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दम तोड़ रहा है पटना का बेकरी कारोबार

पटना शहर के अधिकतर बेकरी कारोबारी पसमांदा समाज से आते हैं। कारोबारी ही क्या, इस काम में लगे अधिकतर कारीगर और मज़दूर कमज़ोर वर्गों से हैं। मगर अपनी मेहनत से इन तमाम लोगों ने कारोबार और पटना शहर को एक अलग पहचान दिलाई है। परंतु, अब यह कारोबार दम तोड़ रहा है। बता रहे हैं सैयद जै़ग़म मुर्तज़ा

बिहार की राजधानी पटना अपने बेकरी उत्पादों के लिए दुनिया भर में मशहूर है। शहर में बेकरी उत्पाद बेचने वाली दुकानें देर रात तक खुली रहती हैं। रौशनी से जगमग इन दुकानों को देखकर उन लोगों की ज़िंदगी के अंधेरे का अंदाज़ा लगा पाना मुश्किल है जो इस कारोबार से जुड़े हैं। बढ़ती महंगाई, घटती आमदनी, माहौल और सरकारी नीतियों का बुरा असर न सिर्फ पूरे कारोबार पर बल्कि बेकरी कारीगरों की ज़िंदगी पर भी पड़ा है। 

पटना में गांधी मैदान के पूर्वोत्तर कोने पर बने कारगिल शहीद स्मारक से बिहार नेशनल कॉलेज वाली संकरी सड़क पर क़रीब सवा किलोमीटर की दूरी पर शहर का प्रधान डाकघर है। डाकघर के ठीक सामने से एक संकरी सड़क अंदर की तरफ सब्ज़ीबाग मुहल्ले तक जाती है। क़रीब दो सौ मीटर चलकर जैसे ही बाएं तरफ मुड़ेंगे, आपको लगेगा बिस्कुटों की मंडी में आ गए हैं। तक़रीबन हर तीसरी-चौथी दुकान बेकरी उत्पादों की है। रस्क, तरह-तरह के बिस्कुट और मशहूर पटनिया बाक़रख़ानी से सजे डिस्पले काउंटर आपको हर हाल में ललचाते हैं। 

सब्ज़ीबाग़ सिर्फ नाम का ही सब्ज़ीबाग़ है। लोग यहां शादी के लिए शेरवानी ख़रीदने आते हैं, गोश्त से बने लज़ीज़ व्यंजन खाने आते हैं, और यक़ीनी तौर पर अपनी मनपसंद बेकरी से बिस्कुट या बाक़रख़ानी ख़रीदने। सब्ज़ीबाग़ देर रात तक गुलज़ार रहता है, ख़ासकर रमज़ान के महीने में। पिछले कुछ वर्षो में लागत लगातार बढ़ी है और कारोबार चलाना मुश्किल हुआ है। ज़ाहिर है सेल्स काउंटर की रौनक़ कारोबारी मुश्किलों की सही अक्कासी नहीं है।

न सिर्फ सब्ज़ीबाग़, बल्कि पटना के दूसरे इलाक़ों में भी बेकरी कारोबारी परेशान हैं। शहर के कई इलाक़ों से कारोबार सब्ज़ीबाग़ जैसे तंग इलाक़ों में सिमटते जा रहे हैं। ग़ौरतलब है कि पटना शहर के अधिकतर बेकरी कारोबारी पसमांदा समाज से आते हैं। कारोबारी ही क्या, इस काम में लगे अधिकतर कारीगर और मज़दूर कमज़ोर वर्गों से हैं। मगर अपनी मेहनत से इन तमाम लोगों ने कारोबार और पटना शहर को एक अलग पहचान दिलाई है। हाल के वर्षों में पर्यावरण से जुड़े नियम कड़े हुए हैं, जीएसटी जैसे क़ानूनों ने कारोबारी दुश्वारियां बढ़ाई हैं और अल्पसंख्यकों के लिए सरकारों के नज़रिए से कारोबार में लगे लोगों की मुश्किलें बढ़ी हैं। लेकिन यह परेशानियों का सिर्फ एक पहलू है। असली परेशानियां सेल्स काउंटर के नफे-नुक़सान के परे हैं। 

कारोबारी के पास विकल्प हैं कि वह और भी कुछ कर सकते हैं। मगर बेकरी में काम करने वाले कारीगर, और मज़दूर कहां जाएं? कारीगरों ने इसके सिवा कुछ और सीखा नहीं है। बरसों से मज़दूरी उस रफ्तार से नहीं बढ़ रहीं, जिस रफ्तार से महंगाई और रोज़मर्रा के ख़र्चों में इज़ाफा हुआ है। इसके चलते ज़िदगी की गाड़ी खींच पाना मुश्किल हो गया है। 

पटना का बेकरी बाजार : पहले गुलजार, अब उजाड़ (तस्वीर : सैयद जैगम मुर्तजा)

सब्ज़ीबाग़ में एक दुकान पर काम करने वाले रहमान अली बताते हैं कि 12-13 घंटे काम करने के बदले तीन-साढ़े तीन सौ रुपये मिलते हैं। इतने में परिवार का ख़र्च कैसे उठाया जा सकता है? रहमान ख़र्च पूरा करने के लिए वक़्त निकाल कर किराए का ई-रिक्शा चलाते हैं। लेकिन उधर भी प्रतिस्पर्धा बहुत है।

बाक़रगंज के अब्दुल वहीद पहले बेकरी में काम करते थे। फिर ई-रिक्शा चलाया। इसके बाद फेरी करके सामान बेचा। कहते हैं, हर तरफ एक जैसा ही हाल है। ग़रीब की भरपाई कहीं से नहीं है। थक-हारकर सब्ज़ीबाग़ में बेकरी पर लौट आए हैं। कहते हैं, “बरसों से यही काम किया है। कम है लेकिन इसकी आदत है। फिर ई-रिक्शा चलाया लेकिन लोग उस काम में उम्र का लिहाज़ नहीं करते। यहां लोग इज़्ज़त से बात करते हैं। मगर बहुत से लोग हैं जो दूसरे काम-धंधों में लग गए हैं। तीन-साढ़े तीन सौ में भला कब तक गुज़र करते?”

बिस्कुट, रस्क की दुकान चलाने वाले क़ासिम कहते हैं कि “मज़दूरी न बढ़ने की वजहें हैं। एक तो पहले जैसा मुनाफा नहीं रहा। दूसरे, लोग अब ब्रांडेड बिस्कुट, ब्रेड, रस्क पसंद करते हैं। इसके अलावा माहौल का भी फर्क़ पड़ा है। सांप्रदायिक बंटवारा समाज में गहरे तक है। कारोबार को भी लोग हिंदू और मुसलमान बनाने लगे हैं। ज़ाहिर है अपने-अपनों के बीच कितना माल बेचेंगे? ऐसा नहीं कि केवल हम नुक़सान में हैं, बल्कि दूसरे वर्ग के व्यापारी भी इस बकवास से परेशानी में हैं।”

हालांकि पटना की एक ख़ूबसूरती भी है। यहां कम ही ऐसे इलाक़े हैं जहां सिर्फ एक ही वर्ग के लोग हों। मिली-जुली आबादी हैं और लोग मज़े में एक-दूसरे के साथ रहते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता नूर आलम कहते हैं कि ऊपर से देखने में सब सामान्य नज़र आता है लेकिन व्हाट्सअप पर आने वाले संदेश, और सोशल मीडिया पर चल रही ज़हर की खेती हर स्तर पर असर डाल रही है। चाहे बॉलीवुड हो और चाहे बेकरी, सब तरफ इस बंटवारे की मार है।”

कुल मिलाकर चाय में डुबा कर खाया जाने वाल पटना का गोल मीठा बिस्कुट व्हाट्सअप की गोल-गोल बातों का शिकार बन रहा है और बाक़रख़ानी अपना ज़ायक़ा खो रही है। एक बड़ी वजह सांप्रदायिकता भी है। पटना का बेकरी कारोबार इससे अछूता नहीं है। हालांकि अभी कोई बड़ी दुकान बंद नहीं हुई है, लेकिन कारोबारी चमक तो फीकी पड़ी ही है।

कारोबारी मुश्किलों का एक बुरा असर यह भी हुआ है कि नए लड़के इस धंधे में नहीं आना चाहते। इस कारोबार में उन्हें कोई भविष्य नज़र नहीं आता। मुबीन अनवर सत्तर साल के हो चले है। पिछले चालीस साल से बेकरी कारीगर रहे मुबीन कहते हैं कि लड़के अब पढ़-लिखकर बेहतर भविष्य तलाश रहे हैं। जो ठीक से पढ़ नहीं पाते वह भी यह काम नहीं सीखना चाहते क्योंकि इसमें ज़्यादा आमदनी नहीं है। बढ़ती बेरोज़गारी भी युवाओं को इस कारोबार में आने के लिए प्रेरित नहीं करती। इसके चलते आने वाले दिनों में यह कुटीर उद्योग यक़ीनन कारीगरों की कमी की मार भी झेलने को मजबूर होगा।”

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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