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पुनर्पाठ : सिंधु घाटी बोल उठी

डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर का यह काव्य संकलन 1990 में प्रकाशित हुआ। इसकी विचारोत्तेजक भूमिका डॉ. धर्मवीर ने लिखी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि इन कविताओं से यह सिद्ध होता है कि अब विद्रोह की भाषा का अपमान सहन नहीं किया जायेगा। पुनर्पाठ कर रहे हैं कंवल भारती

बीसवीं सदी के नवें दशक के अंत तक दलित कविता डॉ. आंबेडकर के दैवीकरण से होती हुई, विद्रोह और प्रतिरोध के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलकर जाति और वर्ग-विहीन समाज की परिकल्पना के साथ नयी चेतना और नयी भाषा में मुख्यधारा की कविता के केंद्र में आ गयी थी। इस दशक के अंतिम वर्ष में डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर का दूसरा कविता संग्रह ‘सिंधु घाटी बोल उठी’ (1990) प्रकाशित हुआ। इस संग्रह की भूमिका डॉ. धर्मवीर ने लिखी थी, जिसमें उनकी यह टिप्पणी उल्लेखनीय है– “इन कविताओं के द्वारा सबसे बड़ा नजला अभिजात्यों की भाषा पर पड़ा है। इन कविताओं से यह सिद्ध होता है कि अब विद्रोह की भाषा का अपमान सहन नहीं किया जाएगा। कविताओं की प्रत्येक पंक्ति में जनभाषा पूरी तरह प्रतिष्ठित हो गयी है। शब्दों को ग्राम्य भाषा के अंतर्गत लाया जा सकता है, लेकिन इस ग्राम्य भाषा के तमाम शब्दों को जलते दीयों की तरह पूजना होगा।”[1]

इस संकलन में 53 कविताएं संकलित हैं। ‘सिंधु घाटी बोल उठी’ की कविताएं विद्रोही तेवर की हैं। पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कवि कहीं भी बुद्ध और आंबेडकर के नाम पर कमजोरी का शिकार नहीं हुआ है। मिसाल के तौर पर बुद्ध, धर्म और भिक्षु आंबेडकर-मिशन की एक बड़ी कमजोरी हैं और अधिकतर दलित लेखकों का चिंतन इसी बिंदु पर पहुंचकर बुद्ध की शीतल छाया में आकर सो जाता है। पर, सुमनाक्षर यहां पूरे यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ जागरूक हैं। ‘ओ मेरे भिक्षुओं’ कविता में वे लिखते हैं–

सिर मुड़ा कर या जटा रखकर
दलितों को तुम ऊंचा नहीं उठा सकते
इन मंदिर/ बौद्ध विहारों को छोड़
दलितों के घर जाओ।
उन्हें नयी रोशनी दो
उनमें आत्मविश्वास भरो
उनमें ज्ञान की ज्योति जलाओ
फिर उन्हें मुक्ति का मार्ग बताओ।[2]

कवि ने हिंदू साधुओं और बौद्ध भिक्षुओं दोनों को एक ही श्रेणी में रखा है–

केवल मंदिर में
घंटे-घड़ियाल, शंख बजाने से
कुछ नहीं होने वाला है
विहारों में बुद्ध का जयघोष
अलापने से भी उत्पीड़न का
अंत नहीं होने वाला है।[3]

उत्पीड़न का अंत कैसे होगा? इसके लिये कवि कहता है कि भिक्षुओं को अत्याचार से टक्कर लेने का संकल्प लेना होगा। एक भिक्षु के लिये बहुजनों के सुख और कल्याण के लिये विचरण करने का अर्थ तो यही है–

अन्याय, शोषण, दलन
और अत्याचार से टक्कर लेने का
संकल्प ले
जब तक तुम स्वयं नहीं उठोगे
तब तक तुम्हारे भिक्षु बनने से
किसी का कल्याण नहीं होने वाला।[4]

सुमनाक्षर अपनी कविताओं में निस्संदेह एक गंभीर चिंतक हैं। वे दलितों को हिंदुओं के उस दर्शन-जाल से मुक्त होने को कहते हैं, जो उन्हें हीन, अछूत और गुलाम कहता है। वे कबीर की शैली में तर्क करते हुए कहते हैं–

सोचो जिस भगवान ने उसे बनाया है,
उसी ने हमें भी बनाया है, और
भेजा है एक ही द्वार से।
फिर भेद कहां?
इस देश की धन और धरती पर
विद्या और धर्म पर
हमारा भी उतना ही अधिकार है
जितना उनका।[5]

सुमनाक्षर आगे बिल्कुल सही दलील देते हैं–

अगर हम अछूत हैं तो
हमारी मां भी अछूत है
फिर यहां की हर चीज अछूत है
इसलिये छोड़ जाओ इस देश को।[6]

डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर के काव्य संकलन ‘सिंधु घाटी बोल उठी’ का मुख पृष्ठ

सुमनाक्षर की दलित चेतना में केवल कबीर और रैदास ही नहीं हैं, वाल्मीकि भी हैं और केवल बाबासाहेब आंबेडकर ही नहीं हैं, बाबू जगजीवन राम भी हैं। जिस दौर में बाबू जी को बाबासाहेब के विरोध में खड़ा करने की एक मुहिम सी चल रही थी, उस दौर में, वे बाबू जी को दलित चेतना से जोड़कर एक बड़ा काम कर रहे थे। उनकी ‘दलित समाज के युवकों से’ ऐसी ही कविता है, जिसमें दलित चेतना का व्यापक विस्तार है। कवि दलित समाज के युवकों को इस विचार के साथ जगाता है–

तुम आगे बढ़ो और दलित शोषितों को
‘बाबा’ का फरमान सुनाओ
‘बाबू जी’ का आह्नान बताओ
उनमें वाल्मीकि जी का संदेश सुनाओ
उन्हें कबीर, दादू, पीपा का इतिहास बताओ
तुम उनमें शांति, अहिंसा का नहीं
क्रांति का मंत्र फूंको
उनमें निर्भीकता और वीरता भरो
अत्याचार, अन्याय और दमन के विरुद्ध।[7]

इस कविता में ‘शांति और अहिंसा’ को कवि ने दलित चेतना का आधार नहीं बनाया है, जो बुद्ध और गांधी दोनों का दर्शन था। लेकिन, बुद्ध के अपना दीपक स्वयं बनो के सिद्धांतसे कवि ने पूरी प्रेरणा ली है, जो उनकी कविता ‘तुम दीपक बनो स्वयं के’ में स्पष्ट दिखायी देती है। यथा–

तुम दीपक बनो स्वयं के
तुम्हें ही प्रकाश करते जाना है
तुम अपने बनो खुद सहारे
तुम्हें अपनी नैया खुद ही खेते जाना है।
जिनके रहे हो गुलाम तुम
वह आजाद करेगा तुम्हें?
तुम्हारी हर प्रगति के रास्ते पर
जालिम दुश्मनों का घेरा है
पर हिम्मत से लो काम
तुम्हें स्वयं इसे तोड़ते जाना है।[8]

लेकिन ‘संकल्प लो’ कविता में सुमनाक्षर की दलित चेतना में गांधी, दयानंद, शिव, शिवा और बुद्ध का भी समावेश हो गया है। यथा–

तुम संकल्प करो
गुरु रविदास या भगवान बुद्ध की
प्रतिमा के सामने कि
अपना पेट काट कर भी
तुम अपनी संतान को पढ़ाओगे।
तुम संकल्प लो
ऋषि दयानंद या महात्मा गांधी की
प्रतिमा के सामने कि
अपनी शक्ति का हनन न करोगे
झूठी गवाहियों में आपसी लड़ाइयों में
तुम संकल्प करो
शिव की या शिवा जी की
प्रतिमा के सामने कि
कभी न झुकोगे
अन्याय, अत्याचार या प्रलोभन के सामने।[9]

निस्संदेह बुद्ध दलित चेतना के अंग तब बने, जब डॉ. आंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया। पर, दयानंद, गांधी, शिव और शिवा को दलितों से जोड़ने का काम कवि को इसलिये करना पड़ा, क्योंकि बड़ी संख्या में दलितों ने आर्य समाज को अपनाया था और गांधी को भी। हिंदू के रूप में दलित आज भी शिव में आस्था रखते हैं और महाराष्ट्र में शिवा में भी।

दलित चेतना का मुख्य ध्येय है, दलित जातियों में एकता लाना। इस एकता में बाधक है, उनकी आपस की फूट। कवि की दृष्टि में यह फूट शोषक श्रेणी अर्थात् उच्च जातियों ने पैदा की है, ताकि वे उनका शोषण और उन पर राज कर सकें। कवि ने अत्यंत सीधे-सरल शब्दों में दलितों को ‘फूट’ को दूर करने की जोरदार अपील ‘फूट को उगने न दो’ कविता में की है। यथा–

फूट सदियों से हमारे बीच बोई हुई है
इसलिये अभी तक एकता हमारे बीच पैदा नहीं हुई है।
इस फूट के कारण ही हम अपना अस्तित्व खो बैठे
उनकी चालों में फंस आपस में ही लड़ अपना गिरेबान
उनके हाथों में दे बैठे।
पर अब उस फूट की जड़ को हमें उखाड़कर
भस्म बनाना है।
ताकि हम सब मिलकर आगे बढ़ें,
हमें मुक्ति की मंजिल पाना है।[10]

इसी एकता को कवि ने अपनी एक अन्य कविता ‘मुक्ति-मार्ग’ में एक रूपक के माध्यम से चित्रित किया है। रूपक यह है कि ‘एक शिकारी ने जाल डाला और चुग्गे का लालच दिखाकर हजारों चिड़ियों को फंसा लिया। तभी एक वृद्धा चिड़िया ने मुक्ति के लिये एक साथ जाल समेत उड़ने की सलाह दी और चिड़ियां साहस कर जाल को लेकर उड़ गयीं। कवि यह उपमा देते हुए कहता है–

हम दलित भी सवर्णों के जाल में फंसे हैं
और एकता के अभाव में
हर रोज उनके शिकार बने हैं।
हम भी क्यों न उनकी तरह एकजुटता दिखायें
और संघर्ष कर सब मिलकर
उनकी गुलामी से मुक्त हो जायें।[11]

इस संग्रह की लगभग सभी कविताएं ओजस्वी हैं और दलित चेतना के सभी आयामों को स्पर्श करती हैं। इनमें ‘तुम क्रीम हो समाज की’, ‘रे साहित्यकार’, ‘तुम और वो’, ‘ये सुर्खियां’, ‘लोग कहते हैं’, ‘देवदासी’, ‘भटकाव’, ‘दलितों की संतान’, ‘गीता’, ‘फूलन’, ‘उसने देखा है’, ‘न्याय की पुकार’, ‘जागृति की ओर’, ‘ये छुआछूत क्यों है’, ‘कौन हैं वे लोग’, ‘अपना आरक्षण छोड़ो’, ‘यह शोर क्यों’, ‘समाजवाद देश का’, ‘तुम कायर हो’, ‘शुद्धिकरण’, ‘अरे ओ चन्दा’ तथा ‘अरे ओ सूरज’ शीर्षक कविताएं विशेष उल्लेखनीय हैं। ‘तुम क्रीम हो समाज की’ कविता में कवि ने उन दलितों का चित्रण किया है, जो पढ़-लिखकर अफसर बन जाने के बाद अपने समाज को भूल जाते हैं, उनके लिये कुछ करना तो दूर, उनके बीच जाना भी अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। ऐसे लोगों को फटकार लगाते हुए सुमनाक्षर कहते हैं–

तुम्हारे अफसर बन जाने से क्या फायदा
अगर दलितों का शोषण आज भी बरकरार है।
यह न भूलो कि तुम्हें यहां तक भेजने में
उन दलितों का भी हाथ है,
जो आज भी रूखी-सूखी खा नंगे-बदन
मेहनत करते भी, दलितोत्थान के संघर्ष में रत हैं।[12]

जिस समय दलित कवि दलितों, गरीबों और दीन-दुखियों के दुखों को अपनी कविता में अभिव्यक्ति दे रहा था, उसी समय हिंदी के भद्र लोक के कवि धनाढ्य वर्ग के लिये लिख रहे थे और कविता में वर्षा, फूल और तितलियों पर चित्रकारी कर रहे थे। ऐसे साहित्य के विरुद्ध दलित कविता का संघर्ष हमें सुमनाक्षर की कविता ‘रे साहित्यकार’ में दिखायी देता है। वे भद्र कवि से पूछते हैं–

क्या कभी उन गरीब की झोंपड़ियों की ओर भी
निहारा है तुमने
जो फूस के अभाव में
अभी तक नंगी छत के पड़ी हुई है।
क्या कभी तुमने उन बच्चों की ओर भी निहारा है
जो आर्थिक विषमताओं से विवश हो
सड़क व रेलवे स्टेशन के साथ पड़े
जूठे डोंगों को चाटते हुए
अपनी भूख को मारने में लगे हैं?[13]

सामाजिक स्तर पर दलित अस्मिता और मानवीय गरिमा के लिये दलित कवि का संघर्ष ‘तुम और वो’ कविता में बेहद विचारोत्तेजक है। कवि कहता है कि कमाकर खाने वाले मेहनती दलितों को तथाकथित सभ्यजन ‘कामचोर’, ‘बेईमान’ और ‘गंदे इंसान’ क्यों कहते हैं? वह ऐसे लोगों से पूछता है–

सिर्फ वे ही हैं
परिश्रमी/ ईमानदार
पवित्र और धार्मिक इंसान
देश, समाज और इंसानों को
ठगते हुए भी?[14]

दलितों पर अत्याचारों की खबरें आज भी अखबारों में छपती हैं। पर, बीसवीं सदी के आठवें और नवें दशक में ऐसी खबरें सबसे ज्यादा छपती थीं। इन दो दशकों में ही देश के बड़े-बड़े दलित हत्याकांड हुए। कवि ने ‘ये सुर्खियां’ कविता में इन अत्याचारों के मूल में दलितों के मुक्ति-संघर्ष को माना है। ये अत्याचार दलितों पर तभी हुए, जब उन्होंने गुलाम बनने से इनकार कर दिया। यथा–

एक जमींदार ने
हरिजन युवक का खून कर दिया
क्योंकि उसने बेगार करने से मना किया था।[15]

धर्म के आधार पर ब्राह्मणवाद ने जिस एक सिद्धांत से दलित जातियों का सबसे अधिक शोषण किया है, वह पूर्वजन्म का कर्मफल का सिद्धांत है। उन्हें बताया गया कि वे इसलिये अछूत और गरीब हैं कि अपने पूर्वजन्म में उन्होंने बुरे कर्म किये थे। कवि ने इसका खंडन करते हुए तर्क दिया है कि यदि ऐसा हुआ है, तो आज का हर सवर्ण पूर्वजन्म के दलित का बच्चा है। ‘दलितों की संतान’ कविता में यह तर्क देखिए–

मैं जानता हूं कि
मेरे गरीब, दलित, शोषित लोगों ने
कभी कोई पाप नहीं किया है।
उन्होंने वही मजदूरी, बेगारी,
सेवा-कर्म किया है,
जो उन्हें धर्म के ठेकेदार ने दिया है।
तो फिर अगर पुनर्जन्म का आधार सच्चा है
तो हर सवर्ण आज पूर्वजन्म के
दलितों का बच्चा है।[16]

सुमनाक्षर ने दलित स्त्रियों के सामने फूलन देवी का आदर्श रखा है। फूलन अपने समय की दलित और पिछड़े वर्ग की स्त्रियों के समक्ष निस्संदेह प्रतिरोध की एक जिन्दा मिसाल बन गयी थी। जब कानून कुछ न करे और समाज की व्यवस्था अत्याचारी सवर्णों के पक्ष में हो और वह दलित-बहुजनों को गुलाम समझती हो, तो ऐसी स्थिति में फूलन ने अत्याचारियों को सबक सिखाकर जुल्म के खिलाफ जो बगावत की थी, उसे कानून और व्यवस्था ने चाहे जो नाम दिया, पर दलित-बहुजन वर्गों ने उसे आदर्श के रूप में ही देखा। इसलिये कवि ने बिल्कुल सही लिखा था–

उसने वीर बाला बनकर
जो अन्यायियों से स्वयं प्रतिशोध लिया है
सदियों से दलित/शोषित के लिये
एक नया मार्ग खोल दिया है।[17]

और ‘न्याय की पुकार’ कविता में कवि इसी ‘नये मार्ग’ की अलख जगाता है–

मारो, तुम कितनों को मारोगे
तुमसे ज्यादा संख्या हमारी है
जिस दिन भी हमारा हाथ उठा
मुक्ति/ न्याय और सम्मान पाने को
उस दिन तुम्हारा बीज भी न होगा
यह अन्याय दोहराने को।[18]

इस संग्रह में सुमनाक्षर की सभी कविताएं विचारोत्तेजक हैं। उन्होंने सवाल उठाये हैं और लोगों को झकझोरा है। यह कहना गलत न होगा कि उनकी कविताएं बुद्धिजीवियों से ज्यादा आम जनता को झकझोरती हैं। वे ‘ये छुआछूत क्यों’ में सवाल खड़ा करते हैं कि यदि चमड़े का काम करने से चमार अछूत है, तो चमड़े का उद्योग हथियाने वाले बाटा, शर्मा और गुप्ता आदि क्यों अछूत नहीं हैं।[19] ‘कौन हैं वे लोग’ कविता में पीड़ित जनों की ओर से कवि कहता है कि सारी धन-धरती और सत्ता पर तुम सवर्णों का कब्जा है, तुम्हारा ही राज है। फिर–

हम अंधेरगर्दी की किससे अर्ज करें।
कौन हैं वे लोग जिनसे न्याय की मांग करें।[20]

‘अपना आरक्षण छोड़ो’ कविता में कवि ब्राह्मणों, जमींदारों और व्यापारियों को अपने उस आरक्षण को छोड़ने की बात करता है, जिसे वे अपना विशेषाधिकार समझते हैं। यह कविता दलितों और आदिवासियों के लिये आरक्षण का विरोध करने वालों को यह कहकर निरुत्तर कर देती है कि–

कह दो कल से
धन-धरती पर सबका समान अधिकार होगा।
कमाऊ जोता ही उसके मालिक होंगे
सबके बच्चों की शिक्षा समान होगी
सब एक से स्कूलों में ही शिक्षा पायेंगे।[21]

इस कविता में समाजवाद का समर्थन है। कवि मानता है कि यदि देश में राजकीय समाजवाद की व्यवस्था कायम हो जाती है, तो किसी भी जाति को आरक्षण दिये जाने की आवश्यकता ही न पड़ेगी। लेकिन ऐसा समाजवाद कवि की समझ से परे है, जिसमें–

अपने श्रमकण बोकर धरती में
हमने अन्न भंडार भरे/ फिर भी
अन्नदाता बन गया और कोई
हम आज भी हैं भुखमरे
क्या यही है समाजवाद देश का
तो यह है हमारी समझ से परे।[22]

‘शुद्धिकरण’ कविता में कवि हिंदुओं के ‘शुद्धि अभियान’ की आलोचना करता है। सम्मान के लिये धर्म-परिवर्तन करने वाले दलितों को हवन आदि से शुद्ध करके पुनः हिंदू बनाने का अभियान हिंदू संगठनों ने चलाया था। इस तरह का प्रयास कुछ हिंदू संगठन अभी भी आदिवासी क्षेत्रों में कर रहे हैं, जहां आदिवासी बेहतर विकास के लिये ईसाई बन रहे हैं। कवि ने हिंदुओं के इस अभियान को शुद्धि के नाम पर लाखों रुपये डकारने वाला अभियान कहा है। इसके बाद कवि ने कई तार्किक सवाल उठाये हैं। वह पूछता है, यदि दलित धर्म-परिवर्तन के बाद अशुद्ध हो गये, तो क्या इससे पहले वे शुद्ध माने जाते थे। यथा–

तुम्हारे धर्म में भी हम शुद्ध कहां थे?
तुम्हारे गले से लगने, मिलकर एक साथ खाने
मंदिरों में एक साथ जाने
के अधिकार हमें कहां थे?[23]

कवि अंत में पुनः सवाल करता है कि शुद्ध करने के बाद हिंदू उन्हें किस वर्ण या जाति में रखेंगे। यथा–

तुम हमें कहां रखना चाहते हो?
उसी जात और उसी वर्ण में?
जहाँ थे उसी अवस्था/ उसी धर्म में?
तो फिर अपने इस ढोंगी शुद्धिकरण को
अपने पास ही रखो।[24]

इस संग्रह में दो कविताएं ‘अरे ओ चंदा’ और ‘अरे ओ सूरज’ कला और भाव दोनों की दृष्टि से सबसे सुंदर कविताएँ हैं। इन कविताओं में चंदा और सूरज के बिंबों में कवि की कल्पना की उड़ान कला की दृष्टि से जितनी मोहक है, उतनी ही वह विचार की दृष्टि से मार्मिक है। पहली कविता में शोषकों और दबंगों से आतंकित गांव के दलित चंदा को चमकते रहने के लिये कहते हैं, क्योंकि गांव के बड़े लोग अंधेरा होते ही जुल्म के लिये निकल पड़ते हैं। कविता की आरंभ की ये पंक्तियां देखिए–

अरे ओ चंदा
चमकते रहना, मेरी अटरिया पर
सारी रात।
हम दलितों का तू ही रखवारा है
तू ही एक सहारा है
चूंकि इन भेड़ियों की
न कोई मर्यादा है, न कोई जात।
मेरे इस गांव के हैं सभी बड़े लोग
सिर्फ नाम के,
अंधेरा पड़ते ही वे
दलितों के घरों में लगाते हैं घात।
अरे ओ चंदा …।[25]

इसी तरह ‘अरे ओ सूरज’ कविता में गांव की एक दलित स्त्री सूरज से प्रार्थना करती है कि वह उसके आंगन में न उगे, वरना तेरे उगते ही जमींदार मुझे और मेरे पति पर कहर बरपा कर देगा। कवि की यह मार्मिक भावाभिव्यक्ति इस प्रकार है–

अरे ओ सूरज
आज मत उगना मेरे आंगन में
वरना दिन निकलते ही तेरे उजाले के साथ
जमींदार कहर ढायेगा।
मेरे आदमी को पकड़ ले जायेगा
दिन-भर बेगार में हल चलवायेगा
सायं तेरे ढलने पर, मजदूरी मांगने पर
वह एवज में लट्ठ बरसायेगा।
दिन निकलने पर तेरी लाली के साथ
मेरे बच्चे को जबरदस्ती साथ उठा ले जायेगा
सारे दिन उससे अपने डंगर चरवायेगा।
दिन चढ़ने पर तेरी रोशनी बढ़ने पर
जमींदार का बेटा मेरे घर आयेगा
और मेरी बिटिया सुक्खो को
अपने खेतों की कटाई के बहाने
जबरदस्ती उठा ले जायेगा
अपनी आबरू बचाने को
उससे पीछा छुड़ाने को
मेरे मना करने पर
वह तेरी किरणों की लाली के साथ
हमारे खून की नदियां बहायेगा।
अरे ओ सूरज
आज मत उगना मेरे आंगन में।[26]

कहना न होगा कि डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर के कविता-संग्रह ‘सिंधु घाटी बोल उठी’ की कविताएं सीधी-सरल भाषा में सीधी लड़ाई लड़ती हैं। उनमें न अभिव्यक्ति की दुरुहता है और न बिम्बों तथा प्रतीकों से लदी-फदी बोझिलता है। वे सामंतवाद और ब्राह्मणवाद के पोषक तत्त्वों की आंखों में आंखें डालकर बोलती हैं। वे लाखों दलितों की यातना को आवाज देती हैं और उससे मुक्ति के लिये उन्हें संघर्ष का रास्ता दिखाती हैं।

(संपादन : नवल/अनिल)

[1] सिंधु घाटी बोल उठी (कविता संग्रह), डा. सोहनपाल सुमनाक्षर, राष्ट्रीय प्रकाशन समिति, 233 टैगोर पार्क, माडल टाउन, दिल्ली-9, प्रथम संस्करण- 1990, देखिए- पहला कथन

[2] वही, पृष्ठ 12-13

[3] वही, पृष्ठ 13

[4] वही

[5] वही, पृष्ठ 22-23

[6] वही, पृष्ठ 23

[7] वही, पृष्ठ 11

[8] वही, पृष्ठ 10

[9] वही, पृष्ठ 16-17

[10] वही, पृष्ठ 17-18

[11] वही, पृष्ठ 85-87

[12] वही, पृष्ठ 20-21

[13] वही, पृष्ठ 25-26

[14] वही, पृष्ठ 29

[15] वही, पृष्ठ 30-31

[16] वही, पृष्ठ 43

[17] वही, पृष्ठ 48

[18] वही, पृष्ठ 52

[19] वही, पृष्ठ 66-67

[20] वही, पृष्ठ 68

[21] वही, पृष्ठ 69

[22] वही, पृष्ठ 73

[23] वही, पृष्ठ 75

[24] वही, पृष्ठ 76

[25] वही, पृष्ठ 81-82

[26] वही, पृष्ठ 82-83


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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