अक्सर चुनाव का नाम आते ही पहला सवाल उठता है कि पैसा कहां से आएगा? कोई भी चुनाव लड़ना है तो पैसा तो लगेगा ही ऐसा सुविधाजनक भ्रम फैलाया गया है। उसके पीछे का उद्देश्य क्या है? यह हमें समझ लेना चाहिए कि समाज के गरीब व मध्यम आय वर्गीय व्यक्ति चुनावी की स्पर्द्धा में शामिल ही नहीं हों, इसलिए इस तरह का प्रयास धनवान व उच्च जातियों के लोग करते रहते हैं। दरअसल, यह ध्यान में रखना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति के चुनकर आने का वास्तविक रहस्य समाज पर वैचारिक प्रभाव है। जिन विचारों का समाज पर अधिक प्रभाव रहता है, उन विचारों को मानने वाले व्यक्ति चुनावों में जीतकर आते रहते हैं और सत्ता भी उसी विचार काे माननेवाली पार्टी के पास जाती है।
परंतु किसी विचार का समाज पर प्रभाव स्थापित करने के लिए आंदोलन खड़ा करना पड़ता है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बाल गंगाधर तिलक ने वैदिक-ब्राह्मणी विचारों का प्रभाव समाज में स्थापित किया। तिलक के बाद आनेवाले गांधी ने भी यही ब्राह्मणी विचार बहुजन समाज के लोगों के मन-मस्तिष्क में स्थापित किया।
इस कारण ही 1965 तक कांग्रेस की सत्ता अबाधित रही। लेकिन बाद में गांधीवादी पकड़ ढीली पड़ने लगी, जिसके कारण अनेक राज्यों में कांग्रेस की सत्ता डगमगाने लगी।
गांधीवाद के प्रभाव में कमी क्यों आईं? जवाब यही कि इसकी वजह वैचारिक रही। समाजवाद एवं मार्क्सवाद ने गांधीवाद को कड़ी चुनौती दी। ये दोनों वाद आंदोलन के द्वारा ही आगे आए। इसके पहले तिलक-सावरकर के ब्राह्मणवाद को मात देने के लिए फुले-अंबेडकर के जाति का विनाश संबंधी अब्राह्मणी सिद्धांत आगे आए।
यह भी तब हुआ जब जोतीराव फुले ने सत्यशोधक आंदोलन चालाया। उनके बाद डॉ.आंबेडकर के अस्पृश्यता विरोधी आंदोलन ने राजनीतिक मोड़ लेते हुए इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी व शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन का रूप धारण किया। वर्ष 1936 के चुनाव में उनकी पार्टी के 15 में से 13 उमीदवार विजयी हुए। इसी प्रकार दक्षिण के मद्रास प्रांत में पेरियार की विचारधारा के आधार पर द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पार्टी स्थापित हुई। वहीं उत्तर भारत में 1985 के दौरान कांशीराम ने फुले-आंबेडकरवाद की बुनियाद पर बहुजन समाज पार्टी का गठन किया।
वर्ष 1920 से 1930 के दशक में ब्राह्मणेतर पार्टियों ने तिलक-सावरकर के ब्राह्मणवाद को सांस्कृतिक चुनौती तो दी ही राजनीतिक दृष्टि से भी उनकी घेरेबंदी की, लेकिन जमींदारों व सामंतवादी मराठा नेताओं ने सत्ता के लोभ में शार्टकट अपनाते हुए ब्राह्मणेतर पार्टी को कांग्रेसी गांधीवाद में विलीन कर दिया। ऐसे ही डॉ. आंबेडकर ने भी सफल राजनीतिक दल साबित हो चुकी इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी को 1940 के दशक में भंग कर शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन का गठन किया, लेकिन उनका यह प्रयास विफल साबित हुआ। बाद में मार्क्सवादियों ने कांग्रेसी गांधीवाद को चुनौती दी, जिसके कारण उनकी सत्ता पश्चिम बंगाल व केरल में आई। परंतु शुद्ध वर्गवाद के चक्कर में जाति व्यवस्था की चुनौती न स्वीकार करने के कारण वामपंथी पार्टियां आज नेस्तनाबूद होते हुए दिखाई दे रही हैं।
कांशीराम द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी को मायावती ने संघ-भाजपा में लगभग विलीन ही कर दिया है। समाजवादी विचारधारा की पार्टियों को भी सत्ता मिली है, लेकिन ये भी जातिवाद के दलदल में फंसती जा रही हैं।
तत्वज्ञान पर आधारित वैचारिक आंदोलनों से गरीब परिवारों के अनेक लोग सत्ता के शीर्ष तक भी पहुंचे हैं। इनमें महाराष्ट्र के वेंकट राव (धोबी जति), गजमल माली और बिहार में कर्पूरी ठाकुर जैसे ओबीसी नेता शामिल रहे।
महाराष्ट्र में भी भाई बंदरकर व गणपतराव देशमुख जैसे अनेक गरीब ओबीसी विधायक चुनकर आए। 1936 में ही इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के टिकट पर पारुलेकर जैसे गरीब ब्राह्मण भी विजयी हुए। कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर रामचंद्र घंगारे (तेली, ओबीसी), भाई मंगले (माली, ओबीसी) जैसे अनेक गरीब परिवारों के लोग विधायक बने। कांशीराम के बहुजन आंदोलन के दलित समुदाय की मायावती उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री बनीं। हिंदूवादी विचारों के नाम पर भाजपा-शिवसेना ने अनेक गरीब ओबीसी, दलितों व आदिवासियों को राजनीति में जगह दी। एक ऑटो रिक्शाचालक रहे एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाया। तमिलनाडु में भी अनादुरई, व करुणानिधि जैसे ओबीसी भी मुख्यमंत्री बने।
ये उदाहरण बताते हैं कि चुनाव जीतने के लिए विचारों का महत्व अधिक है। विचारों से आंदोलन होता है और आंदोलन से राजनीतिक दशा और दिशा बदलती है। इसलिए यह कहना कि राजनीति के लिए बहुत पैसा चाहिए गैर-वाजिब ही है।
(मराठी से अनुवाद : चंद्रभान पाल, संपादन : नवल/अनिल)
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