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कैसे और क्यों दलित बिठाने लगे हैं गणेश की प्रतिमा?

जाटव समाज में भी कुछ लोग मानसिक रूप से परिपक्व नहीं हैं, कैडराइज नहीं हैं। उनको आरएसएस के वॉलंटियर्स बहुत आसानी से अपनी गिरफ़्त में ले पा रहे हैं। चूंकि सत्ता लंबे समय से दूसरों की है तो आज हर व्यक्ति चाहता है कि सत्ता के साथ दिखूं और मुझे कोई परेशानी न हो। बता रहे हैं सुशील मानव

भाद्रपद महीने की शुक्ल पक्ष की गणेश चतुर्थी से चतुर्दशी तक चलने वाले 11 दिन के गणेश महोत्सव अब अपने समापन की ओर अग्रसर है। जैसे दुर्गा पूजा पश्चिम बंगाल का मुख्य त्योहार है, उसी तरह गणेश महोत्सव महाराष्ट्र का मुख्य त्योहार है। भव्य व सामूहिक गणेशोत्सव की शुरुआत 1893 में महाराष्ट्र में कांग्रेस के गरम दल धड़े के हिंदुवादी नेता बाल गंगाधर तिलक ने की थी। इससे पहले महाराष्ट्र में गणेश उत्सव लोग बहुत साधारण और शांत तरह से अपने घरों में मनाते आ रहे थे। लेकिन राजनीति ने धर्म में घुसकर एक साधारण धार्मिक आयोजन में शोर-शराबा और उन्माद भरकर भव्य महोत्सव में तब्दील कर दिया।

इस साल गणेश महोत्सव पर एक नयी बात दिखाई पड़ रही है। तमाम दलित जातियों के लोग भी गणेश प्रतिमाएं बिठाते दिखाई दिये। मुरादाबाद जिले के निवासी और पेशे से सहायक अध्यापक मेरे एक मित्र मेरे विशेष अनुरोध पर अपने जिले के उन मुहल्लों में गये, जहां जाटव समाज के लोगों ने गणेश प्रतिमाओं की स्थापना की थी। मेरे मित्र के शब्दों में– “वे सब जाटव समाज के लोग थे। उनलोगों ने मुझसे कहा कि आप क्यों हमारे व्यक्तिगत मामले में हस्तक्षेप कर रहे हैं। यह हमारी आस्था का प्रश्न है। और तभी उनमें से एक व्यक्ति ने एक स्थानीय भाजपा नेता को फोन लगाकर कहने लगा कि साहेब यह पता नहीं कौन हैं और जाने क्यों ऐसा कर रहे हैं। और फिर उस भाजपा नेता ने मुझे फोन पर धमकाते हुये कहा, ‘आप कौन हैं और दूसरों के मामले में क्यों तांक-झांक कर रहे हैं? ये लोग क्या कर रहे हैं, क्या नहीं कर रहे हैं, इस पर आपको क्यों आपत्ति है?’”    

मेरे मित्र बताते हैं कि उनके यहां शहरी, क़स्बाई क्षेत्रों में कुछ दलितों ने गणेश की मूर्तियां स्थापित की है। ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसा नहीं किया गया है। अधिकांश लोगों ने चतुर्थी तिथि के दिन ही मूर्ति स्थापित की, पूजा पाठ किया और फिर उसी दिन बैंड बाजे के साथ विसर्जित भी कर दिया। ग्याहर दिन के महोत्सव को एक दिन में कैसे निपटा दिया, पूछने पर सूरज पाल जी बताते हैं कि दरअसल होते तो ये दिहाड़ी-पेशा लोग हैं, रोज़ कमाने रोज़ खाने वाले। ग्यारह दिन मूर्तियां बैठा लेगें तो कमाएंगे खाएंगे क्या। वे आगे कहते हैं कि जाटव समाज में भी कुछ लोग मानसिक रूप से परिपक्व नहीं हैं, कैडराइज नहीं हैं। उनको आरएसएस के वॉलंटियर्स बहुत आसानी से अपनी गिरफ़्त में ले पा रहे हैं। चूंकि सत्ता लंबे समय से दूसरों की है तो आज हर व्यक्ति चाहता है कि सत्ता के साथ दिखूं और मुझे कोई परेशानी न हो। इस लालच में 5 प्रतिशत जाटव वर्ग के लोग भी उनके साथ जा रहे हैं। कांवड़ यात्रा और गणेश मूर्ति के जरिए उन्हें जोड़ा जा रहा है। चूंकि यह लोग आर्थिक रूप से कमज़ोर हैं तो इन्हें वॉलंटियर्स द्वारा कभी अनाज कभी कुछ देकर आसानी से बहका लिया जाता है।  

प्रयागराज (इलाहाबाद) के एक दलित बहुल बस्ती में स्थापित गणेश की प्रतिमा

बुलंदशहर जिला, तहसील अनूप नगर, पोस्ट-सूरजपुर मखैना के मऊ गांव में जाटव लड़कों ने गणेश मूर्ति स्थापित करने के लिये चंदा वसूला। करीब साढ़े तीन हजार की आबादी वाले इस गांव में दलित जातियों के लोग ज्यादा हैं। जाटव निर्णायक स्थिति में हैं। इसी गांव के सुशील गौतम बताते हैं कि गांव के कुछ दलित बच्चे गणेशोत्सव मनाने के लिये चंदा उगाह रहे थे। जब वे लड़के मेरे दरवाजे पर आये उस समय मैं और मेरे पिता खाना खा रहे थे। मेरा उनसे विवाद हुआ। मैंने उनसे पूछा कि हमारे और तुम्हारे बाप-दादाओं ने कभी गणेशोत्सव मनाया है? इस बात पर उन्हें बुरा लगा कि मैंने उनके बाप-दादा को कह दिया। विवाद काफी बढ़ गया। लोग-बाग जुट गये। तो उन्होंने चार-छः लोगों से जो वसूला था, उसे वापिस कर दिया। बाद में दूसरी जाति के लोगों ने चंदा वसूला और मूर्ति स्थापित की। नई पीढ़ी इनकी जाल में फंस गये। यह एक नया वर्जन है हिंदूवादी व्यवस्था को दलितों के बीच स्थापित करने की।    

आखिर आपके गांव के दलित लड़को के बीच गणेश मूर्ति स्थापित करने का विचार आया कैसे, क्या आपने इसे जानने की कोशिश की, पूछने पर सुशील गौतम बताते हैं कि मेरे गांव में आरएसएस से जुड़े चंद बनियों का भी घर और दुकान है। वे हर ग्राहक से प्रचारक की तरह बात करते हैं। वो सीधे तौर पर नहीं कहते कि मैं फंड करुंगा और आप गणेश की मूर्ति बिठाओ। वे दलित ग्राहकों के दिमाग में पहले अपनी बात बिठाते रहते हैं और कहते हैं कि अरे, गणेश चतुर्थी आ रही है। इस तरह से पहले माहौल बनाते हैं। फिर कहते हैं हमारे गांव में नहीं मनती, हर जगह मनती है। फिर वो कहते हैं तुम मनाओगे तो अच्छी बात है, हम भी चंदा दे देंगे। संतोष नाम का एक बनिया है, जो लंबे समय से आरएसएस से जुड़ा है। उसीने ऐसा माहौल गांव में बनाया। धीमर, खटिक और वाल्मीकि जातियों में उसका प्रभाव है। वे उनके कहने पर वोट करते हैं। विधानसभा मतदान का परिणाम आने के बाद मैं और एक औऱ दलित लड़के जा रहे थे। उसकी दुकान के पास से तो हमें बुलाकर बोलता है कि तुम्हारे मोहल्ले से भी 14 वोट मिले हैं भाजपा को। आप देखें कि वह अकेला आदमी बैठकर यह बात भी सोच रहा है। 

गोरखपुर नई बाज़ार चौरा-चौरी के शिवकुमार प्रजापति ने चंदे के पैसे से गणेश प्रतिमा बिठाई। शोधछात्र दीपक बताते हैं कि गोरखपुर के धोबी, पासवान, प्रजापति, निषाद समाज के लोगों में बहुत तेजी से देवी-देवताओं की मूर्ति बिठाने और पूजा पाठ करने चलन बढ़ा है। इसके लिये इन्हें फंडिंग भी होती है। दीपक बताते हैं कि सवर्ण समाज में पूजा-पाठ, आर्थिक संपन्नता व सवर्णता का समीकरण देखते आ रहे दलित समाज के लोगों में यह विचार बहुत तेजी फैल रहा है कि ऐसा करके वो अपने दलितपन, पिछड़ेपन और ग़रीबी से निजात पा लेंगे। चूंकि अभी तक भगवान को छूने और मंदिरों में प्रवेश जैसी चीजें उनके लिये निषिद्ध थीं, तो वे अपना कर्म और संघर्ष करके जैसे-तैसे ज़िंदग़ी गुज़ार रहे थे। लेकिन एक भावना, एक विचार तो उनमें था ही ईश्वर कृपा और पूजा पाठ से जीवन के मनोरथों को प्राप्त करने का। तो अब कुछ आर्थिक संपन्नता और आरएसएस-भाजपा से जुड़ने के चलते दलित समाज में ये विसंगतियां बहुत तेजी से फैल रही हैं। 

जिला इलाहाबाद, तहसील फूलुपर, ग्रामसभा पाली का एक जाटव परिवार पिछले कई सालों से मूर्ति बिठाकर गणेशोत्सव मनाता आ रहा है। दरअसल अपनी ज़िंदग़ी के दो-तीन दशक मुंबई, महाराष्ट्र में रोटी कमाने में ख़र्च करने के बाद चंद्रदेव हरिजन परिवार समेत अपने पुश्तैनी निवास लौट आये। मुंबई छोड़ने के बाद जिस एक चीज ने उन्हें सबसे ज़्यादा खाली खाली महसूस करवाया, वह भादों महीने में 11 दिनों तक चलने वाला गणेश महोत्सव था। तो चंद्रदेव के परिवार ने गणपति महोत्सव मनाने का मन बनाया और हर साल गणेश प्रतिमा बिठाने लगे। दो साल पहले चंद्रदेव की बीमारी से मौत हो गई। इधर गणेश प्रतिमा बिठाने के भी 7 साल पूरे हो गये हैं। तो अब परिवार ने आर्थिक हालातों के चलते अगले साल से गणेश प्रतिमा न बिठाने का मन बनाया है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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