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हिंदू और मुसलमान के दृष्टिकोण से नहीं, इंसानियत के हिसाब से देखें बिलकीस बानो कांड

गत 15 अगस्त, 2022 को गुजरात सरकार ने माफी देते हुए आरोपियों को जेल से रिहा कर दिया। इस तरह से 17 साल तक एक पूरी व्यवस्था और राजनीतिक सोच से संघर्ष करने वाली बिलकीस ही नहीं, बल्कि इस देश के लोकतंत्र के सामने एक चुनौती खड़ी कर दी गई है। पढ़ें, अनुराग मोदी द्वारा विश्लेषण की पहली कड़ी

धर्म की राजनीति में लोकतंत्र की हत्या (पहली कड़ी)

गुजरात में सत्तासीन भाजपा सरकार ने बिलकीस बानो कांड में 7 महिलाओं की हत्या और सामूहिक बालात्कार और दो मासूम बच्चों सहित 14 लोगों की हत्या के 11 आरोपियों को 14 साल की सजा भुगतने के बाद 15 अगस्त को जेल से रिहा कर दिया। रिहाई के बाद उनका स्वागत हुआ। यह घटना 2002 में बिलकीस के साथ जो सब हुआ उससे भी ज्यादा भयानक है। इस तरह के आरोपियों को रिहा कर सरकार ने एक शासक के रूप में मानवता के खिलाफ हुए उस भयानक कृत्य को जायज ठहराने की कोशिश की है। ऐसा फैसला कोई लोकतांत्रिक सरकार तो कतई नहीं ले सकती। ऐसा लगता है कि हम मध्युगीन दौर में वापस चले गए हैं, जहां राजा जिस बात को चाहे जायज ठहरा दे, जिसे चाहे धर्म रक्षक बता दे। बताया जा रहा है, यह भाजपा द्वारा हिंदू वोट बैंक के लिए किया गया। 

हिंदू-मुस्लिम की राजनीति के नाम पर सत्ता में काबिज रहने वाले हुकुमरान चाहते हैं कि लोग बिलकीस बानो को एक इंसान के रूप में नहीं, बल्कि एक मुसलमान के रूप में देखें और उसके आरोपियों को मानवता के अपराधी के रूप में नहीं, बल्कि हिंदू के रूप में देखें। लेकिन मेरी गुजारिश है कि हम थोड़ी देर के लिए यह भूल जाएं कि बिलकीस मुसलमान थी और उसके परिवार के साथ जो सब हुआ उसे अंजाम देने वाले आरोपी हिन्दू थे। उसके एवं उसके परिवार के साथ जो सब हुआ उसे सिर्फ एक इंसान के नजरिए से देखें। 

बिलकीस के दर्द को कुछ हद और मानवता पर हुए हमले को समझने के लिए पहले यह सोचें कि एक 20 साल की गर्भवती औरत अपनी तीन साल की बच्ची, अपनी मां, दो बहनों और दो छोटे भाइयों, दो चाचियों, चाचाओं और एक नवजात बच्चे सहित कुल 17 लोगों के साथ बदहवाश हालात में कई दिनों तक एक गांव से दूसरे गांव जान बचाती फिरे, फिर अचानक एक दिन 15-20 लोगों का समूह उन सबको घेर ले। उसमें से एक व्यक्ति उसकी तीन साल की बच्ची को उसकी गोदी से छीनकर पत्त्थर पर पटकर मार डाले; फिर उस महिला को नंगाकर उसके साथ तीन लोग सामूहिक बलात्कार करें, कुछ और लोग उसके सामने उसकी मां को नंगाकर सामूहिक बलात्कार करें और उनकी हत्या कर दें, उसकी बहन के नवजात बच्चे को मारकर उसकी बहन के साथ सामूहिक बलात्कार कर हत्या कर दें, उसकी दूसरी बहन और चाचियों के साथ भी वैसा ही हो, इस तरह उसके दो भाई, दो बहन, चाचा-चाची सहित परिवार के कुल 14 लोगों को हत्याकर उस लड़की को मृत मानकर छोड़कर चल दें।

बिलकीस बानो

अब सोचें कि वो लड़की बिलकीस नहीं, बल्कि आपसे जुड़ी कोई महिला है, तो आप क्या कहेंगे? तब आप इसे इसे धर्म की रक्षा के लिए किया गया कृत्य मानेंगे, या मानवता के खिलाफ किया गया अपराध? 

बिलकीस को न्याय के लिए लंबी जंग लड़नी पड़ी। वर्ष 2002 की इस वीभत्स घटना के बाद भी बिलकीस ने हिम्मत नहीं हारी। 20 साल की बिलकीस ने जीवित बचे अपने आठ और चार साल के चचेरे भाई और पति के साथ मिलकर तीस्ता सीतलवाड़ जैसे कुछ अन्य मानव अधिकारवादी कार्यकर्ताओं की मदद से इन आरोपियों को सजा दिलवाने के लिए लंबा संघर्ष किया। वर्ष 2003 में गुजरात सरकार ने इस मामले को यह कहकर बंद कर दिया कि घटना सही है मगर आरोपी नहीं मिले रहे हैं। बिलकीस ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, कोर्ट ने सीबीआई को मामला सौंपा और गुजरात में निष्पक्ष ट्रायल नहीं हो सकती, यह मानते हुए ट्रायल को महाराष्ट्र स्थानांतरित कर दिया। वर्ष 2008 में ट्रायल कोर्ट ने 11 आरोपियों को हत्या और सामूहिक बलात्कार के कई मामलों में आरोपी मानते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई और जिस लीमखेड़ा पुलिस थाने के पुलिसवालों और पोस्ट मार्टम करनेवाले जिन दो डॉक्टरो को सीबीआई ने सबूत मिटाने के जुर्म में आरोपी बनाया था, उन्हें बरी कर दिया। 

सीबीआई और आरोपी पक्ष इस फैसले के खिलाफ मुंबई हाई कोर्ट गये। कोर्ट ने न सिर्फ सभी आरोपियों की सजा को बरक़रार रखा बल्कि लीमखेड़ा पुलिस थाने में घटना के दौरान मौजूद 6 पुलिसवालों सहित पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर दंपत्ति को भी सबूत मिटाने के आरोप में सजा सुनाई। 

कोर्ट ने अपने फैसलें में लिखा कि हम इसे दुर्लभ हत्याकांड मानते हैं। कोर्ट ने यह भी माना कि 14 लोगों की हत्या के बावजूद मौके पर सिर्फ सात लोगों के शव मिले। उसमें से महिलाओं के शव अर्धनग्न अवस्था में थे, उनके गुप्तांगो में चोट के निशान के साथ उससे सफ़ेद द्रव पदार्थ भी निकल रहा था। फिर भी न तो पुलिस ने और ना ही पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर दम्पत्ति ने इसे बलात्कार का मामला मानकर जांच की। इतना ही नहीं, शवों की शिनाख्त बिलकीस से नही कराई गई और ना ही उन शवों को उसे सौंपा गया। आनन-फानन में इन शवों को नमक की बोरी के साथ एक ही गड्ढे में एक के उपर एक फेंक दिया गया। कोर्ट ने इस बात पर भी हैरानी जाहिर की कि जब 2004 में सीबीआई ने जांच अपने हाथ में ले लिया और इन शवों को बाहर निकाला तो इनमें से किसी भी शव का सर नहीं था। मतलब, इन शवों की शिनाख्त ना हो सके, इसके लिए उनके सिर धड़ से अलग कर दिए गए थे। इतना ही नहीं, दो लोगों के कंकाल गायब थे; सिर्फ पांच शवों की 109 हड्डियां ही निकलीं। 

कोर्ट ने माना कि इस मामले को रफा-दफा करने के लिए पुलिस ने सारे सबूत मिटने का काम किया। जब एक बार निचली अदालत ने केस में खात्मा मंजूर नहीं किया तो उसे दुबारा पेश कर मंजूर कराया और बिलकीस के 1 साल 10 माह के संघर्ष के बाद इस मामले को सीबीआई को सौंपे जाने के बाद इसमें जांच शुरू हुई। 

वर्ष 2017 में आए हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद आरोपी एक बार अपील में सुप्रीम कोर्ट गए, तो 2019 में देश की सर्वोच अदालत ने इसे दुर्लभ जघन्य हत्या और बलात्कार कांड मानते सभी आरोपियों की सजा को बरक़रार रखते हुए बिलकीस बानो को 50 लाख रुपए का मुआवजा और सरकारी नौकरी देने का आदेश दिया।

और फिर, 15 अगस्त, 2022 को गुजरात सरकार ने माफी देते हुए आरोपियों को जेल से रिहा कर दिया। इस तरह से 17 साल तक एक पूरी व्यवस्था और राजनीतिक सोच से संघर्ष करने वाली बिलकीस ही नहीं, बल्कि इस देश के लोकतंत्र के सामने एक चुनौती खड़ी कर दी गई है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अनुराग मोदी

समाजवादी जन परिषद् से सम्बद्ध अनुराग मोदी 27 वर्षों से आदिवासी ईलाके में काम करने वाला एक पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता हैं। 1989 में मुम्बई में सिविल इंजीनियर की नौकरी से त्याग पत्र देकर नर्मदा नदी पर बने पहले बड़े बाँध, बरगी बाँध के विस्थापितों के साथ काम किया। फिर बैतूल जिले के छोटे से गाँव पतौपुरा में आदिवासीयों के साथ श्रमिक आदिवासी संगठन शुरू किया। जनपक्षधर लेखन में सक्रिय।

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