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पसमांदा अब राजनीतिक ब्रांड, संघ प्रमुख कर रहे राजनीति

“अहम बात यह है कि पसमांदा समाज किसी भी तरह की सांप्रदायिक राजनीति को या उसके विचार को नही मान सकता है। इसलिए ये नई तरह की राजनीति जो भाजपा कर रही है, वह इस आंदोलन और इस विमर्श को कमजोर नहीं कर सकती है।” पढ़ें मोहन भागवत के मदरसा भ्रमण पर अली अनवर की प्रतिक्रिया

बीते दिनों राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आएसएस) के प्रमुख दिल्ली के आजादपुर स्थित एक मदरसे में जाकर वहां पढने वाले बच्चों से और वहां के मौलाना से जाकर मिले। इसके अलावा पांच मुसलमान नौकरशाहों ने भागवत से मुलाकात की। इसे लेकर देश भर की मीडिया में चर्चाएं हुईं और यह सवाल भी उठा कि इसके राजनीतिक निहितार्थ क्या हैं। साथ ही, यह भी कि क्या वाकई आरएसएस अब बदलाव की राह पर है या फिर उसकी नजर मुस्लिम समाज के पसमांदा मुसलमानों पर है, जो आज भी सामाजिक और आर्थिक रूप् से पिछड़े हैं? 

इस संबंध में ऑल इंडिया मुस्लिम महाज़ के राष्ट्रीय अध्यक्ष व पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर अंसारी का मानना है कि यह संवैधानिक संस्थाओं को नज़रअंदाज़ करना है।

अली अनवर बताते हैं कि “पसमांदा शब्द अब एक ब्रांड बन गया है। इस कारण ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी अपनी जुबान पर इस शब्द को लाना पड़ा है। हैदराबाद में बीते दिनों वे यह शब्द बोले बिना नहीं रह पाए। हमने 1998 में ऑल इंडिया मुस्लिम पसमांदा महाज़ नाम की एक संस्था बनाई और लगातार उस पर अभियान चला रहें हैं और दुनियाभर की यूनिवर्सिटी में पसमांदा के सवालों पर रिसर्च होती है और अब ये मुद्दा विमर्श का मुद्दा बन गया है। प्रधानमंत्री मोदी जी भी अब इस मुद्दे को लपकना चाहते हैं। हमारा इस पर स्टैंड यह है कि जब कोई ब्रांड चल निकलता है तो उसकी नकल भी होती है और जब केंद्र सरकार खुद ही इस काम में लग जाए तो ब्रांड के नाम पर फर्ज़ी संगठनों को खड़ा करना उनके लिए कोई बड़ी बात नही है।”

मोहन भागवत व अली अनवर

आरएसएस प्रमुख द्वारा मदरसों में जाने के सबब के बारे में वे कहते हैं कि “मदरसों में जाना और ‘पसमांदा’ विमर्श पर चर्चा करना इस बात की गवाही है कि अब यह मुद्दा सही मायनों में विमर्श का मुद्दा बना है। रही बात पसमांदा मुद्दे और उसकी राजनीति की तो हम लोगों का कोई पसमांदा शब्द या इस विमर्श पर पेटेंट या कॉपीराइट तो है नही, और जब सरकार और उनके सुप्रीम लीडर खुद पसमांदा शब्द का ज़िक्र कर रहे हैं तो उनके लिए ‘पसमांदा’ शब्द पर संगठन खड़े करना कौनसी बड़ी बात रह जाती है। पसमांदा न सिर्फ एक शब्द है बल्कि यह एक तहरीक (आंदोलन) है, जो गरीब, पिछड़ा और पीछे रह जाने वाले समाज के लिए है।”

वे मानते हैं कि “अहम बात यह है कि पसमांदा समाज किसी भी तरह की सांप्रदायिक राजनीति को या उसके विचार को नही मान सकता है। इसलिए ये नई तरह की राजनीति जो भाजपा कर रही है, वह इस आंदोलन और इस विमर्श को कमजोर नहीं कर सकती है।”

दरअसल, दो अहम घटनाएं एक साथ हुईं। एक तो संघ प्रमुख मदरसे के छात्रों से मिलें। इसके अलावा पांच एलीट और पूर्व ब्यूरोक्रेट्स से भी संघ प्रमुख मिले। सवाल यह है कि विदेशों में पढने वाले और अशराफ समाज से संबंध रखने वाले ये सारे ब्यूरोक्रेट और सरकारी मुसलमान कैसे ‘मुसलमानों’ के प्रतिनिधि हो सकते हैं और कैसे ये बड़ी संख्या में पसमांदा समाज की तकलीफ, दुःख और समस्याओं को जान सकते हैं? और नहीं जान सकते हैं तो कैसे ये लोग मुसलमानों के प्रतिनिधि हो सकते हैं जैसा कि मीडिया में दिखाया भी जा रहा है? 

इस बारे में अली अनवर कहते हैं कि “ये वो लोग हैं, जो पदों पर रहते हुए सिर्फ अपने घरों में रहना पसंद करते हैं। इन्हें मुसलमानों की समस्याओं और उनके दुःख और दर्द से कोई लेना देना नही है। 2020 में दिल्ली में हुए दंगों में जब गरीब मुसलमान और हिंदू मारे जा रहे हैं थे, उनके घर लुटे जा रहे थे तब ये ब्यूरोक्रेट कहां थे? या फिर जब बेगुनाह मुसलमानों को जेलों में भरा जा रहा था, उस समय ये क्या कर रहे थे?”

अली अनवर कहते हैं कि “केरल के राज्यपाल आरिफ मो. खान जो कि भाजपा की मेहरबानी से राज्यपाल हैं, उन्होंने केरल की जनता द्वारा चुनी गयी सरकार की नाक में दम कर रखा है। ठीक इसी तरह से नजीब जंग ने दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल के काम में टांग अडाने में अपने कार्यकाल में कोई कमी नहीं छोड़ दी थी। यानि कुल मिलाकर अगर कहें तो पहले ये अशराफ लोग कांग्रेस की मेहरबानी से पदों पर काबिज थे और अब भाजपा की मेंहरबानी से हैं। मुसलामानों और खासकर पसमांदा मुसलमानों की राजनीति से या उनके विमर्श से इन लोगों से कोई लेना देना नही रहा और ना ही हो सकता है।” 

मोहन भागवत के मदरसा भ्रमण के निहितार्थ के संबंध में अली अनवर कहते हैं कि “2014 के बाद से अब तक आरएसएस भारत में संवैधानिक सत्ता का केंद्रीय संगठन बन गया है। यह किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए बड़ा सवाल है कि लोकतंत्र में सवाल या जवाबदेही संसद की होती है और जब यूँ पांच ब्यूरोक्रेट्स अचानक जाकर संघ प्रमुख से मिलते हैं, मुसलमानों की बात या उनसे जुड़े मुद्दों की बात करते हैं तो इसका क्या मतलब बनता है यह चिंता का विषय है। यह सिर्फ मुलाक़ात नहीं है। यह संवैधानिक संस्थाओं को नज़रअंदाज़ करना भी है और इसी तरह से आरएसएस जो अपने आप को सांस्कृतिक संगठन कहता है, वो खुलेआम राजनीति कर रहा है।” 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

असद शेख

असद शेख दिल्ली विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन में सक्रिय हैं

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