गेल ऑम्वेट (2 अगस्त, 1941, 25 अगस्त, 2021) पर विशेष
25 अगस्त अमेरिकी मूल की प्रसिद्ध समाजशास्त्री गेल ऑम्वेट की स्मृति दिवस है। वही, गेल ऑम्वेट, जिन्होंने भारत को अपना कार्य क्षेत्र बनाया और 70 की दशक में फुले-आंबेडकर की क्षीण होती विचारधारा को पुर्नजीवित किया। वह एक कुशल अध्येता, शोधकर्ता और प्रखर मानवतावादी भी रहीं। उनके अध्ययन के केंद्र में हाशिए पर पड़ा समाज, महिलाएं रहीं। खास कर ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं। यही वजह रही कि उन्होंने वर्ष 2014 में ‘महात्मा फुले विजन’ लोगों के सामने रखा, जो कि असल में उनका वह सपना था, जिसे वह साकार देखना चाहती थीं।
आज की युवा पीढ़ी को शायद यह आश्चर्यजनक लगे कि लेकिन विदेशी मूल की अध्येता के प्रति आभार क्यों? इस मामले में हमें यह जानने की जरुरत है कि जब वह पहली बार भारत आईं तब वहदौर था जब भारत के तमाम बहुजन निराश हो चले थे। उन्हें एक करिश्माई नेतृत्व का इंतजार था कि कोई आए और उनके हक-हुकूक को लेकर उन्हें संगठित करे।
गेल ऑम्वेट का जन्म 2 अगस्त, 1941 को अमरीका के मिनियापोलिस प्रांत में हुआ था। वहीं कार्लटन कॉलेज में पढ़ाई करने के बाद उन्होंने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, बर्कले में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने भारत मे सामाजिक आंदोलनों के साथ सक्रियरूप से काम किया। जिसमें दलित और जाति विरोधी आन्दोलन, पर्यावरण आन्दोलन, किसान आन्दोलन, और विशेष रूप से ग्रामीण महिलाओं के साथ शामिल है। वे स्त्री मुक्ति के संघर्ष चलवल मे सक्रिय रही जिसने दक्षिणी महाराष्ट्र के सांगली और सतारा जिलों में परित्यक्त महिलाओं के मुद्दों पर काफी काम किया और महिलाओं के भूमि संबंधी अधिकारों और राजनीतिक सत्ता के मुद्दों पर शेतकारी महिला अघाड़ी मे भी सक्रिय रही।
यह जानना बेहद महत्वपूर्ण है कि डॉ. आंबेडकर के महापरिनिर्वाण के सात साल बाद 1963 में गेल ऑम्वेट पहली बार भारत आई थीं। तब उन्हें भारत के उत्पीड़ित वर्गों का उच्च तबके द्वारा सतत उत्पीड़न व शोषण उन्हें गहरे अंदर तक झकझोर गया होगा और वह दुबारा लौटकर भारत आईं। जब वह दूसरी बार आईं तो वह एक खास उद्देश्य से आईं। उन्होंने अपने पीएचडी के शोध निबंध का विषय रखा था– “कल्चरल रिवोल्ट इन कोलोनियल सोसाइटी : द नॉन-ब्राह्मण मूवमेंट इन वेस्टर्न इंडिया, 1873-1930”। गेल ऑम्वेट का अध्ययन वैसे तो 1873 से लेकर 1930 के बीच का भारत था। परंतु जब वर्ष 1973 में उनका शोध प्रबंध ‘पश्चिमी भारत में गैर ब्राह्मण आन्दोलन’ पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ तो उन्होंने 19 वीं सदी के अंतिम दशकों में जोतीराव फुले के द्वारा किए गए आंदोलन को एक नये दृष्टिकोण से पुनर्स्थापित किया। उनका यह काम कितना महत्वपूर्ण था, कि उनके शोध प्रबंध को भारत में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे लोगों ने तो प्रेरक माना ही, विश्व पटल पर गेल ऑम्वेट के काम का दायरा बहुत बड़ा था। वे जीवन भर फुलेवाद, आंबेडकरवाद, मार्क्सवाद और स्त्री मुक्तिवादी विचारों पर चलती रहीं। उन्होंने न केवल भारत के वंचितों और पीड़ितों की समस्याओं को अपने शोधपरक लेखन मे शामिल किया बल्कि उन्हें दुनिया के सामने भी रखा ।1970 से लेकर 1990 के दशकों में गेल का नाम दलितों व कामगारों के अधिकारों के लिए लड़ने वाली कार्यकर्ता के रूप में प्रसिद्ध हो गया। वह सभाओं को मराठी में संबोधित करतीं। वह हिंदी भी बोलती थीं। यह वह दौर था जब मान्यवर कांशीराम ने ‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’ के आधार पर देश में आंदोलन शुरू किया था। उनके आंदोलन को गेल ने गहराई तक प्रभावित किया। यहां तक कि मान्यवर ने अपने संबोधनों में गेल के प्रति आभार प्रकट किया है और यह स्वीकार किया है कि कैसे उनके शोध कार्यों ने बहुजन आंदोलन को मजबूती दी।
कांशीराम की उपरोक्त टिप्पणी बेवजह नहीं थी। ऑम्वेट ने ‘दलित्स ऐंड द डेमोक्रेटिक रिवोलूशन : डॉ. आंबेडकर ऐंड द दलित मूवमेंट इन कोलोनियल इंडिया’ और ‘आंबेडकर : टुवर्ड्स ऐन एनलाइटेंड इंडिया’ मे वे लिखती हैं कि बाबा साहेब का संघर्ष स्वाधीनता के संघर्ष से अलग था। यह भारत के शोषित-पीड़ित लोगों की मुक्ति का संघर्ष था। ‘बुद्धिज़्म इन इंडिया : चैलेंजिंग ब्राह्मणिज़्म ऐंड कास्ट’ में गेल ने बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान को जाति-विरोधी आधार कहा, जो कि ब्राह्मणवादी स्वर के विपरीत था। बौद्ध धर्म को लेकर यह एक नया दृष्टिकोण था। इसके अलावा भारत के नारी स्वर और महिला आंदोलन में गेल का योगदान महत्वपूर्ण है। उनकी पुस्तक ‘वी शैल स्मैश दिस प्रीज़न : इंडियन वुमेन इन स्ट्रगल’ मील का पत्थर है, जिसमें उन्होंने महिला आंदोलन के विभिन्न स्वरूपों का मूल्यांकन किया है। उनकी किताब ‘सीकिंग बेगमपुरा : द सोशल विज़न ऑफ एंटी कास्ट इंटेलेक्चुअल्स’ की चर्चा भी आवश्यक है। यह महान संत रैदास की रचना से प्रेरित है, जिसमे उन्होंने बिना दुख के नगर की कल्पना (यूटोपिया) की है। जिसमें कोई असमानता नहीं।
लेखन के अलावा जैसा कि उपर वर्णित है कि गेल ऑम्वेट ने जमीनी संघर्ष भी किया। इसका प्रमाण है श्रमिक मुक्ति दल की स्थापना। इसके बारे में वह स्वयं लिख्ती हैं कि “महात्मा जोतिबा फुले, कार्ल मार्क्स, डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर और पूरे विश्व में महिला मुक्तिवादियों के विचारों और सिद्धांतों के आधार पर, श्रमिक मुक्ति दल के विचार और सिद्धांतों की स्थापना की गई है।” वह आगे लिखती हैं कि “स्थापित पूंजीवादी व्यवस्था और पितृसत्तात्मक, जातिवादी शोषक संबंधों और वर्ग शोषण के संबंधों को स्थायी रूप से समाप्त करने और उनके स्थान पर पारिस्थितिक रूप से संतुलित, विकेंद्रीकृत और समृद्ध समाज की स्थापना के सपने के साथ, श्रमिक मुक्ति दल ने पिछले 33 वर्षों में एक अनूठा संघर्ष किया है।”
गेल ऑम्वेट ने जिन मुद्दों को लेकर संघर्ष किया, उनमें वैकल्पिक जल नीति, समान जल वितरण, सूखा उन्मूलन, पवनचक्की ऊर्जा, अल्ट्रामॉडर्न पारिस्थितिक रूप से संतुलित विकेन्द्रीकृत उद्योग, जंगल, विकासात्मक पुनर्वास, जाति का विनाश और महिला मुक्ति आदि शामिल रहे। उनका मानना था कि इन सवालों के जवाब तलाशने होंगे ताकि मेहनतकशों को न केवल तत्काल सुखी जीवन मिले बल्कि वे अपनी मुक्ति की ओर आगे बढ़ें। अपने इन्हीं विचारों को केंद्र में रखकर उन्होंने ‘महात्मा फुले विजन 2014’ लोगों के सामने रखा।
उन्होंने बताया है कि ‘महात्मा फुले विजन 2014’ का अर्थ है– मानव मुक्ति की ओर जाने वाले शोषण मुक्त और पारिस्थितिक रूप से संतुलित समाज का सपना। लेकिन यह सपना जमीन पर पैरों के साथ सीधे विकल्प का सपना है। उनका सपना यथार्थपरक था। उन्होंने कार्ययोजना का निर्माण किया था, जिसका उल्लेख वह स्वयं करती हैं।
इसके मुताबिक, ‘महात्मा फुले विजन 2014’ के तहत उत्पादन के तरीके, सामाजिक संबंध, उत्पादन संबंध, सांस्कृतिक संबंध, संस्कृति, कला को एक साथ लाने वाली एक सामंजस्यपूर्ण प्रक्रिया का निर्माण करना, जो वर्ग, जाति, लिंग, नस्ल और धर्म के आधार पर शोषण को समाप्त करने की दिशा में जाएगा। ये उद्योग किसी एक जाति, धर्म, नस्ल या लिंग से बंधे नहीं होने चाहिए। इनमें मानव रचनात्मक क्षमता के विस्तार का रूप होना चाहिए।
गेल मानती थीं कि उद्योगों के पास बढ़ते हुए पारिस्थितिक संतुलन और एक समृद्ध पर्यावरण होने का आधार होना चाहिए। इसके अलावा वह सामाजिक मुद्दों को लेकर भी मुखर रहीं। ‘महात्मा फुले विजन 2014’ के तहत उन्होंने कुछ खास एजेंडा रखा था। इनमें जाति व्यवस्था को पूरी तरह से समाप्त करने के लिए एक दीर्घकालिक कार्यक्रम लागू करने, अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहित करने के लिए जागरूकता अभियान चलाने, अंतरजातीय विवाह करने वालों की सुरक्षा के लिए एक सामाजिक और संगठनात्मक प्रणाली का निर्माण करने, जाति-मुक्त त्योहारों, समारोहों और सांस्कृतिक अनुष्ठानों की खोज करने और उनका सामान्यीकरण करने संबंधी उनके इरादे शामिल रहे। उनकी कार्ययोजना में महिलाएं अहम थीं। उन्होंने जिस योजना की परिकल्पना की थी, उसमें महिलाओं के शोषण को समाप्त करने, और यौन संबंधों में व्यक्तिगत पसंद के लिए पूर्ण स्वतंत्रता के कार्यक्रम को लागू करना भी शामिल था। उनका मानना था कि काम करती महिलाओं के साथ भारतीय समाज वैसे ही व्यवहार करे जैसे पुरुष कामगारों के मामले व्यवहार किया जाता है। उन्हें समान मजदूरी और सम्मान मिले। यदि ऐसा हुआ तो महिलाएं सभी क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभा सकेंगीं और परिवार और सामाजिक संबंधों और सांस्कृतिक क्षेत्रों में उनका शोषण समाप्त हो जाएगा।
(संपादन : नवल/अनिल)
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