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बढ़ती चेतना के कारण निशाने पर राजस्थान के मेघवाल

15 अक्टूबर, 1962 को कालूराम मेघवाल अपने गांव के ठाकुरों के कुंए पर गए। खुद पानी पिया और अपने ऊंट को भी पिलाया। फिर उन्होंने ठाकुरों को चुनौती देने के लिए अपना एक जूता कुंए पर ही छोड़ दिया। इसके जवाब में ठाकुरों ने कालूराम का क़त्ल कर दिया। लेकिन उनका प्रतिरोध और साहस आज भी दलित समुदाय की प्रेरणा का स्रोत है। बता रहे हैं नीरज बुनकर

आज़ादी के 75 सालों में हमारे देश में क्या-क्या बदला है? इस प्रश्न का अलग-अलग लोग अलग-अलग उत्तर देंगे। एक उत्तर शायद यह भी हो कि सवर्णों ने दलितों का दमन करने के तरीके बदल लिए हैं और दलितों की प्रतिरोध की रणनीति भी बदल गई है। लेकिन यह सच है कि अछूत प्रथा आज भी जिंदा है और दलितों को आज भी उत्पीड़न किया जाता है, उनका शोषण होता है और उनके विरुद्ध हिंसा भी होती है। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार, सन 2020 में दलितों (अनुसूचित जातियों) की हर एक लाख आबादी पर अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के अंतर्गत अपराध / अत्याचार के 25 प्रकरण दर्ज किए गए। केंद्रीय गृह मंत्रालय के अनुसार, 2020 में उक्त अधिनियम के अंतर्गत 53,886 प्रकरण दर्ज हुए। उसके पिछले वर्ष (2019) यह संख्या 49,508 थी। दलितों के विरुद्ध अत्याचारों की वास्तविक दर इससे कहीं अधिक होगी, क्योंकि पुलिस तंत्र में व्याप्त जातिगत पूर्वाग्रहों के चलते अनेक मामलों में अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम , 1989 के तहत प्रकरण दर्ज ही नहीं किये जाते हैं।

दलितों व आदिवासियों पर अत्याचार के मामलों में राजस्थान शीर्ष के पांच राज्यों में शामिल है। एनसीआरबी के अनुसार राजस्थान में 2018, 2019 और 2020 में अत्याचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत क्रमशः 4,607, 6,794 और 7,017 प्रकरण दर्ज किये गए। हाल में राजस्थान में एक नौ साल के दलित लड़के की मौत, राष्ट्रीय स्तर की सुर्खी बनी। लेकिन यह पहली बार नहीं है कि राजस्थान में मेघवाल समुदाय को दमन और अत्याचार का सामना करना पड़ा हो।

सन् 1459 में राव जोधा ने जोधपुर को अपनी राजधानी बनाने के बाद जब वहां किले का निर्माण करवाया तो राजा राम मेघवाल को किले की नींव में जिंदा दफ़न कर दिया गया क्योंकि यह माना जाता था कि जिंदा मनुष्य को दफ़न करना साम्राज्य और किले के लिए शुभ और लाभदायक होता है। पुष्कर तालाब की नींव में भी जोग चांद मेघवाल को जिंदा गाड़ा गया। सन् 2015 में, डंगवास, नागौर में लगभग 200 जाटों की भीड़ ने ज़मीन से जुड़े एक विवाद को लेकर मेघवाल समुदाय के पांच लोगों को ट्रैक्टर से कुचल दिया। सन् 2016 में उच्च जाति के एक शिक्षक ने 17 साल की डेल्टा मेघवाल की बलात्कार के बाद हत्या कर दी थी। सन् 2017 में पिंकी नाम की 17 वर्षीया मेघवाल लड़की के साथ राज्य के झुंझुनूं जिले में चार जाट लड़कों ने सामूहिक बलात्कार किया। वहीं सन् 2018 में एक मेघवाल युवक द्वारा सोशल मीडिया पर उसके समुदाय के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करने के आरोप में राजपुरोहित समुदाय के कुछ युवकों के खिलाफ अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत एफआईआर दर्ज करवाई। प्रतिशोध स्वरुप बाड़मेर जिले के कलुदी गांव, जहां फरियादी रहता था, के 70 मेघवाल परिवारों का सामाजिक बहिष्कार किया गया। फिर, 2021 में, पाली जिले के सिराना गाँव में राजपूत पुरुषों ने एक आठ माह की गर्भवती मेघवाल महिला और उसकी मां के साथ मार-पीट की। इसी साल, बाड़मेर जिले के गिराब गांव में कुछ राजपूत युवक मेघवाल समुदाय के कब्रिस्तान में गए, जहां उन्होंने कब्रों को अपने पैरों तले कुचला और उनके कपड़े हटाकर वहां जानवरों की हड्डियाँ रख दीं। वर्ष 2021 में ही, बाड़मेर के चोहटन प्रखंड में दबंग जातियों के लोगों ने एक मेघवाल पिता-पुत्र पर हमला किया। गत 15 मार्च, 2022 को पाली में ऊंची जाति के लोगों द्वारा जितेन्द्र मेघवाल की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी गई, क्योंकि उसने मूंछे रख लीं थी। इसी साल 22 मई को अपने वायदा के मुकरने पर बूंदी जिले के बिलूबा गांव में 35 साल के राधेश्याम मेघवाल को मवेशियों के बाड़े में 31 घंटों तक भूखा-प्यासा बांध कर रखा गया और उसके साथ मार-पीट की गई। 

और सबसे ताज़ा घटना में जालौर में नौ साल के इंद्र कुमार मेघवाल को केवल इसलिए अपनी जान गंवानी पड़ी क्योंकि उसने अपने स्कूल के ऊंची जाति के प्राचार्य छैल सिंह के मटके से पानी पी लिया था। ऐसा बताया जाता है कि सुराना गांव के सरस्वती विद्या मंदिर नामक निजी स्कूल में गत 20 जुलाई, 2022 को छैल सिंह से इंद्र कुमार मेघवाल की पिटाई की। उसे गंभीर चोटें आईं। उसे जालौर और उदयपुर के विभिन्न अस्पतालों में और फिर अहमदाबाद के एक निजी अस्पताल में भर्ती करवाया गया, जहां घटना के 23 दिन बाद 13 अगस्त, 2022 को उसकी मौत हो गई। 

ये घटनाएं मेघवालों के खिलाफ अपराधों के एक बानगी भर हैं। ये मामले चर्चा का विषय बनने के कारण सबकी नज़रों में आए। ऐसे हजारों अन्य मामले हैं, जिन्हें दर्ज भी नहीं किया गया। 

उच्च जातियों से भरा मीडिया, सवर्ण गिरोह और प्रशासन जिस ढंग से सच को छुपाने और दोषियों को बचाने का यत्न कर रहा है, वह निंदनीय है। डॉ. आंबेडकर ने बहुत पहले चेताया था कि अछूतों और हिंदुओं के बीच विवाद में अछूतों को न तो कानून-व्यवस्था मशीनरी और ना ही न्यायाधीशों से न्याय मिलेगा। “पुलिसवाले और मजिस्ट्रेट हिंदू हैं और उन्हें अपने कर्तव्य से ज्यादा अपने वर्ग प्यारा है।”

राजस्थन के बीकानेर में कालूराम मेघवाल की प्रतिमा

सामाजिक कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी लिखते हैं, “गोबर और मनुवादी मीडिया हर दिन थूक कर चाट रहा है। पहले दिन कहा गया कि बच्चे को मटका छूने के कारण पीटा गया। दूसरे दिन मटका गायब हो गया। तीसरे दिन बच्चे को अध्यापक की पिटाई के कारण नहीं, बल्कि बच्चों की आपसी लडाई में चोट आई। चौथे दिन बच्चे को पहले से ही कान में संक्रमण था। कहानी पल-पल बदल रही है। वह दिन दूर नहीं जब खोजी पत्रकार ‘बिग ब्रेकिंग’ खबर देंगे कि ‘दलित विद्यार्थी को किसी ने नहीं मारा। वह तो अपने आप मर गया।’ धिक्कार है मनुवादी मीडिया और जातिवादी समाज का, जो पीड़ित को ही दोषी ठहरा रहा है।” 

सन् 2011 की जनगणना के अनुसार, राजस्थान में दलितों की जनसंख्या 1 करोड़ 22 लाख 21 हजार 593 है, जो कि राज्य की कुल आबादी का 17.83 प्रतिशत है। अनुसूचित जातियों में मेघवाल समुदाय की आबादी सबसे ज्यादा है। दबंग जातियां जैसे राजपूत और ब्राह्मण कुल आबादी का क्रमशः 9 और 7 प्रतिशत हैं। मेघवालों की इस बड़ी आबादी और समुदाय के सदस्यों में से अनेक सांसद, विधायक और अन्य उच्च राजनैतिक पदों पर आसीन होने के बावजूद यह समुदाय अत्याचारों का सबसे ज्यादा शिकार है। मेघवाल यदि अपने साथ हो रहे घोर अन्याय का प्रतिरोध नहीं कर पाते तो इसका एक कारण यह है कि वे आर्थिक रूप से ऊंची जातियों पर निर्भर हैं। उनके आर्थिक संसाधन, विशेषकर खेती की ज़मीन, काफी सीमित हैं और इसलिए दो जून की रोटी जुटाना भी उनके लिए संघर्ष है। उदाहरण के लिए पाली जिले में जितेंद्र मेघवाल के गांव बरवा में 200 मेघवाल परिवार रहते हैं, लेकिन फिर भी वे ऊंची जातियों द्वारा उनके दमन का प्रतिरोध नहीं कर पाते। इसका कारण यह है कि केवल 6 परिवारों के पास कृषि भूमि है और शेष अपने जीवनयापन के लिए उच्च जातियों के दमनकर्ताओं पर निर्भर हैं।

हालांकि पिछले कुछ वर्षों से मेघवालों में जागृति आई है। और इसका कारण शिक्षा है। इस जाति के अनेक लोगों ने समाज में सम्मानित स्थान हासिल किया है। मसलन, आईपीएस अधिकारी रतन लाल दांगी वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य की बिलासपुर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक हैं, भंवर मेघवंशी लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, मजदूर पिता की संतान भट्टा राम, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज के छात्र संघ के अध्यक्ष हैं, यश मेघवाल, लंदन की क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में एमएससी हैं और मुझ जैसा साधारण परिवार का लड़का लंदन में पीएचडी कर रहा है। 

राजनैतिक पदों पर आसीन मेघवाल समुदाय के लोगों से कुछ भी उम्मीद करना बेकार है। कांशीराम की आशंका सही साबित हुई है और सभी नेता चमचे बन चुके हैं। लेकिन राजस्थान जैसे सामंती प्रवृत्ति वाले राज्य में भी मेघवालों में उनके ऊपर अत्याचारों और मनुवादी परंपराओं के विरुद्ध प्रतिरोध उभर रहा है। उच्च जातियों को यह पच नहीं रहा है और इस प्रतिरोध को कुचलने के लिए वे हिंसा का सहारा ले रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि मेघवाल समुदाय ने यथास्थिति पर प्रश्न उठाना अभी शुरू किया है। उन्हें जब भी मौका मिला उन्होंने अपना प्रतिरोध दर्ज किया। 15 अक्टूबर, 1962 को ठाकुरों ने कालूराम मेघवाल की गोली मार कर हत्या कर दी। बीकानेर जिले के झाझु गांव के मेघवाल पानी की कमी से जूझ रहे थे। कालूराम मेघवाल अपने गांव के ठाकुरों के कुंए पर गया, खुद पानी पिया और अपने ऊंट को भी पिलाया। फिर उसने ठाकुरों को चुनौती देने के लिए अपना एक जूता कुंए पर ही छोड़ दिया। इसके जवाब में ठाकुरों ने कालूराम का क़त्ल कर दिया। लेकिन उनका प्रतिरोध और साहस आज भी दलित समुदाय की प्रेरणा का स्रोत है।

गर्मियों में गांवों के निवासी चंदा कर विभिन्न स्थानों पर पानी के मटके रखवाते हैं। इनसे कोई भी पानी ले सकता है। लेकिन अगर कोई दलित अपनी प्यास बुझाना चाहे तो वो मटके को नहीं छू सकता। उसकी अंजुरी में ऊंची जाति का कोई व्यक्ति पानी डालता है। 

मुझे अपने बचपन की एक घटना याद है। हमारे एक रिश्तेदार और एक ऊंची जाति की लड़की के बीच प्रेम प्रसंग के मामले में ऊंची जातियों के लोगों ने एक बैठक की और सार्वजनिक रूप से मेरे समुदाय के बहिष्कार की घोषणा कर दी। मैं बस स्टैंड पर स्थित एक दुकान से परचूनी (दैनिक उपयोग की वस्तुएं) का सामान खरीदने गया, लेकिन मुझे खाली हाथ लौटना पड़ा, क्योंकि गांव वालों ने दुकानदार को चेता दिया था कि अगर उसने मेरे समुदाय के किसी व्यक्ति को कोई सामान बेचा तो उसे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। ऊंची जातियों के लोगों ने हमारे समुदाय के सभी सदस्यों से एक कोरे कागज़ पर दस्तखत करने को कहा। अधिकांश से उस पर अपने अंगूठे का निशान लगा दिया (वे निरक्षर थे), लेकिन मेरे पिता और मेरे चाचा ने उस पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। अन्य गांववालों ने विरोध किया, जिसके बाद पुलिस आई और उसने मेरे पिता और उनके भाई को हिरासत में ले लिया। विडंबना यह थी कि संविधान का उल्लंघन कर रहे जातिवादी लोगों को सजा देने के बजाय पुलिस ने उनका बचाव किया और अपने संवैधानिक अधिकारों के रक्षा के लिए खड़े होने वाले दलितों (मेघवालों) के खिलाफ कार्रवाई की। मेरे पिता और मेरे चाचा ने रात पुलिस थाने में बिताई। हजारों मेघवाल इसी तरह के अनुभवों से गुज़रे हैं। 

एक ओर दलितों को घोड़े पर सवारी करने से रोका जा रहा है तो दूसरी ओर तरुण मेघवाल जैसे लोग हेलीकाप्टर में घूम रहे हैं। तरुण मेघवाल ने हाल में बाड़मेर जिले में पाकिस्तान की सीमा से सटे भिदानियों की ढाणी की दीया से विवाह किया। वे अपनी दुल्हन के साथ हेलीकाप्टर से जसेधर धाम पहुंचे। पूरे देश के साथ-साथ, राजस्थान में भी दलितों की स्थिति में सकारात्मक बदलाव आ रहे हैं और मेघवाल समुदाय इसमें प्रमुख भूमिका निभा रहा है। संभवत: इसी कारण उनके ऊपर अत्याचार भी बढ़ रहे हैं। 

(अनुवाद :अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

नीरज बुनकर

लेखक नाटिंघम ट्रेंट यूनिवर्सिटी, नॉटिंघम, यूनाईटेड किंगडम के अंग्रेजी, भाषा और दर्शनशास्त्र विभाग के डॉक्टोरल शोधार्थी हैं। इनकी पसंदीदा विषयों में औपनिवेशिक दौर के बाद के साहित्य, दलित साहित्य, जाति उन्मूलन, मौखिक इतिहास व सिनेमा आदि शामिल हैं

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