बहस-तलब
अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) की 17 जातियों– कहार, कश्यप, केवट, मल्लाह, निषाद, कुम्हार, प्रजापति, धीवर, बिंद, भर, राजभर, धीमर, बाथम, तुरहा, गोड़िया, मांझी, मछुवा को अनुसूचित जाति (एससी) में शामिल करने का प्रश्न उत्तर प्रदेश के दलितों के लिए पिछले दो दशक से गंभीर बना हुआ है।
वर्ष 2005 में मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के लिए शासनादेश जारी कर दिया गया था। लेकिन इलहाबाद उच्च न्यायालय इस शासनादेश पर रोक लगा दिया। यहां तक कि दलितों की पार्टी कही जाने वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) भी मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में इन जातियों को श्रेणी में शामिल करने हेतु सिफारिश केंद्र सरकार को भेज चुकी है। वहीं वर्ष 2016 में पुनः अखिलेश यादव ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का शासनादेश जारी किया। इस शासनादेश पर भी उच्च न्यायालय ने तत्काल रोक लगा दिया। फिर 2019 में योगी सरकार ने भी पुन: इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का शासनादेश जारी किया। इस पर भी उच्च न्यायालय ने पह विराम लगाया और बीते 31 अगस्त, 2022 को निरस्त कर दिया।
उच्च न्यायालय ने इस आधार पर उक्त शासनादेश को निरस्त किया है कि एससी की सूची में किसी भी जाति या उपजाति को जोड़ने और निकालने का अधिकार केवल भारत के राष्ट्रपति को है। राज्य सरकार अनुसूचित जाति की सूची में संशोधन के लिए केवल सिफारिश भेज सकती है, संशोधन नहीं कर सकती है।
फिलहाल उच्च न्यायालय के इस निर्देश से दलितों को थोड़ी राहत मिली है। लेकिन खतरा टला नहीं है। योगी सरकार इन जातियों को एससी श्रेणी में शामिल करने के लिए सिफारिश करने का मन बना रही है। योगी सरकार के समाज कल्याण मंत्री असीम अरुण ने इस तरह का बयान दिया है।
दरअसल, न्यायालय द्वारा रोक लगाना तथा शासनादेश को निरस्त करना स्थायी समाधान नहीं है। हां, इतना जरूर हुआ है कि इससे गेंद राजनीतिक दलों के पाले में चली गयी है। योगी सरकार में मंत्री और निषाद पार्टी के अध्यक्ष इस पर अपना पूरा जोर लगाये हुए हैं। समाज कल्याण मंत्री असीम अरुण सहमत ही हैं।
इस प्रकार उत्तर प्रदेश के तीनों प्रमुख दल सपा, बसपा व भाजपा सभी इस मसले पर एकमत हैं। ऐसे में प्रदेश तथा केंद्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार होने के कारण यह संभव है कि इन ओबीसी की 17 जातियों को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल करने का प्रयास भाजपा करे।
यदि ऐसा होता है तो इस संशोधन का विरोध करने वाले दलित असहाय नजर आयेंगे, क्योंकि अभी तक दलितों का एक छोटा संगठन डॉ. बी. आर. आंबेडकर ग्रंथालय एवं जनकल्याण न्यायालय में इस लड़ाई को लड़ रहा है। व्यापक दलित समुदाय इस परिघटना से या तो अनभिज्ञ है या ऐसा मान रहा है कि इन 17 जातियों को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल कर लेने से उनके हितों पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा।
ध्यातव्य है कि दलित सदियों से हिंदू वर्णव्यवस्था से बाहर रखे गए। इनके साथ सभी गैर दलित समुदायों द्वारा अस्पृश्यता का व्यवहार विभिन्न रूपों में किया जाता रहा है। डॉ. आंबेडकर ने अपनी संक्षिप्त आत्मकथा ‘वेटिंग फॉर वीजा’ में इस तथ्य को बड़े ही स्पष्ट ढंग से रेखांकित किया है। दलित आज भी सामान्य सीट से ग्राम प्रधान, विधायक या सांसद का चुनाव नहीं जीत सकता है। यदि आरक्षित सीटें न रहें तो दलितों का राजनैतिक प्रतिनिधित्व शून्य हो जाएगा। जबकि अन्य पिछड़े वर्ग की अन्य 17 जातियां शूद्र की श्रेणी में रही हैं। इनके साथ भौतिक रूप में अस्पृश्यता का व्यवहार नहीं किया जाता है।
इस प्रकार उक्त्त 17 जातियों की ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य से सामाजिक दूरी है, लेकिन इनके बीच अस्पृश्यता की दीवार नहीं है। इनके बीच एक झीना पर्दा भर है। यदि इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल कर दिया जाय तो, उत्तर प्रदेश के दलित सभी प्रकार के अवसरों से वंचित कर दिये जायेंगे। क्योंकि शासन-प्रशासन के सभी क्षेत्र द्विज वर्णों के कब्जे में है और चूंकि द्विज वर्णों और शूद्रों की सामाजिक दूरी दलितों से द्विज वर्णों की सामाजिक दूरी से बहुत कम है। इसलिए इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि द्विज वर्ण अनुसूचित जाति के नाम पर मिलने वाले सभी अवसरों को इन 17 जातियों को उपलब्ध करा देंगे और वास्तविक अछूत वंचित कर दिए जाएंगे।
सामाजिक न्याय की दृष्टि से देखा जाय तो भी इन 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने से दलितों के साथ अन्याय होगा। मंडल आयोग के एकमात्र दलित सदस्य एल. आर. नायक ने अन्य पिछड़े वर्गों को दो श्रेणियों में बांटने का सुझाव दिया था। उनका तर्क था कि अन्य पिछड़े वर्ग में शामिल सभी जातियां सामाजिक और आर्थिक मजबूती के आधार पर समान नहीं है। परिणाम यह होगा कि आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत जातियां पिछड़े वर्ग के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत आरक्षण पर एकाधिकार कायम कर लेंगी और उनकी अपेक्षा सामाजिक और आर्थिक रूप से अधिक कमजोर जातियां पिछड़ जाएंगीं। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने से भी ऐसी ही स्थिति उत्पन्न होगी।
बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर भी अनुसूचित जाति की सूची में केवल अछूत जातियों को ही रखना चाहते थे। उनका तर्क था कि जो जातियां अछूत नहीं है, वे जातियां अस्पृश्यता के प्रति वैसा भाव नहीं रखती है, जैसा अछूत जातियां रखती हैं। इसलिए यह समूह विपरीत भाव रखने वाली जातियों का समूह बन जाएगा, जो आपस में ही संघर्ष करता रहेंगा।
बहरहाल, मंडल आयोग लागू होने के तीन दशक व्यतीत होने के पश्चात जो अनुभव हमें प्राप्त हुआ है, उसके आधार पर यह कहना उचित होगा कि अब एल. आर. नायक की सिफारिशों को मान लेना चाहिए। अर्थात अन्य पिछड़े वर्ग की सूची को दो भाग में बांट देना चाहिए। एक अन्य पिछड़ा वर्ग और दूसरा अत्यन्त पिछड़ा वर्ग। 27 प्रतिशत आरक्षण को भी दो हिस्सों में तार्किक आधार पर बांट देना चाहिए। अन्य पिछड़े वर्ग की 17 जातियों के हित में यह समाधान सर्वाधिक उचित, संवैधानिक तथा सामाजिक न्याय की अवधारणा के अनुरुप होगा। और ऐसा पड़ोस के राज्य बिहार में तो कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्रित्व काल में 1978 में ही हो गया था जब वहां मुंगेरी लाल कमीशन की अनुशंसाओं को लागू किया गया था।
(संपादन : नवल/अनिल)
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