गोरखपुर शहर और उसके आसपास की धरती पर अपने-अपने युग के तीन महान यथार्थवादियों बुद्ध, कबीर और प्रेमचंद की स्मृतियां बिखरी पड़ी हैं। इसमें अगर नाथपंथियों को भी जोड़ा जाए, तो यह बात साफ हो जाती है, क्योंकि नाथपंथ से बड़े पैमाने पर दलित, पिछड़े और पसमांदा मुसलमान जुड़े थे। नाथपंथियों की एक गायन परंपरा भी थी, जिसमें करीब-करीब शत प्रतिशत पसमांदा मुस्लिम थे, जो आज भी कभी-कभी दिख जाते हैं। यह बात अलग है कि आज गोरखपुर में गोरखनाथ की साधनापीठ गोरखनाथ मंदिर ब्राह्मणवादी साम्प्रदायिक तत्वों का अखाड़ा बन गई है। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ यहीं के महंत हैं।
बुद्ध के जीवन की अधिकांश घटनाएं इसी इलाके में हुईं। नेपाल के लुम्बिनी में उनका जन्म हुआ। लेकिन उनके जीवन का बड़ा भाग अभी के सिद्धार्थनगर (उत्तर प्रदेश, भारत) और कपिलवस्तु (नेपाल) में बीता। यहीं से वे मानव के दु:खों के निवारण की तलाश में एक रात अपनी पत्नी और बच्चे को सोता छोड़कर निकल गए थे। गोरखपुर से करीब 45 किलोमीटर दूर कुशीनगर में उनका महापरिनिर्वाण हुआ। इस प्रकार देखा जाय तो उनके जीवन का अधिकांश समय पूर्वी उत्तर प्रदेश-बिहार से लेकर नेपाल की तराई के इलाके में व्यतीत हुआ। गोरखपुर के निकट ही मगहर में कबीर का महापरिनिर्वाण हुआ। एक किंवदंती है कि मगहर में मुत्यु प्राप्त होने पर मनुष्य नर्क जाता है। कबीर इस अवधारणा को ग़लत सिद्ध करने के लिए अपनी मृत्यु के समय काशी से मगहर आ गए थे। यह उनके मूर्तिभंजक चरित्र को दिखलाता है।
स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में भी इस क्षेत्र का बहुत ही गौरवशाली अतीत रहा है। गोरखपुर से करीब 15 किलोमीटर दूर चौरी-चौरा में आज से करीब सौ वर्ष पहले गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन में बड़ी संख्या में दलित, पिछड़े और मुसलमानों की भागीदारी थी, जिसमें एक शांतिपूर्ण जुलूस पर गोली चलाने पर आंदोलनकारियों ने चौरी-चौरा थाना फूंक दिया, जिसमें करीब चौबीस पुलिसकर्मी मारे गए। बाद में सरकार ने अनेक लोगों पर मुकदमे चलाया। कुल 147 लोगों को फांसी देने का निर्णय निचली अदालत ने किया था। लेकिन बाद में हाईकोर्ट ने 19 लोगों को फांसी और एक को आजीवन कारावास दिया, जिसमें इक्का-दुक्का छोड़कर सभी दलित, पिछड़े और पसमांदा मुसलमान थे। इस घटना का देशव्यापी प्रभाव पड़ा था और हिंसा-अहिंसा पर राष्ट्रीय स्तरीय बहस शुरू हो गई थी। इसी कारण से गांधी ने अपना असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया था।
हिंदी साहित्य के प्राख्यात रचनाकार मुंशी प्रेमचंद का जन्म इसी पूर्वांचल के बनारस के पास लमही नामक गांव में हुआ था, लेकिन उनके जीवन का एक बड़ा महत्वपूर्ण भाग गोरखपुर में बीता। यहां वे शिक्षा विभाग में डिप्टी इंस्पेक्टर के पद पर नियुक्त थे तथा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रेरित होकर नौकरी से इस्तीफा भी दे दिया था। उनके बड़े बेटे अमृत राय का जन्म यहीं हुआ तथा एक बेटे की चेचक से मृत्यु भी यहीं पर हुई थी। उन्होंने अपना महत्वपूर्ण उपन्यास ‘हुस्न-ए-बाज़ार’ (उर्दू भाषा में) यहीं पर लिखा था। बाद में इसका हिंदी अनुवाद उन्होंने ‘सेवासदन’ के रूप में में किया। गोरखपुर में नार्मल स्कूल के निकट वर्तमान में बेतियाहाता मोहल्ले में एक पार्क में एक मकान है। यहां आजकल प्रेमचंद साहित्य और शोध संस्थान है। उसके पीछे एक ईदगाह है। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने अपनी बहुचर्चित कहानी ‘ईदगाह’ इसी को देखकर लिखी थी। इसके अलावा भी प्रेमचंद की अनेकानेक स्मृतियां यहां हैं। जैसे कि प्राख्यात शायर फ़िराक़ गोरखपुरी से मिलना, नौकरी से इस्तीफ़े के बाद गोरखपुर के निकट पीपीगंज में जाकर रहना आदि। इन स्मृतियों का विस्तृत वर्णन उनके बेटे अमृत राय ने प्रेमचंद की जीवनी ‘कलम का सिपाही’ में किया है।
लेकिन अपने गौरवशाली इतिहास, राजनीति और साहित्य के बावजूद गोरखपुर तथा उसके आसपास का पूर्वांचल का इलाका दुनिया के सबसे ग़रीब इलाकों में से एक है। बाढ़-सूखाड़ के कारण लगभग हर साल यहां लोगों को व्यापक आर्थिक क्षति उठानी पड़ती है और इंसेफेलाइटिस जैसी महामारियों से इस इलाके में हर वर्ष सैंकड़ो लोग मरते हैं। प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों के पात्र आज़ादी के सत्तर वर्ष बीत जाने के बाद आज भी यहां के गांव-शहरों में दिखते हैं। रोज़ी-रोटी की तलाश में लाखों मज़दूर और किसान दिल्ली, मुंबई और पंजाब में बहुत सस्ते में अपना श्रम बेचने को मज़बूर हैं।
छात्र जीवन में जब मैं गोरखपुर विश्वविद्यालय में अध्ययनरत था तथा एक प्रगतिशील छात्र संगठन से जुड़ा था, तब मैंने तथा मेरे अनेक साथियों ने महसूस किया कि अगर इस इलाके की ग़रीबी, बेकारी और बदहाली से संघर्ष करना है तो हमें इस ज़मीन के प्रगतिशील नायकों की परंपरा को याद करना होगा। इसके अंतर्गत हम लोग समय-समय पर कबीर, बुद्ध और प्रेमचंद पर आधारित कार्यक्रम करते रहते थे। हर वर्ष चौरी-चौरा दिवस मनाते थे। बाद में ऐसा महसूस हुआ कि इस इलाके में साहित्य और संस्कृति के सबसे बड़े आइकॉन प्रेमचंद ही हैं, जिन्होंने लंबे समय तक इस इलाके की ग़रीबी और बदहाली को देखा और उसे अपने साहित्य में उतारा। यहां का बौद्धिक वर्ग भी इस मामले में विस्मृति का शिकार था। केवल विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में प्रेमचंद पढ़ाए जाते थे, इसलिए हमें और हमारे साथियों, जिनमें सदानंद शाही, राजेश मल्ल और अनिल राय आदि प्रमुख थे, ने यह महसूस किया कि इस इलाके में जन आंदोलनों को विकसित करने के लिए एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की जरूरत है। इनमें बुद्ध, कबीर और प्रेमचंद तीनों ही होंगे। यह एक कठिन काम था।
गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में एक ‘प्रेमचंद पीठ’ अवश्य थी, लेकिन वह बिलकुल निष्क्रिय थी। गोरखपुर के बेतियाहाता इलाके में एक जर्जर मकान था, जिसमें प्रेमचंद का निवास स्थान था। वह लोगों की निगाहों से विस्मृत हो चुका था। बेतियाहाता के पाॅश इलाके में होने के कारण बिल्डरों की भी निगाह थी, जो इसे तोड़कर शाॅपिंग मॉल बनाना चाहते थे। वीर बहादुर सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में वर्ष 1987 में इस मकान को चारों ओर से घेरकर एक पार्क बनाया गया तथा प्रेमचंद की एक आदमकद मूर्ति इस पार्क में लगाई गई। लेकिन प्रेमचंद का निवास स्थान अभी भी काफी जर्जर था। वहां पर एक छोटा-सा पुस्तकालय चलता था, लेकिन कोई स्थायी कर्मचारी न होने के कारण वह अक्सर बंद ही रहता था। तब हम लोगों ने बड़ा प्रयास किया कि प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना करने के लिए उनका यह ऐतिहासिक निवास स्थान हमलोगों को मिल जाए। लेकिन हमें इसमें कोई खास सफलता नहीं मिली। बाद में हमलोगों को गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की एक प्रोफेसर शांता सिंह ने अपने घर में इसके लिए दो कमरे बिलकुल मुफ्त में दे दिए। यहीं पर पहली बार प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना हुई। यहां पर हमलोगों ने प्रेमचंद तथा अन्य अनेक प्रगतिशील साहित्यकारों पर अनेक कार्यक्रम किए और इसके पुस्तकालय के माध्यम से बड़ी संख्या में छात्रों को इससे जोड़ा। इसके कई वर्षों बाद गोरखपुर में हरिश्चंद्र जी कमिश्नर बनकर आए। उनकी साहित्य में गहरी रुचि थी। उन्होंने काफी प्रयास करके प्रेमचंद साहित्य संस्थान को बेतियाहाता स्थित प्रेमचंद का निवास स्थान दिलवा दिया। कुछ शासन तथा कुछ शुभचिंतकों के सहयोग से एवं कुछ निजी प्रयासों से धन जमा करके इस इमारत की मरम्मत करवाई गई। यहीं पर बिल्डिंग की सफाई के दौरान गोदाम में प्रेमचंद की एक छोटी मूर्ति मिली, जिसका अनावरण बहुत पहले प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने किया था, जिसे बाद में गोदाम में डाल दिया गया, उसे हमलोगों ने इस पार्क के मुख्य द्वार पर स्थापित करवाया।
यहां आने के बाद प्रेमचंद साहित्य संस्थान को काफी गति मिली। यहीं पर एक बड़े पुस्तकालय की स्थापना की गई। एक स्थायी पुस्तकालयाध्यक्ष की नियुक्ति की गई, यद्यपि आर्थिक संकट के कारण अकसर वेतन देने में देरी होती है, क्योंकि इसके लिए संसाधन निजी संपर्कों से ही जुटाए जाते हैं। सरकारी अनुदान नाममात्र का था, वह भी भाजपा के शासनकाल में बंद हो गया। लेकिन हमलोग लगातार यह महसूस करते हैं कि संसाधनों की कमी से किसी भी सामाजिक कार्य की गति धीमी तो हो सकती है, पर वह रुक नहीं सकता है।
बहरहाल, पूर्वांचल के छात्र-नौजवानों को प्रेमचंद की प्रगतिशील परंपरा से जोड़ने में इस संस्थान की बड़ी भूमिका है। संस्थान ने कुछ महत्वपूर्ण आयोजन किए, जिसमें वर्ष 2000 में ‘दलित साहित्य की अवधारणा और प्रेमचंद’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया। उत्तर प्रदेश में इस विषय पर यह पहली गोष्ठी थी, जिसमें उस समय के करीब-करीब सभी दलित साहित्यकार शामिल हुए थे, जिनमें कंवल भारती, मोहनदास नैमिशराय, श्योराज सिंह ‘बेचैन’ आदि शामिल थे। इनके अलावा नामवर सिंह और परमानंद श्रीवास्तव सहित हिन्दी के सभी बड़े साहित्यकार, आलोचक और विचारक शामिल थे। यह संगोष्ठी लंबे समय तक अपनी बहसों और विवादों के कारण चर्चा में रही। संस्थान के निदेशक सदानंद शाही के काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हो जाने के बाद हमलोगों ने अपने संस्थान के अनेक कार्यक्रम वाराणसी में किये। इनमें सबसे प्रमुख था– 6 से 8 नवंब 2005 को ‘गोदान को फिर से पढ़ते हुए’ नामक एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन, जिसमें न केवल भारत के बल्कि अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, मारिशस और सुरीनाम से भी प्रेमचंद साहित्य में रूचि रखनेवाले विद्वानों ने भाग लिया। यह इस तरह की देश में ‘गोदान’ पर पहली संगोष्ठी थी।
इसी संगोष्ठी के बाद संस्थान ने प्रेमचंद पर केन्द्रित ‘कर्मभूमि’ नामक एक महत्वपूर्ण पत्रिका निकालने का निर्णय लिया, जिसके अंतर्गत साल इसके दो अंक प्रकाशित होते हैं, जो पूर्णतः प्रेमचंद के साहित्य पर आधारित होते हैं। अब तक ‘कफ़न’, ‘गोदान’ और ‘सेवासदन’ पर निकल चुके हैं, तथा प्रेमचंद के संपूर्ण साहित्य पर केंद्रित और अंक भी आए हैं।
गोरखपुर में जीडीए (गोरखपुर डेवलपमेंट ऑथोरिटी) में एक प्रगतिशील साहित्यप्रेमी अधिकारी के आने के बाद उनके सहयोग से अनेक नयी योजनाओं का क्रियान्वयन हो रहा है। इसके अंतर्गत प्रेमचंद साहित्य संस्थान के साथ-साथ एक शोध संस्थान की स्थापना की गई है। इसमें हर वर्ष दो शोधकर्ताओं के लिए प्रेमचंद साहित्य पर शोध करने के लिए एक स्कॉलरशिप की व्यवस्था की गई है, जिसमें वे संस्थान के निर्माणाधीन गेस्ट हाउस में रहकर शोध कर सकते हैं तथा पुस्तकालय का लाभ उठा सकते हैं। संस्थान में एक आर्ट गैलरी तथा एक संग्रहालय की स्थापना भी की जा रही है, जिसमें प्रेमचंद से संबंधित चित्र, उनकी पांडुलिपियों तथा अन्य निजी सामानों को संग्रहित करके रखने की योजना है। प्रेमचंद पार्क में नाटकों के मंचन के लिए एक खुला मंच बनाया गया है और इसकी दीवारों पर प्रेमचंद के साहित्य से संबंधित भित्तिचित्र बनाए गए हैं। आज प्रेमचंद साहित्य संस्थान तथा प्रेमचंद पार्क कला, साहित्य और संस्कृति का गोरखपुर में एक प्रमुख केन्द्र बन गया है। इसमें अन्य ढेरों साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन जिसमें इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन (इप्टा), दलित लेखक और सांस्कृतिक संगठन, जनवादी लेखक संगठन, प्रगतिशील लेखक संगठन और जनसंस्कृति मंच के लोग भी अपने विभिन्न आयोजन करते रहते हैं। अभी हाल में संस्थान की एक वेबसाइट लांच की गई है, जिसमें यहां के कार्यक्रमों तथा गतिविधियों के बारे में कोई भी जानकारी प्राप्त कर सकता है। इन सबके कारण एक विश्वास पुख्ता हुई है कि न केवल गोरखपुर में बल्कि पूरे पूर्वांचल में यह संस्थान सांस्कृतिक पुनर्जागरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
(संपादन : नवल/अनिल)
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