किसके दरवाज़े पर जाएं। सुप्रीम कोर्ट के हाल के एक फैसले के बाद यह चिंता और मज़बूत हुई है। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ 2009 की इस मुठभेड़ की जांच कराने से इंकार कर दिया बल्कि याचिकाकर्ता पर जुर्माना भी लगा दिया। ज़ाहिर है सुप्रीम कोर्ट ही न्याय की गुहार सुनने से इंकार कर दे तो फिर लोग किस दर पर जाएंगे? क्या देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति उनकी बात सुनेंगी? शायद नहीं।

छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले के गोमपाड़ गांव के निवासियों के लिए विश्व आदिवासी दिवस के शायद ही कोई मायने हों। उनके लिए एक आदिवासी महिला का देश के राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित होने का भी क्या ही मतलब? गोमपाड़ गांव के लोग अपने 16 साथियों की सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मौत पर लगातार सवाल उठा रहे हैं। सुरक्षाबलों का दावा है कि मृतक नक्सली थे, जबकि गांववालों का दावा है उनके साथी निर्दोष थे। ख़ैर, सुप्रीम कोर्ट से न्याय न मिलने पर यह लोग राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु से मिलना चाहते थे, लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार का कहना है कि उनको मिलने के लिए समय नहीं दिया गया।

जिस वक़्त देश एक आदिवासी महिला के राष्ट्रपति निर्वाचित होने का जश्न मना रहा था, दिल्ली के कंस्टीट्यूशन क्लब के डिप्टी स्पीकर सभागार में बीते 6 अगस्त को कुछ सामाजिक कार्यकर्ता, प्रबुद्धजन, वकील और सेवानिवृत्त न्यायाधीशगण इस बात पर मंथन कर रहे थे कि मौजूदा हाल में आख़िर क्या किया जाए। इनमें दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए.पी. शाह, पटना हाईकोर्ट की पूर्व न्यायाधीश अंजना प्रकाश, बांबे हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मारलापल्ले, प्रो. वर्जीनियस खाखा, और योजना आयोग की पूर्व सदस्य डॉ. सईदा हमीद आदि शामिल रहे। 

गोमपाड़ गांव के पीड़ित आदिवासी दिल्ली के कंस्टीट्यूशन क्लब में (तस्वीर साभार : हिमांशु कुमार)

दरअसल, गोमपाड़ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह न्याय का दरवाज़ा बंद किया और सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार पर जुर्माना लगाया है, इससे चिंता होना लाज़िमी है। सवाल यह नहीं है कि 2009 में सुकमा इलाक़े में मारे गए 16 लोग नक्सली थे या नहीं। सवाल यह है कि देश के नागरिकों की ग़ैर-न्यायिक हत्या की जांच क्यों नहीं होनी चाहिए? आख़िर गोमपाड़ के लोगों को क्यों दिल्ली के कंस्टीट्यूशन क्लब आकर अपनी कहानी सबको सुनाने की ज़रूरत है?

लेकिन ये सब हो रहा है। आदिवासियों को गोमपाड़ से चलकर दिल्ली आना पड़ा है क्योंकि उनको न्याय चाहिए। भले ही न्यायपालिका उनके लिए दरवाज़ा बंद कर चुकी है या उनके समर्थन में की गई याचिका को झूठा बता चुकी है लेकिन उनके दिल में जो सच है वो बताना चाहते हैं। उनको जनअदालत लगानी पड़ रही है। लेकिन जनअदालत दिल की बात सुन सकती है लेकिन न्याय नहीं दे सकती। 

बहरहाल, गोमपाड़ा से लोग चलकर दिल्ली तक आए और बताया, किस तरह उनके परिजनों को बेरहमी से मार दिया गया। हालांकि मुख्यधारा की मीडिया के लिए यह बात ख़बर बनने लायक़ नहीं है। कार्यक्रम में कई रिटायर्ड जज मौजूद थे। उन्होंने माना कि इस मामले में अदालत ने नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत की अव्हेलना की है। वह भी समझ नहीं पा रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने आख़िरकार याचिका को झूठा क्यों कहा है।

वरिष्ठ वकील और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने इस मौक़े पर कहा कि वह पचास साल से प्रेक्टिस कर रहे हैं लेकिन अब उन्हें इस संस्था (न्यायपालिका) से न्याय की कोई उम्मीद नहीं है। नेशनल अलायंस फॉर पीपुल्स मूवमेंट (एनएपीएम) की तरफ से आयोजित इस कार्यक्रम में कपिल सिब्बल ने माना कि न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं है। सिब्बल ने कहा कि एक अदालत जहां समझौते के माध्यम से न्यायधीशों की नियुक्ति होती है, जहां मुख्य न्यायधीश तय करते हैं कौन सा मामला कौन निबटाएगा, वहां स्वतंत्रता की बात कैसे की जा सकती है?”

हालांकि सिब्बल के बयान पर ख़ूब विवाद भी हुआ लेकिन उन्होंने जो सवाल उठाए हैं वह क़तई ग़ैर-वाजिब नहीं हैं। 2009 सुकमा मुठभेड़ मामले को सुप्रीम कोर्ट तक ले जाने वाले हिमांशु कुमार की राय कुछ अलग नहीं है। अदालत ने उनपर पांच लाख रुपये का जुर्माना लगाया है। हिमांशु कुमार कहते हैं कि वह कल भी सच बोल रहे थे और आज भी सच पर अडिग हैं। यह मुठभेड़ फर्ज़ी थी। यह कहने के लिए उन्हें जेल भले भेज दिया जाए लेकिन वह जुर्माना नहीं भरेंगे।

बहरहाल, सवाल घूम-फिरकर वहीं लौट आते हैं, आख़िर आज़ादी के 75 साल बाद भी कमज़ोर तबक़ों की न्याय तक पहुंच क्यों नहीं है? गुजरात दंगों में याचिका दायर करने वाली ज़किया जाफरी और उनके साथ खड़ी तीस्ता सीतलवाड़ का मामला हो या हिमांशु कुमार का, क्या अदालत ने लोगों की आवाज़ घोंटने की कोशिश नहीं की है? यह सवाल न तो आदिवासी दिवस पर कार्यक्रम आयोजित करने से ख़त्म हो जाएंगे, न प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के बधाई देने से और न ही किसी आदिवासी के राष्ट्रपति बन जाने से। आम नागरिक के साथ न्याय होना ही नहीं चाहिए, होता हुआ प्रतीत भी होना चाहिए। फिल्हाल सरकारी दबाव में फैसले देने का दौर है और अदालतें सवालों के घेरे में हैं। भले ही न्यायधीश इससे नाराज़ हों, लेकिन यह सवाल बेवजह तो नहीं हैं।

(संपादन : नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

संबंधित आलेख

लोकतंत्र में हिंसक राजनीति का जवाब लोकतांत्रिक राजनीति से ही मुमकिन
जिस दिन बहुजन समाज की प्रगति को थामे रखने के लिए बनाया गया नियंत्रित मुस्लिम-विरोधी हिंसा का बांध टूटेगा, उस दिन दुष्यंत दवे जैसे...
बहुजन वार्षिकी : सियासी मोर्चे पर दलित-ओबीसी के बीच रही आपाधापी
वर्ष 2024 बीतने को है। लोकसभा चुनाव से लेकर देश के कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों व मुद्दों के आलोक में इस साल...
अयोध्या, संभल व अजमेर : अशराफगिरी रही है हिंदुत्व के मैन्युअल का आधार
जहां ब्राह्मण-सवर्ण गंठजोड़ ने हिंदुत्व सहित विभिन्न राजनीतिक परियोजनाओं के जरिए और अलग-अलग रणनीतियां अपनाकर, बहुसंख्यकों को गोलबंद करने के लिए प्रयास किए, वहीं...
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव : जीत के बाद हवा में न उड़े महायुति सरकार
विमुक्त और घुमंतू जनजातियों और अन्य छोटे समुदायों ने संकट से उबरने में महायुति गठबंधन की मदद की है। हमारी नई सरकार से अपेक्षा...
राजस्थान : युवा आंबेडकरवादी कार्यकर्ता की हत्या से आक्रोश
गत 10 दिसंबर को राजस्थान के युवा दलित विशनाराम मेघवाल की हत्या कर दी गई। इसके विरोध में आक्रोशित लोग स्थानीय अस्पताल के शवगृह...