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पुस्तक समीक्षा : स्त्री के मुक्त होने की तहरीरें (अंतिम कड़ी)

आधुनिक हिंदी कविता के पहले चरण के सभी कवि ऐसे ही स्वतंत्र-संपन्न समाज के लोग थे, जिन्हें दलितों, औरतों और शोषितों के दुख-दर्द से कोई वास्ता नहीं था। वे कविता के नाम पर भजन-कीर्तन लिख रहे थे और महाकवि बने हुए थे। ऐसे कवि दलित और स्त्री की मुक्ति के प्रश्न पर नाक-भौं सिकोड़ते थे। नूपुर चरण ने अपनी कविताओं में मजबूती से प्रतिवाद किया है। पढ़ें, कंवल भारती की विस्तृत समीक्षा की अंतिम कड़ी

(पहली कड़ी के आगे)

दलितों के प्रति हिंदुओं की नफ़रत तब हिंसा में बदल जाती है, जब दलित अपना कद सवर्णों के बराबर बनाने की कोशिश करते हैं, वे स्वाभिमान से रहना चाहें, तो हिंसा, घोड़े पर चढें, तो हिंसा, मूंछें रखें, तो हिंसा, उनका घड़ा छुएं, तो हिंसा। हिंसा का एक सतत वातावरण दलितों के चारों ओर हर वक्त बना रहता है, जो उन्हें सहज और स्वतंत्र जीवन नहीं जीने देता। इस सच की एक जलती हुई चिंगारी नूपुर चरण ने ‘हार्शू क्रैब’ में संकलित कविता ‘प्रतीक और प्रतिरोध’ में उभारी है। यह कविता दलित-उत्पीड़न के अतीत और दलित-चेतना के वर्तमान को रेखांकित करती है। यथा– 

जब तुम पैदल चलते थे
उन्हें अच्छा लगता था
उन्हें और अच्छा लगता था
जब तुम्हारे पैरों से बहता था रक्त
लेकिन यह क्या
तुम घोड़े पर चढ़ गए
वो ये कैसे बर्दाश्त करते
उन्हें तो तुम्हें मारना ही था।
क्योंकि इन सबमें तुमने एक गलती कर दी
बन्दूक की जगह घोड़ा खरीद लिया
विरोध और विद्रोह की जगह
प्रतीक चुन लिया।

इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि भारत की क्रूर जाति-व्यवस्था ने भारतीय समाज के संवेदनशील और लोकतांत्रिक विकास को रोक दिया है। केवल कुछ मुट्ठीभर वर्ग हैं, जो अपना विकास किए जा रहे हैं और एक बहुसंख्यक समाज है, जो विकास के हर क्षेत्र में निरंतर पिछड़ता जा रहा है। सारी मूलभूत सुविधाएं और संसाधन उन्हीं मुट्ठीभर लोगों के लिए हैं, जो शासक वर्ग है, और शेष के लिए अभावों में जीना ही नियति बना हुआ है। समाज के इस विद्रूप से कौन न विचलित होगा? नूपुर चरण ने इसी विद्रूप से आहत होकर ‘मदारी और जमूरा’ नाम से एक विचारोत्तेजक काव्य-नाटिका की रचना की है। स्टेज पर मदारी और जमूरा एक साथ आते हैं। नेपथ्य में गाना चलता है– “जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा, यह भारत देश है मेरा।” मदारी पूछता है, जमूरे हम जिस देश में हैं, यह कैसा देश है? जमूरा जवाब देता है–

ये योग, अध्यात्म और गांधी का देश है।
गांधी, तब तो यह नमन योग्य है।
जी, सरकार, यह नमन योग्य ही है।
(जमूरा कुछ उदास होकर)
यह एक ऐसा देश है
जहां मासूम बच्चे बिना इलाज के मर जाते हैं
और वैज्ञानिक चेतना-संपन्न डाक्टर
पत्थर के भगवान का इलाज करते हैं
मदारी– अरे यहां के लोग तो
वसुधैव कुटुंबकम की भावना से ओतप्रोत हैं
जमूरा– हां हुजूर, सही है, इनके बगल का व्यक्ति
भूख-प्यास से मर जाता है,
बाक़ी, पूरी धरती तो इनका परिवार है ही।
मदारी– यहां पर तो, नारियों की पूजा की जाती है।
जमूरा– हां और उनकी योनियों में यज्ञ भी किए जाते हैं।

भारत में ब्राह्मणशाही की वर्णव्यवस्था वर्ग-संघर्ष और जाति-संघर्ष दोनों को उभरने से रोकती है। यहां प्रतिरोध की आवाजें तो हैं, पर धीमी हैं, क्योंकि उन आवाजों से तेज यहां दमन और आतंक की आवाजें हैं, जो संभावित क्रांति को कुचलती हैं। जैसे अमेरिकी कवि फ्रेड रेड क्लाउड अपनी एक कविता में कहते हैं– “गोरा आदमी मेरी ही बनाई हुई डोरी का रस्सा बनाकर मेरी गर्दन पर लपेटकर मेरे ही बचाए हुए एक पेड़ पर मुझे लटका देता है।” ब्राह्मण-ठाकुर वर्ग भी दलितों के बनाए हथियारों से ही उनका दमन करता है, क्योंकि वह जानता है कि अगर दमन को रोका गया तो क्रांति भारत की समाज-व्यवस्था को पलट देगी, और ब्राह्मण-ठाकुरों का राज चला जाएगा। नूपुर चरण ने इसी भय को ‘भय’ कविता में अभिव्यक्ति दी है। यथा–

तुम्हें भय किस बात से है?
कि हम प्रेम की दुनिया बसाएंगे।
या इस बात का है
कि तुम्हारी तानाशाही के विरुद्ध
हमारे शिशुओं की जुबान पर
जो पहला शब्द आएगा
वो होगा क्रांति?
या इस बात से कि जनता
तुम्हारे बनाए यातना-गृहों को तोड़कर
अपने जल, जंगल, जमीन पर
अपना हक जताएगी?
अगर ऐसा है तो सुनो
खुद को ईश्वर का अवतार और शहंशाह
जैसे दंभ को धारण करने वालों
तुम्हारा डर वाजिब है।
तुम दमन के सारे हथियार आजमा लो
सब कुचक्र रच डालो
लेकिन आने वाली पीढ़ियों को हम
क्रांति के लिए तैयार करेंगे।

क्रांति की आवाजें दमन से दब जरूर जाती हैं, मगर बंद नहीं होतीं। वो फिर-फिर उभरती हैं और लगातार सत्ता से झूझती हैं। जैसा कि नूपुर चरण ‘सत्ता, धर्म और समाज’ कविता में उदघाटित करती हैं–

सत्ता की हनक डराती नहीं है मुझे
और मजबूत करती है जूझने को सत्ता से।
धर्म का श्राप कंपाता नहीं है मुझे
और मजबूत करता है तोड़ने को इसका तिलिस्म।
समाज का विरोध हिलाता नहीं है मुझे
और मजबूत करता है तोड़ने को समाज के नियम।

नूपुर की ये पंक्तियां उन लोगों के लिए हैं, जो सामाजिक सरोकारों से शून्य आराम से सोते हैं, और विरोध करने वालों को डराते हैं। तमिल कवयित्री औवैयर की कविता की ये पंक्तियां बरबस याद आती हैं–

क्या मैं हमला बोल दूं उन सब पर?
पीट डालूं क्या मैं उन तमाम लोगों को
या कोई बहाना खोज लूं इस शहर पर चीखने का?
मेरी व्यथा से अनजान जो निरद्वंद्व सोता रहा है लगातार

निर्द्वंद्व समाज की कोई समस्या नहीं होती– न सामाजिक और न आर्थिक। इसलिए वह चादर तानकर आराम से सोता है। आधुनिक हिंदी कविता के पहले चरण के सभी कवि ऐसे ही स्वतंत्र-संपन्न समाज के लोग थे, जिन्हें दलितों, औरतों और शोषितों के दुख-दर्द से कोई वास्ता नहीं था। वे कविता के नाम पर भजन-कीर्तन लिख रहे थे और महाकवि बने हुए थे। ऐसे कवि दलित और स्त्री की मुक्ति के प्रश्न पर नाक-भौं सिकोड़ते थे। नूपुर चरण ने ‘प्रश्न और प्रतिरोध’ कविता में इसी प्रश्न को उठाया है। यथा–

जब मैंने लिखी उनकी प्रशंसा
कहा गया : वाह, वाह
जब मैंने लिखा श्रृंगार
उन्होंने कहा : बेहतरीन
लेकिन जब मैंने लिखा स्त्री
तब वो चुप हो गए
जब मैंने लिखा आदिवासी
तब वो सकते में आ गए।
जब मैंने लिखा दलित
तब वो मेरी जाति खोजने लगे।
और जब मैंने लिखा उनकी व्यवस्था के खिलाफ
तब वो बंदूक लेकर
मुझे मृत्यु-दंड दे गए।

समीक्षित काव्य संकलन ‘हार्शू क्रैब’ का आवरण पृष्ठ

निर्द्वंद्व जीवन जीने वाले लोग आर्थिक रूप से संपन्न और शासक जातियों के होते हैं, जो अपने जीवन को सफल मानते हैं। ऑस्ट्रियाई कवयित्री एल्फ्रीडे हाजलेनर ने ऐसी ही एक सफल स्त्री का चित्रण किया है–

मैं नहीं सोयी पुल के नीचे
नहीं पीटा मुझे जेल में किसी आदमी ने
नहीं किया पत्थर कूटने, चूने-भट्टे का काम
हे ईश्वर कितना सफल जीवन जिया मैंने।

नूपुर चरण ने अपने समय को गहराई से पकड़ा है, और जुल्म की उन घटनाओं पर भी विचलित होकर कलम चलाई है, जिनसे पूरी मानवता शर्मसार हुई। उनमें मॉबलिंचिंग पर ‘भीड़’, तेलंगाना में इज्जत के नाम पर प्रणय और अमृता की हत्या पर ‘हमें माफ कर दो’, केरल में सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को रोकने पर ‘ईश्वर और स्त्री’, गुजरात में मजदूरों को मारपीट कर भगाने की घटना पर ‘हताशा’, और दिल्ली में किसानों पर हुए अत्याचार पर ‘किसान और सत्ता’ कविताएं शामिल हैं। ये कविताएं जहां धर्म और मर्यादा के नाम पर की गई हिंसा के खिलाफ अपना प्रतिरोध दर्ज कराती हैं, वहीं पूंजीपतियों और सत्ता के दमन पर विचारोत्तेजक बहस को भी जन्म देती हैं। लेकिन इनमें ‘भीड़’ एक कमजोर कविता है, खासकर इसकी ये पंक्तियां– “भीड़ नहीं देखती/ किसी की जाति/ किसी का धर्म/ भीड़ बनती है लोगों से/ और लोगों के पास/ कहां है फुर्सत।” यह सच है कि भीड़ लोगों से बनती है, लेकिन जिस संदर्भ में यह कविता है, वह भीड़ लोगों में एक समुदाय विशेष के प्रति भरी गई नफ़रत से बनती है। यह नफ़रत धर्म के नाम पर भरी गई है। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि भीड़ किसी की जाति या किसी का धर्म नहीं देखती। वह यह सब देखकर ही हमला करती है। वह मुसलमान को उसके कपड़े और दाढ़ी से पहचानती है। दलितों को वह उसके पेशे से पहचानती है। भीड़ ने जुनैद की हत्या मुसलमान समझ कर ही की थी। ऐसा नहीं है कि हर बार पहचान सही ही हो, वह गलत भी हुई है, पर हमला हमेशा मुसलमान समझकर ही हुआ है। इस कविता का दोष यह है कि इसमें भीड़ नफ़रत से उत्तेजित नहीं है, बल्कि एक तरह से जाति-धर्म से निरपेक्ष दिखाई गई है। जाति-धर्म से निरपेक्ष भीड़ किसी की हत्या क्यों करेगी? हां, किसी चोर की पिटाई करने वाली भीड़ जरूर जाति-धर्म से निरपेक्ष हो सकती है, पर जुनैद चोर नहीं था। इसी तरह ‘हताशा’ कविता में मजदूरों को मारकर भगाना मालिकों की हताशा नहीं, बल्कि दमन और जुल्म है। यह सच है कि मालिकों का वैभव मजदूरों के ही खून-पसीने से बना है, और मजदूरों में यह समझ और विद्रोह इस कविता में है, यथा– “अब वो तुम्हारा जुल्म सहने को तैयार नहीं/ वो तुम्हारी सत्ता को/ फेंकेंगे उखाड़।” लेकिन सच यह है कि पूंजीवादी सत्ता दिन-पर-दिन मजबूत हुई है, और हो रही है। क्या मजदूर-एकता के बिना क्रांति संभव है और क्या एकता जातिवाद को खत्म किए बिना संभव है? वह क्या चीज है, जो मजदूरों को संगठित नहीं होने दे रही? वह है उनके बीच धर्म और जाति की दीवारें। अच्छा होता, यदि इस कविता में इस दिशा में चिंतन होता।

मशहूर शायर जाफरी (शायद सरदार जाफरी) ने इस सच को अनुभव कर लिया था। इसलिए उन्होंने लिखा था–

आज मैं अपने बेजान गीतों से शरमा रहा हूं
मेरे हाथों से मेरा कलम छीन लो
और मुझे एक बंदूक दे दो
ताकि मैं अपने नग्मों में फौलाद व बारूद का जोर भर दूं।

बारूद का यह जोर नूपुर चरण ने ‘क्रांति के गीत’ कविता में भरा है–

पहले लिखना होगा
उद्दंड, क्रूरतम व्यवस्था पर
जो करती है अट्टहास
हत्या कर, दमन कर,
लोगों का निचोड़कर रक्त
खून से भीगे हैं जिसके हाथ।
इसके खिलाफ
जो पहला शब्द हम लिखेंगे साथी
वो होगी क्रान्ति।

अगला खंड प्रतीक और अवधारणाओं का है, जिसके अंतर्गत तेरह कविताएं शामिल की गई हैं। इसमें पहली कविता ‘देवत्व’ है। यह एक अच्छी कविता है, जो मनुष्य और देवत्व के बीच मनुष्य को स्थापित करती है। यथा– “मैं हर उस मनुष्य से/ घृणा करती हूं/ जो मनुष्यता की जगह/ देवत्व को चुनता है।” ऐसी ही भावाभिव्यक्ति की कुछ पंक्तियां मैंने फेसबुक पर हिंदी कवयित्री जसिंता केरकेट्टा की पढ़ी थी– “वो आखिर किसका देवता है/ जो मनुष्यता ही नहीं जानता/ वह मनुष्यों का देवता कैसे हो सकता है?” सच है, ईश्वर और देवता को नकारकर ही मनुष्य को स्थापित किया जा सकता है। 

इस क्रम में ‘योग्यता’, ‘प्रतीक’, ‘सभ्यताएं’, ‘मृत’, ‘इतिहास’, ‘रक्त का स्वाद’, सफ़ेद आसमान’, ‘शिव अब विषपान मत करो’, ‘मंटो’, ‘बुद्ध’, ‘छीन लूं’, ‘शब्द’, ‘प्रेम’, ‘ब्लैक होल’, ‘प्रेम का रंग’, ‘प्रतीक्षा’, ‘मध्य’, ‘काश’, ‘मिलूंगी तुमसे’ और ‘विदा’ शीर्षक कविताओं को शामिल किया गया है। इनमें भी अधिकाशं कविताएं कमजोर हैं और अर्थ की दृष्टि से भी प्रभावित नहीं करतीं। लेकिन कुछ हैं, जिन पर बात की जा सकती है। जैसे ‘बुद्ध’ कविता में ये पंक्तियां– “आसान था बुद्ध/ तुम्हारे लिए घर छोड़कर जाना/ अपनी सोती हुई पत्नी और दुधमुंहे बच्चे से/ पलायन कर जाना।” लेकिन इस सवाल पर कविता मौन है कि सिद्धार्थ (बुद्ध) के लिए घर और बीवी-बच्चे को छोड़कर जाना क्यों आसान था? अगर सिद्धार्थ राजा या संपन्न परिवार के न होते, गरीब परिवार के होते, तो पलायन नहीं कर सकते थे। सिद्धार्थ जानते थे कि उनके घर छोड़ने से उनकी पत्नी और बच्चे के भरण-पोषण में कोई समस्या नहीं आएगी। पर निर्धन व्यक्ति ऐसा नहीं सोच सकता, क्योंकि उसके घर छोड़ने से उसकी पत्नी-बच्चे का भविष्य सुरक्षित नहीं रहता। इसलिए संभ्रात और संपन्न व्यक्ति के लिए हमेशा घर छोड़ना आसान होता है।

‘प्रेम’ शीर्षक से दो कविताएं हैं। पहली कविता में अस्तित्ववादी चिंतन है, जिसमें ‘मैं’ विलीन नहीं होता है। कवयित्री कहती है– “मैं प्रेम करना चाहती हूं/ कुछ वैसा जैसे/ सिमोन ने सार्त्र से किया था/ जिसमें सिमोन का ‘मैं’ बचा रहा गया था।” हमारे यहां सूफीवाद या आध्यात्मिक भक्ति में अस्तित्व का विलय ही प्रेम है। सूफी संत इसे इश्क मजाज़ी से इश्क हकीकी की ओर जाना कहते हैं, और वेदांती इसे अद्वैत कहते हैं। लेकिन प्रेम की ये दोनों अवस्थाएं वास्तव में कभी नहीं होतीं। प्रेम वही है, जिसमें ‘मैं’ का बोध बना रहे। दूसरी कविता में दैहिक प्रेम की भयावहता का चित्रण है। यथा– “प्रेम नहीं होता है आधा-अधूरा/ वो तो होता है अपनी संपूर्णता में/ हमें निगलने को आतुर/ … वो हमें दबोचे रहता है/ अपने शातिर पंजों से/ और करता है भयानक अट्टहास/ नहीं छूटने देता है/ अपने शिकंजे से।” इन पंक्तियों को पढ़ते हुए परवीन शाकिर का शे’र याद आता है–

अना परस्त है इतना कि बात से पहले
वह उठके बंद मेरी हर किताब कर देगा।

‘प्रतीक्षा’ में इंतज़ार है– “तुम्हारे आने पर बस/ तुम रह जाते हो/ मैं गुम हो जाती हूं तुममें/और तुम/ प्रतीक्षा दे जाते हो।” और अमृता प्रीतम लिखती हैं– “मेरे इश्क की पाक किताब/ कितनी दर्दनाक है/ आज मैंने इंतजार का सफा/ इसमें फाड़ दिया।”

‘मिलूंगी तुमसे’ कविता भी विचारणीय है। इसमें असीम प्रेम है– “कभी आना मिलूंगी तुम्हें/ पूरे चांद की तरह/ मेरी सुंदर चांदनी में तुम/ अपने तप्त हृदय को/ शीतल कर लेना।” लेकिन प्रतिदान भी है– “लेकिन आश्चर्य मत करना/ जो कभी मिलूं तुम्हें/ दहकता हुआ सूर्य बनकर/ आंधी बनकर/ तूफ़ान बनकर/ कि जो पाया है/ उसे वापस भी तो करना है तुम्हें।” यह कविता स्त्री-समर्पण का खंडन करती है। समर्पण में प्रतिदान नहीं होता। पर यह प्रेम बराबर के स्तर का है। स्त्री चाहती है कि जितना प्रेम और मान स्त्री ने पुरुष को दिया है, उसे भी उतना ही चाहिए, वरना वह दहकता सूर्य बनकर लेना भी जानती है। इसी भावाभिव्यन्जना की कविता बंगलादेशी कवयित्री तसलीमा नसरीन की ‘मान-अभिमान’ है, जिसकी ये पंक्तियां विचारोत्तेजक हैं–

पास जितना आ सकी हूं, यह भी समझ लो
दूर उससे भी ज्यादा जा सकती हूं मैं
जितना प्यार लिया है लपककर
उससे भी ज्यादा निगल सकती हूं हिकारत।

इसमें संदेह नहीं, कि नूपुर चरण की प्रेम-कविताओं में द्वंद्वात्मकता है। कहीं उनका प्रेम विलीन होने को आतुर है, तो कहीं सिमोन की तरह वह ‘मैं’ को बचाना चाहता है। कहीं प्रेम की भयानक गिरफ्त से छूटने का आग्रह है, तो कहीं वह प्रेम भी है, जो अंधेरी रातों में होता है, जब रगों का खून धमनियों से निकलकर घुलने लगता है। कहीं वह अपने प्रेम और अपनी शीतलता का प्रतिदान चाहती है, तो कहीं सुपरनोवा की तरह अपनी अस्मिता और अपने अस्तित्व को विलीन होता भी देखती है। कहीं वह ब्लैक होल बनकर अपने प्रेमी को उसमें समा लेना चाहती है, पर दुनिया का दुर्निवार गुरुत्वाकर्षण ऐसा होने नहीं देता। नूपुर ने असल में उस स्त्री के अंतर्मन को चित्रित किया है, जिसे न कोई सुनता है और न समझता है। अनामिका के शब्दों में कहूं, तो “सब उसके प्रेमी हैं, और दोस्त कोई नहीं।”

(समाप्त)

समीक्षित पुस्तक : ‘हार्शू क्रैब’ (काव्य संकलन)

कवयित्री : नूपुर चरण

प्रकाशक : शिल्पायन पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली

मूल्य : 275 रुपए

(संपादन : नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

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बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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