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विज्ञान की किताब बांचने और वैज्ञानिक चेतना में फर्क

समाज का बड़ा हिस्सा विज्ञान का इस्तेमाल कर सुविधाएं महसूस करता है, लेकिन वह वैज्ञानिक चेतना से मुक्त रहना चाहता है। वैज्ञानिक चेतना का संबंध केवल तकनीक का विकास और किसी आविष्कार भर नहीं होता है। बता रहे हैं अनिल चमड़िया

सोशल मीडिया पर एक पोस्ट पढ़ने को मिली। इसमें एक पिता लिखते हैं कि एयरो स्पेस इंजीनियरिंग में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (आईआईएससी) बेंगलूरू से पीएचडी कर रहे पुत्र समन्वय सत्यनारायण स्वामी की कथा एवं पूजा अर्चना कर रहे हैं। विज्ञान हो या धर्म , दोनों में उसकी आस्था देखते ही बनती है!

वैज्ञानिक चेतना या किसी तकनीक को चलाने में प्रशिक्षित होने में फर्क है। आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि जो आधुनितम तकनीक के जरिए काम करते हैं, वे वैज्ञानिक चेतना से लैस होंगे। डाक्टर यदि किसी तकनीक के जरिए और प्रशिक्षण से प्राप्त अनुभवों के अनुसार मनुष्य के शरीर के अंगों के लिए सलाह देता या उसकी सर्जरी करता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह वैज्ञानिक चेतना से भी लैस है। वैज्ञानिक चेतना समाज और जीवन की सभी क्रियाओं व गतिविधियों में सक्रिय दिखती है। वैज्ञानिक चेतना केवल शारीरिक जटिलताओं या शारीरिक व्याधियों को समझने तक ही सीमित नहीं होती है। एक सफल डाक्टर कर्मकांडी, अंधविश्वासी आदि भी हो सकता है। इंजीनियिरिंग को आधुनितम माना जाता है, लेकिन इसमें प्रशिक्षित लोगों को अतार्किक और जड़ विचारों में डुबा देखा जाता है। उपग्रह को छोड़ने से पहले उसकी सफलता के लिए तरह तरह के कर्मकांड बताते हैं कि अपनी वैज्ञानिकता पर खुद उन्हें संदेह हैं। इस तरह के ब्यौरे की भरमार है।

समाज का बड़ा हिस्सा विज्ञान का इस्तेमाल कर सुविधाएं महसूस करता है, लेकिन वह वैज्ञानिक चेतना से मुक्त रहना चाहता है। वैज्ञानिक चेतना का संबंध केवल तकनीक का विकास और किसी आविष्कार भर नहीं होता है, बल्कि वह किसी के भी आम जीवन में दिनभर के क्रियाकलापों व सक्रियताओं से जुड़ा होता है। घऱ, गांव या शहर में गंदगी हो रही है तो उसका स्रोत क्या है और उस स्रोत से निपटने के क्या उपाय हो सकता है, इस तरह की तार्किकता वैज्ञानिक चेतना का आधार बनती है। 

किताब याद करके नौकरी मिल गई 

भारत में वैज्ञानिक चेतना का प्रसार क्यों नहीं हो सका। मेरी इस खोज में सबसे पहले देहरादून के एक मित्र से मदद मिली। वे हिंदी के लेखक हैं। भारत सरकार की सेवा से निवृत हैं। वे एक संस्था में काम करते थे, जिसे विज्ञान से संबंधित माना जाता है। वे वरिष्ठ वैज्ञानिक के पद से सेवानिवृत हुए हैं। उन्होंने जीवन के उतार चढ़ाव के अनुभवों का वर्णन करने के दौरान ही बताया कि वे विज्ञान के छात्र नहीं थे। लेकिन उन्हें उस जमाने में यह कहा गया कि यदि वे विज्ञान की डिग्री ले लें तो उन्हें तत्काल नौकरी मिल सकती है। उन्होने ऐसा ही किया। वे विज्ञान की किताबों पर आधारित परीक्षा में उतीर्ण हो गए। उन्हें तत्काल विज्ञान की नौकरी मिल गई। इस उदाहरण से यह समझा जा सकता है कि किताबों को रटकर परीक्षाओं में सफल हो जाना, परीक्षा व्यवस्था की सफलता हो सकती है, लेकिन इससे यह नहीं दावा किया जा सकता है कि किताबों को याद करके कोई वैज्ञानिक चेतना का धारक बन सकता है। 

मेरे एक मित्र बता रहे थे कि उनका एक सहपाठी किसी किताब को चित्र की तरह अपनी आंखों में उतार लेता था। वह विज्ञान के विषयों में होने वाली प्रैक्टिकल की परीक्षा में अपनी चेतना और तार्किकता का इस्तेमाल नहीं करता था, बल्कि आंखों में उतारी गई तस्वीरों के सहारे प्रैक्टिकल की परीक्षाओं में सफल हो जाता था। आंखों में किसी पाठ का चित्र उतार लेना और किसी पाठ को चेतना का हिस्सा बनाने में यहां फर्क देखा जा सकता है। चेतना में उतरी तार्किकता जीवन और देश दुनिया में हर स्तर पर सक्रिय रह सकती है, लेकिन आंखों में उतरी वह तस्वीर केवल शिक्षण संस्थान की प्रयोगशाला में होने वाली परीक्षाओं तक ही सीमित रह जाती है। 

वैज्ञानिक चेतना पर सवाल उठाती भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे कलाम की एक तस्वीर

समाज में वैज्ञानिक चेतना का प्रसार होता है तो आविष्कारों की होड़ सी रहती है। अपने समाज में हम यह पाते हैं कि आविष्कारों को हासिल करने की होड़ में रहते हैं। बाजार से खरीदने की ललक बनी रहती है। आविष्कार का मतलब भारी भरकम और मशीनें नहीं होती है। आविष्कार जीवन की छोटी-बड़ी जरुरतों से जुड़ी हो सकती है। सोशल मीडिया पर कई तरह के वीडियो को देखकर इस बात से इर्ष्या होती है कि कैसे वैज्ञानिक चेतना से लैस समाज के लोग छोटी-छोटी जरुरतों को ध्यान में रखकर चीजें तैयार कर देते हैं। बेकार की कई चीजों से काम की चीज तैयार कर देते हैं। यह वैज्ञानिक चेतना की ही देन है। तार्किकता मतलब तर्क को विकसित करना इसके आधार में होती है।

सत्ता की ताकत हासिल करना मकसद 

यहां इस बात का भी हम अध्ययन कर सकते हैं कि विज्ञान की पढ़ाई हमारे समाज में कौन करता रहा है। अक्सर हम महसूस करते हैं कि समाज में सबसे कमजोर मानी जाने वाली महिलाएं और सामाजिक रुप से अपेक्षित लोगों का रुझान सामाजिक विज्ञान व मानविकी के विषय तक सीमित रखे गए हैं। विज्ञान की पढ़ाई तेजतर्रार माने जाने वाले बच्चे करते रहे हैं। यहां तेजतर्रार किस अर्थ मैं है। क्या चेतना के विस्तार के अर्थ में है या फिर किताबों को रट लेने के अर्थ में हैं, यह स्पष्ट है। समाज में तेज तर्रार परिवारों के बच्चे विज्ञान पढते रहे हैं तो उन्होंने समाज में वैज्ञानिक चेतना का विस्तार क्यों नहीं किया या खुद उससे लैस क्यों नहीं दिखते हैं। भारतीय समाज में आज भी उनकी हत्या कर दी जाती है जो कि तार्किकता के आधार पर अपनी बात कहते हैं और अंधविश्वास, पाखंड़, कर्मकांडों का विरोध करते हैं। यह कहने और स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए कि विज्ञान की परीक्षाओं को पास करके नौकरशाहों की एक फौज तैयार हुई, जिसका मकसद राज करना रहा है। इसे इस तरह से भी देख सकते हैं कि कोई भी परिवार अपने किसी सदस्य को मेडिकल और इंजीनियरिंग इसीलिए पढ़ाना चाहता है ताकि वे डाक्टर साहब और इंजीनियर साहब कहकर बुलाए जाएं। भारतीय समाज में ये ऐसे पदों के रुप में देखे जाते हैं, जिनसे सत्ता व वर्चस्व की ताकत जैसा महसूस किया जा सकता है। यही वजह है कि समाज की दृष्टि से देखें तो विज्ञान को लेकर परजीविता की स्थिति आज भी बनी हुई हैं। विज्ञान को लेकर हम आज भी भरोसेमंद नहीं हो सके हैं। विज्ञान का विस्तार चेतना के विस्तार के साथ जुड़ा हुआ है। हम वैज्ञानिक चेतना से धनी नहीं होते हैं, इसीलिए विश्व गुरू बनने का दावा करते हैं। विश्व गुरु बनना विज्ञान की चेतना का आदर्श नहीं हो सकता है। विज्ञान और उससे विकसित चेतना प्रभुत्व में नहीं, सेवा में विश्वास करती है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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