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पद्मश्री रामचंद्र मांझी : नाच हऽ कांच बात हऽ सांच

रामचंद्र मांझी ने अपना पूरा जीवन भिखारी ठाकुर के लौंडा के रूप में व्यतीत किया। लेकिन उनके योगदान को सरकार ने जीवन के अंतिम वर्षों में मान्यता दी। यदि यह राष्ट्रीय सम्मान और पहचान उन्हें पहले मिल गई होती तो निश्चित तौर पर उनके जीवन में अभाव से जुझने की चुनौती नहीं होती। बता रहे हैं प्रो. जनार्दन गोंड

पद्मश्री रामचंद्र मांझी (1925 – 7 सितंबर, 2022)

तू जइबऽ कलकत्ता
हम रहबऽ अकेल
अइसे चली कइसे चली
जीवन के खेल…

– रामचंद्र मांझी

लौंडा नाच को भिखारी ठाकुर ने “नाच हऽ कांच बात हऽ सांच” कहा है। बिहार के प्राख्यात लोक कलाकार भिखारी ठाकुर के लिए लौंडा नाच कांच यानी आईना की तरह तरह सच्चा था। उनके नाटक ‘बिदेसिया’ की लोकप्रियता का आलम यह था कि जहां कहीं भी उन्होंने अपना नाच खेला, वहां के तमाम प्रवासी मजदूर अपने घरों को लौटने लगते थे और कल-कारखानों में मजदूरों का टोटा हो जाता। जो भी देखता उसकी आंखें नम हो जातीं।

भिखारी ठाकुर की सफलता के पीछे सामाजिक ताने-बाने में बंधी कथा के साथ-साथ लौंडा नाच की महत्वपूर्ण भूमिका थी। लौंडा नाच के कलाकार उनके नाटकों के जान हुआ करते थे। उनके नाटक जिस शहर में खेल खेला जाता था, उस शहर के सिनेमा के शो तक रद्द हो जाया करते थे। बकौल रामचंद्र मांझी जब पुरुष सज-धजकर, मांग में टीका-टिकुली-बिंदी और पैरों में घूँघरू बॉधकर, नर्तकी बनकर महफिल में नाचते तो लोक जीवन का यथार्थ अपने संपूर्ण स्वरूप में मंच पर साकार हो जाता।[1]

बिहार, बंगाल, उड़ीसा, असम और उत्तर प्रदेश में जब भिखारी ठाकुर की मंडली पहुंचती थी, तब आठ-दस कोस में हल्ला हो जाता था। गांव के गाांव सूने हो जाते थे। जहां भी खेला होता हफ्ते-दस दिन तक मजमा लगा रहता। कहा जाता है कि जिस के खेला के दौरान भीड़ के कारण दस-बारह लोग चोटिल नहीं होते थे, वह खेला सफल नहीं माना जाता था। रामचंद्र मांझी कहते थे कि खेला के दौरान इलाकों में चोरी-चकारी और डकैती के वारदात बढ़ जाते थे। थानेदारों की जवाबदेही और काम बढ़ जाता था। गांवों में जात-बिरादरी के बाहर प्रेम की घटनाएं बढ़ जाती थीं।[2]

लोक कलाएं सामाजिक-सांस्कृति बदलावों के वाहक रही हैं। खासकर भिखारी ठाकुर के नाटकों, जिन्हें वह खेला कहा करते थे, के कारण जाति-धर्म की दीवारों पर चोट पड़ने लगी। वंचित जातियों के कलाकार हजारों के बीच मंच पर आकर प्रस्तुति देने लगे। इनमें दलित और ओबीसी जातियां यथा बिंद, लोहार, नाई, कहार, मुसहर, चमर, कुम्हार, पासी आदि शामिल थीं।

भिखारी ठाकुर की विशेषता यह रही कि उन्होंने परंपरागत पौराणिक और धार्मिक कहानियों को छोड़कर ठेंठ गंवई शैली में सामाजिक समस्याओं को अपने खेला का विषय बनाया और हेय समझे जाने वाले लौंडा नाच को एक समानांतर लोकमंच का स्वरूप प्रदान किया।

भिखारी ठाकुर ने जिस तरह से श्रमजीवी समाज की परेशानियों को नाट्य कथाओं का विषय बनाया और उन्हें मनोरंजन से जोड़ा, उसे अभिजात्य मनोरंजन माध्यम का प्रतिपक्ष माना जाना चाहिए। भोजपूरी श्रमजीवी लोक में भिखारी ठाकुर के लिए कहा भी जाता है– “नाम भिखारी रहे, मगर स्वभाव से रहे राजा, अपने करम से फहरा दिहे रहे, जवन भोजपूरी के धाजा”। धाजा का मतलब ध्वज यानी झंडा। रामचंद्र मांझी भिखारी ठाकुर के नाट्य मंडली के अहम हिस्सा थे। लौंडा शब्द पर रामचंद्र मांझी कहते थे– “लौंडा एक बुरा शब्द है, गाली है।” लौंडा के विषय में वह कहा करते थे कि तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने इस शब्द को लैंगिक और जातिगत भेदभाव की मानसिकता के कारण एक गाली बना दी। रामचंद्र मांझी भिखारी ठाकुर के साथ 1971 में उनके निधन तक जुड़े रहे।

पद्मश्री रामचंद्र मांझी (1925 – 7 सितंबर, 2022)

पद्मश्री रामचंद्र मांझी का 7 सितंबर, 2022 को निधन हो गया। उनका जन्म 1925 में हुआ था। वह भिखारी ठाकुर के महत्वपूर्ण सहयोगी और लौंडा नाच के प्रमुख कलाकार थे। दस साल की उम्र में ही वह उनकी मंडली में शामिल हो गए थे और स्टेज पर प्रोग्राम देने लगे थे। भिखारी ठाकुर की मंडली के अहम कलाकार के रूप में उन्होंने पूरे देश में घूम-घूमकर खेला दिखाया। लोकनाटक और लोक संस्कृति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए उन्हें संगीत नाटक अकादमी सम्मान (2017) प्राप्त हुआ। वर्ष 2021 में वह भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से नवाजे गए थे। भिखारी ठाकुर के सभी नाटकों जैसे कि ‘बिदेसिया’, ‘गबरघिचोर’, ‘पिया निसाइल’, ‘बिरहा बहार’, और ‘बेटीबेचवा’ में रामचंद्र मांझी की प्रस्तुति स्मरणीय रहा करती थीं। अपने सांस्कृतिक जीवन में उन्होंने लौंडा नाच की प्रस्तुति सुरैया, वहीदा रहमान और मीना कुमारी आदि अभिनेत्रियों के सामने भी किया।

उत्तर भारत सामंतवाद का गढ़ रहा है। सामंती व्यवस्था के विरोध ने केंद्रित होने के कारण इन इलाकों में लौंडा नाच को विकसित और प्रसारित होने का खाद-पानी प्रदान किया। दलित और श्रमजीवी परिवारों के कम उम्र के लड़के रोटी-कपड़ा और थोड़े से पैसों के मोह में आकर नाच-नाटक मंडलियों में भरती हो जाया करते थे तथा स्त्री वेश धर नाचते व अभिनय करते थे। रामचंद्र मांझी के अनुसार, लौंडा नाच एक प्रकार का स्वांग नृत्य ही था, जिसमें आदमी को औरत बनकर नाचना होता था। इसीलिए इन कलाकारों की इज्जत उनकी पत्नियां तक नहीं करती थीं।[3]

दरअसल, उत्तर भारत की धरती पितृसत्ता और सामंतवाद का न केवल गढ़ बल्कि सांस्कृतिक-सामाजिक संघर्ष की प्रयोगशाला भी रही है। बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में जब नाटक व नौटंकियों की प्रस्तुति में तेजी आई तब महिलाओं को मंच पर जाने की मनाही थी। ऐसे में नाटकों में स्त्री की उपस्थिति का अहसास बनाए रखने के लिए पुरुष को स्त्री में तब्दिल करने की कोशिश की गई। इस कोशिश और दबाव से लौंडा और लौंडा नाच का अविष्कार हुआ। इसका आर्थिक पक्ष भी था। वह यह कि अमीर लोगों के लिए कोठे थे। लौंडा नाच आम आदमी के मनोरंजन का माध्यम बना। यही वजह रही कि लौंडों का चुनाव आम श्रमजीवी और निम्न जातियों से हुआ। शुरू-शुरू में लौंडा नाच का दर्शक गरीब और श्रमजीवी समाज का पुरुष वर्ग था। लेकिन जैसे-जैसे देशी रियासतदारों की रियासतें जाती रहीं, वैसे-वैसे रियासत और सियासत से बेदखल वर्ग ने भी लौंडा नाच की ओर रूख किया। इस कारण पचास के दशक में लोक मंडलियों पर दोनों वर्गों के मनोरंजन का दबाव बढ़ा। इस दबाव को लोक मंडलियों अपने तरीके से संभाला। संभलने-संभालने की इस प्रक्रिया में लोक नाटकों की विषयवस्तु और प्रस्तुति के तरीकों में बदलाव हुआ। विषयवस्तु का फैलाव लौकिक के साथ-साथ अलौकिक विषयों (भक्ति और देवकथाओं) के रूप में हुआ। हालांकि लोकनाट्य के विषयों में अधिकतर नशे की लत, महिलाओं की दुर्गति, दहेज प्रथा और गरीबी-भूखमरी से पलायन आदि बनी रही। प्रस्तुति के स्वरूप में यह बदलाव हुआ कि लौंडा नाच के लिए कम उम्र के लड़कों की भर्ती मंडली में की जाने लगी और नृत्य व संगीत पक्ष पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। इस तरह से लौंडा नाच ने दोनों वर्ग (गरीब-अमीर) के दर्शकों का मनोरंजन किया। हालांकि यह जरूर है कि लौंडा नाच का स्वरूप गैर-शास्त्रीय ही बना रहा है। भिखारी ठाकुर ने जो कसौटी तय की थी, उससे वे डिगे नहीं। इसीलिए रामचंद्र मांझी भी इस बदलाव से अप्रभावित रहे।

इस तरह हम पाते हैं कि लौंडा नाच के दो पक्ष सामने आए। एक तो यह कि उस आकर्षक व मनोंरजक विराम की तरह होते थे, जिससे नाट्य कथा की एकसरता टूटती थी। इसका दूसरा पक्ष नकारात्मक रहा और लोगों ने लौंडा नाच ‘आइटम डांस’ की तरह बना दिया। आगे चलकर इसके भौंडे रूप का विलय भोजपूरी फिल्मों के फूहड़ नाच-गानों में हुआ।

दरअसल, लौंडा नाच ने जातिवाद, पितृसत्ता और सामंतवाद को मजबूत चुनौती दी थी। इसके कारण भी भिखारी ठाकुर के निधन के बाद इसे विद्रूप किया गया। रामचंद्र मांझी अनुभवी लौंडा नर्तक थे। एक समय उनकी व्यस्तता का आलम यह था कि खुद के विवाह तक के लिए भी बड़ी मुश्किल से वे समय निकाल पाए। नाटक करके किसी तरह सीधे द्वारपूजा पहुंचे और शादी के तुरंत बाद फिर मंडली के साथ हो लिये।

रामचंद्र मांझी ने अपना पूरा जीवन भिखारी ठाकुर के लौंडा के रूप में व्यतीत किया। लेकिन उनके योगदान को सरकार ने जीवन के अंतिम वर्षों में मान्यता दी। यदि यह राष्ट्रीय सम्मान और पहचान उन्हें पहले मिल गई होती तो निश्चित तौर पर उनके जीवन में अभाव से जुझने की चुनौती नहीं होती।

[1] https://youtube/_Bu6PrBk8LY
[2] https://youtube/_Bu6PrBk8LY
[3] https://youtube/_Bu6PrBk8LY

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

जनार्दन गोंड

जनार्दन गोंड आदिवासी-दलित-बहुजन मुद्दों पर लिखते हैं और अनुवाद कार्य भी करते हैं। ‘आदिवासी सत्ता’, ‘आदिवासी साहित्य’, ‘दलित अस्मिता’, ‘पूर्वग्रह’, ‘हंस’, ‘परिकथा’, ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिकाओं में लेख ,कहानियां एवं कविताएं प्रकाशित। निरुप्रह के सिनेमा अंक का अतिथि संपादन एवं आदिवासी साहित्य,संस्कृति एवं भाषा पर एक पुस्तक का संपादन। सम्प्रति इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी व आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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