कबीर मध्यकालीन कवि और संत रहे। वे एकमात्र रहे जिनके बारे में दुनिया भर में लिखा-पढ़ा और चिंतन किया गया है। उनके विचारों, यहां तक कि उनकी जन्म और मृत्यु के बारे में भी इतनी धुंध हैं कि उन्हें उससे निकालकर उनका समग्र मूल्यांकन करना देशी-विदेशी विद्वानों के लिए हमेशा एक चुनौती बना रहा। यह कमोबेश आज भी है। उन्हें एक साथ संत, कवि और क्रांतिकारी माना जाता है।
विद्यार्थी जीवन से ही कबीर तथा बुद्ध मेरे जबरदस्त आकर्षण के केंद्र रहे हैं। संभव है कि बाद में मुझे सामाजिक सरोकारों से जुड़ने की प्रेरणा इन्हीं दो महान विभूतियों से मिली हो। गोरखपुर शहर से करीब तीस किलोमीटर दूर मगहर है, जहां कबीर ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था। इस संबंध में कबीर का एक पद है–
का काशी, का ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा, रामै कौन निहोरा॥
हालांकि उनकी मृत्यु के बारे में एक किंवदंती है। लेकिन कबीर के परिनिर्वाण स्थल पर दो समाधियां हैं, जिसमें एक हिंदुओं की है, दूसरी मुस्लिमों की। ऐसी मान्यता है कि उनकी मृत्यु के बाद उनके अंतिम संस्कार को लेकर उनके हिंदू-मुस्लिम अनुयायियों के बीच विवाद उत्पन्न हो गया। बाद में उनके शव से चादर हटाने पर वहां केवल कुछ फूल ही मिले, जिसे बांटकर हिंदू-मुस्लिमों ने अपने-अपने समाधि स्थल बनाए।
पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है। महापुरुषों के बारे में ऐसी गाथाएं या किंवदंतियां प्रचलित हो जाती हैं। लेकिन इस बात का तो प्रमाण है कि तत्कालीन समाज में कबीर की मूर्तिभंजक छवि का गहरा प्रभाव था।
आज मगहर संत कबीरनगर (खलीलाबाद) जनपद का हिस्सा है। यह हथकरघा उद्योग के लिए प्रसिद्ध है। खासकर यहां के सूती कपड़ों की मांग देश-विदेश में हैं। यहां जुलाहों और बुनकरों की बहुलांश आबादी पसमांदा मुसलमानों की है। उनके द्वारा बनाए गए कपड़ों के आढ़ाती (थोक) व्यापारी उच्च जाति के मुस्लिम और हिंदू मारवाड़ी हैं।
सवाल यह है कि क्या यहां जुलाहों-बुनकरों की भारी आबादी के कारण ही ब्राह्मणों ने यह अवधारणा फैलाई कि यहां पर मरने वाला नर्क जाएगा और काशी में मरने वाला स्वर्ग? कबीर एक क्रांतिकारी की तरह इस धारणा का खंडन करने के लिए काशी छोड़कर मगहर आ गए थे। यह बात भले ही प्रतीकात्मक हो, लेकिन यह तत्कालीन समाज में ब्राह्मणवादी समाज की धारणाओं पर जबरदस्त चोट थी।
एक और सवाल मेरी जहन में है कि कबीर के स्वयं जुलाहा होने के कारण क्या उनका इस इलाके से पहले ही से कोई गहरा संबंध था? इस विषय पर मुझे अभी भी व्यापक शोध की जरूरत महसूस होती है।
6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हमलोगों ने अयोध्या से मगहर तथा काशी से मगहर तक की ‘कबीर यात्रा’ निकाली थी। राजनैतिक कर्म के दौरान पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांव और कस्बों में घूमते हुए मैंने पाया कि यहां के किसानों और मेहनतकशों में कबीर के साखी और दोहों को लेकर जबरदस्त आकर्षण है। यहां लोगों को कबीर के साखी, दोहे-चौपाई सब कंठस्थ याद हैं, जिन्हें वे अकसर सुख-दु:ख में गाते हैं।
इस इलाके के कबीरा गायन की एक लोक परंपरा भी है। यद्यपि आजकल इसमें कुछ अनर्गल बातें भी जोड़ दी गई हैं। विशेष रूप से होली के गीतों में, लेकिन इसका मूल बहुत ही प्रभावशाली है।
कबीर यहां के जीवन में रच-बस गए हैं। अकसर सुबह-सुबह गांव कहीं दूर से आती हुई कबीरा की आवाज़ मुझे गहरी आध्यात्मिकता का आभास कराती रही है। यह भी तब जब मैं नास्तिक हूं। फ्रैंक अर्नेस्ट केइ द्वारा लिखित व कंवल भारती द्वारा अनूदित किताब ‘कबीर और कबीरपंथ’ को पढ़ते हुए मुझे बार-बार वही गह अनुभूति होती है, जिसे मैंने खुद जीया और महसूस किया था।
कहना ही होगा कि कबीर की मूल रचनाओं की जगह ‘कबीर परिचाई’ या ‘भक्तमाला’ जैसी कृतियां पाखंड के खिलाफ़ कबीर के विद्रोह को नकारकर उन्हें एक चमत्कारी ईश्वर बनाने के काम में लगी रहीं।
फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक ‘कबीर और कबीरपंथ’ के लेखक ब्रिटिश विद्वान और पादरी एफ. ई. केइ ने लंदन विश्वविद्यालय से अपने डॉक्ट्रेट के लिए कबीर को विषय के रूप में चुना था। यह शोध प्रबंध उन्होंने 1920 के दशक में लिखी थी। उनका यही शोध प्रबंध एसोसिएशन प्रेस, कोलकाता द्वारा 1931 में कुछ संशोधनों के साथ ‘कबीर एंड हिज़ फॉलोअर्स’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया।
यह कबीर के जीवन और सिद्धांतों पर अंग्रेजी में लिखा गया बेहतरीन ग्रंथ है, जिसका हिंदी में पहली बार अनुवाद कंवल भारती द्वारा किया गया है।
इस किताब में केइ ने कबीर का समय और परिवेश, किंवदंतियों में कबीर के जीवन का उल्लेख करते हुए कबीरपंथ के संस्कार और कर्मकांड तक बात को पहुंचाया है। इससे स्पष्ट होता है कि किस तरह एक पाखंड विरोधी विचारक व कवि को कर्मकांड में उलझा दिया गया।
कुल ग्यारह अध्यायों में बंटी यह पुस्तक कबीर के जन्म से लेकर उनके साहित्य, कबीरपंथ के संस्कारों, परंपराओं और कर्मकांडों आदि का प्रामाणिक ब्योरा प्रस्तुत करती है। साथ ही, कबीर से प्रेरित अन्य संप्रदायों की जानकारी भी देती है। इनमें सिक्ख धर्म से लेकर सतनामी पंथ और राधास्वामी पंथ आदि शामिल हैं। ऐसे तेरह सम्प्रदायों/पंथों की चर्चा लेखक ने पुस्तक में की है। इस अध्याय में बताया गया है कि सिक्ख संप्रदाय के संस्थापक गुरु नानक कबीर के समकालीन थे, लेकिन वे कबीर से आयु में छोटे थे। कबीरपंथियों की मान्यता है कि कबीर ने गुरु नानक को पंजाब में अपने पंथ का नेता नियुक्त किया था, परंतु वे और उनके अनुयायी कबीर के सच्चे धर्म से भ्रष्ट होकर कबीरपंथ से अलग हो गए।
यद्यपि लेखक इस अवधारणा को ऐतिहासिक रूप से सही नहीं मानते, लेकिन यह भी सत्य है कि नानक कबीर से बहुत प्रभावित थे और सिक्खों के आदि ग्रंथ में कबीर की वाणी संग्रहित है। नानक के धार्मिक विचार स्थूल रूप में वही हैं, जो कबीर के थे।
इसके अलावा लेखक ने उन मुस्लिम सूफी कवियों की भी चर्चा की है, जिन्होंने कबीर से प्रभावित होकर सूफ़ी साहित्य रचा। इसमें बुल्ला साहिब, यारी साहिब आदि को हम अकसर पढ़ते-सुनते रहे हैं। इसी अध्याय में उन्होंने एक महत्वपूर्ण तथ्य यह बतलाया है कि कबीर की तुलना कभी-कभी सोलहवीं सदी के धर्म सुधारक मार्टिन लूथर से भी की जाती है, जो कि लेखक के अनुसार सही नहीं है, लेकिन लेखक साथ में यह भी कहते हैं कि फिर भी इससे कबीर के विचारों को समझने में सहायता तो मिलती ही है।
पहले ही अध्याय ‘कबीर का समय और परिवेश’ में केइ लिखते हैं– “कबीर का समय ईसा पश्चात पंद्रहवीं सदी का है, तब उत्तर भारत में जबरदस्त राजनैतिक अव्यवस्था का दौर था। एक समय मजबूत और शक्तिशाली रहा दिल्ली सल्तनत पतन की ओर अग्रसर था। आमतौर पर दिल्ली सल्तनत के पतन की शुरुआत मुहम्मद बिन तुगलक के विनाशकारी शासन से मानी जाती है। उसका शासनकाल अकाल, विद्रोहों और विपदाओं का दौर था। उसका उत्तराधिकारी फिरोजशाह तुगलक मुहम्मद की तुलना में एक बेहतर शासक था, परंतु उसने भी बर्बादी को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया। इसी दौर में 1398 में तैमूर का आक्रमण हुआ । भारत में हालांकि वह कुछ ही महीने रहा, परंतु वह जिन स्थानों से गुजरा, वहां के वाशिंदों के लिए वह एक खौफ़नाक दौर था। दिल्ली लूट ली गई और बड़े पैमाने पर वहां के निवासियों को मौत के घाट उतार दिया गया था। जब तैमूर अपने देश वापस लौटा तो वह अपने पीछे अकाल, महामारी और अराजकता छोड़ गया था। उसके आक्रमण का वर्ष 1398 ही पारंपिक रूप से कबीर के जन्म का वर्ष माना जाता है। हालांकि वे शायद उसके कुछ समय बाद पैदा हुए थे, लेकिन उनके बचपन में ऐसे कई व्यक्ति रहे होंगे, जो उस दौर के भयानक मंजर के चश्मदीद थे।”
लेखक का मानना है कि इन ऐतिहासिक घटनाओं ने कबीर के लेखन और सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। वे कहते भी हैं कि कमोबेश प्रत्येक व्यक्ति अपने समय की उपज होता है, इसलिए कबीर के जीवन को समझने के लिए उनके समय पर एक नज़र डालना उपयोगी होगा। इस पुस्तक में लेखक ने अनेक किंवदंतियों जैसे– उनका जन्म, अपने गुरु रामानंद से मिलना और उनकी पत्नी, पुत्र एवं पुत्री के बारे में दिलचस्प जानकारियां एकत्रित की हैं तथा इसका उनके साहित्य और विचारों पर पड़ने वाले प्रभावों का भी सटीक मूल्यांकन किया है। अनुवादक कंवल भारती ने अनुवाद के साथ-साथ आदिग्रंथ के मूल पाठ से बहुत सी महत्वपूर्ण सामग्रियां भी जुटाईं।
इस लिहाज से केइ की यह पुस्तक नब्बे साल के बाद भी अत्यंत ही पठनीय है और इसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। यह कबीर के बारे में जानने-समझने की ख्वाहिश रखनेवाले हर व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण है। फिर चाहे वह अध्येता हों, शोधार्थी हों या फिर जनसामान्य।
समीक्षित पुस्तक : कबीर और कबीरपंथ
लेखक : एफ. ई. केइ
अनुवादक : कंवल भारती
प्रकाशक : फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली
मूल्य : 200 रुपए (अजिल्द)
(संपादन : नवल/अनिल)