अगर हम गुजरात में दलित बहुजनों की समस्या पर नजर डालें तो गुजरात में दलित-बहुजनों की समस्या बारह जोड़ों और तेरह टूटने की स्थिति में है। यानी उनकी कितनी भी समस्याएं हल हो जाएं, नई समस्याएं लगातार पैदा होती रहती हैं। संक्षेप में, दलित-बहुजनों की समस्याएं अनंत हैं और हल करना मुश्किल हैं। सनद रहे कि कोई भी समस्या आकाश से नहीं टपकती और शून्यावकाश में निष्पन नहीं होती। हर छोटी बड़ी समस्याएं सामाजिक कुव्यवस्था के कारण पैदा होती है। मतलब ऊनको वैज्ञानिक रूप से समझ ने के लिए हमारे यहां की सामाजिक व्यवस्था रही के संदर्भ में समझना होगा।
गुजरात की 182 सीटों के लिए दिसंबर में चुनाव होने की संभावना है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) राज्य में लगभग 27 वर्षों से सत्ता में है। और नरेंद्र मोदी, जिनका पूरे गुजरात में दबदबा है, पिछले 8 साल से केंद्र में प्रधानमंत्री के रूप में देश के ऊपर राज चला रहे हैं। वैसे इस बार 1990 के बाद पहली बार राज्य में त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिलेगा।
लोक लुभावन घोषणाओं की प्रतिस्पर्द्धा
असल में इस बार गुजरात चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) के बीच विकास के ‘मॉडल’ का टकराव देखा जा है। विधानसभा चुनावों में एक मजबूत प्रदर्शन करने के लिए आम आदमी पार्टी ने जो वादे किये हैं, उनमें प्रति माह 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली, बेरोजगारों को तीन हजार रुपए का बेरोजगारी भत्ता, दस लाख सरकारी नौकरी, सभी को मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा और सरकारी स्कूलों में मुफ्त शिक्षा, महिलाओं को एक हजार रुपए का भत्ता, नए वकीलों को मासिक वजीफा, किसानों को 2 लाख रुपए तक के कृषि ऋण की माफी और सिंचाई के लिए दिन में बिजली, व आधी कीमत पर एलपीजी सिलेंडर देना आदि शामिल है।
आम आदमी पार्टी जैसे ही कांग्रेस ने भी मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए अनेक तरह की सुविधाएं देने की घोषणा की है। पीछे नहीं रहने के लिए कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी के वादों से मिलान किया है और सूची में और अधिक रियायतें जोड़ी हैं। जैसे कि 500 रुपए में एलपीजी सिलेंडर प्रदान करना, कोविड -19 के कारण मरने वालों के परिजनों को 4 लाख रुपए का मुआवजा देना, किसानों को 3 लाख रुपये तक की ऋण माफी का भी वादा किया। कांग्रेस ने आप का विरोध करते हुए कहा कि राजस्थान में लोगों को 10 लाख रुपए तक के मुफ्त चिकित्सा उपचार की योजना पहले से ही चालू है।
वहीं भाजपा कह रही है कि कांग्रेस और आप दोनों पार्टियां राज्य की सत्ता में नहीं आनेवाली हैं। इसलिए वे फालतू के वादे कर रहे हैं। भाजपा का कहना है कि वह गरीबों को मुफ्त (कोविड-19) टीका, मुफ्त राशन दे रही है। जबकि पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं दे पा रही है। भाजपा का यह भी कहना है कि उसके कल्याणकारी उपाय मौजूदा स्थिति पर आधारित हैं। जैसे कि महामारी के दौरान मुफ्त टीके उपलब्ध कराने की आवश्यकता थी, मुफ्त राशन (गरीबों को) प्रदान करने के लिए आवश्यक था। इसलिए भाजपा ने इसे लगभग दो वर्षों तक (देश भर में) 80 करोड़ लोगों के लिए किया।
भाजपा की ओर से यह कहा जा रहा है कि कांग्रेस को पहले गुजरात में मतदाताओं से किए गए वादों को उन राज्यों में लागू करना चाहिए, जहां वह सत्ता में है।
दिल्ली, राजस्थान और गुजरात मॉडल
दूसरी ओर आम आदमी पार्टी गुजरात के लोगों को यकीन दिलाने का प्रयास कर रही है कि उसने अपने द्वारा शासित दिल्ली और पंजाब में वहां की जनता से किए गए सभी वादों को पूरा किया है। उसने दिल्ली मॉडल लागू करने के लिए प्रतिबद्ध रहने की बात कही है।
वहीं कांग्रेस राज्य में राजस्थान मॉडल को दोहराने की इच्छुक है। पार्टी ने राजस्थान के मॉडल ऑफ जेनरिक मेडिसिन, प्रत्येक नागरिक के लिए 5 लाख रुपए का बीमा कवर; ग्रामीण आबादी और दुग्ध सहकारी समितियों को लुभाने के लिए, डेयरी किसानों को खरीदे गए प्रत्येक लीटर दूध के लिए 5 रुपए का बोनस; बिजली क्षेत्र में सब्सिडी, गुजरात के किसानों को दिन के समय बिजली देने का वादा कांग्रेस ने किया है।
जबकि भाजपा का अपने गुजरात मॉडल में विश्वास अटूट है। चूंकि गुजरात पहला राज्य है जहां भाजपा ने 1995 में पूर्ण बहुमत हासिल किया था, यह आरएसएस का पसंदीदा बना हुआ है। यहां तक कि केंद्र और उन राज्यों में भी गुजरात के सियासी मॉडल को दोहराया गया, जहां वह सत्ता में थे।
बताते चलें कि वर्तमान में राज्य सरकार द्वारा कन्या केलावानी (लड़कियों की शिक्षा), नवाचार के लिए केंद्र सरकार की योजनाएं, स्टार्ट-अप, और नए उद्योगों के लिए प्रोत्साहन कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इसके अलावा बुलेट ट्रेन, मेट्रो ट्रेन, नडियाद को विश्वस्तरीय रेलवे स्टेशन, रोजगार मेला, गरीब कल्याण मेला आदि बातें भी कही जा रही हैं।
दलित-बहुजनों की स्थिति
गुजरात में ऐसा माहौल बना दिया गया ताकि कांग्रेस और भाजपा के अलावा कोई तीसरा राजनीतिक दल नहीं आ सके। यह माहौल 1960 में गुजरात बनने के बाद से ही उच्च जातियों के बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और उद्योगपतियों द्वारा बनाया गया है। इसलिए तीसरा पक्ष नहीं चल सकता। इस तरह की एक अवधारणा आमतौर से गुजरात में आज भी बनी है। लेकिन यह पूरी तरह से सच नहीं है। 1985 में माधवसिंह सोलंकी और जिनाभाई दरजी, दोनों ओबीसी समुदाय के थे। उन्होंने ‘खाम’ फार्मूला यानी कोली (क्षत्रिय), दलित, आदिवासी और मुस्लिम को एकत्र किया था और गुजरात में 182 में से 146 सीट प्राप्त किया। उनका यह रिकॉर्ड अभी तक टूटा नहीं। हालांकि 1985 में, आरक्षण विरोधी आंदोलन से उसे उखाड़ फेंका और कांग्रेस द्वारा आदिवासी अमरसिंह भाई चौधरी को मुख्यमंत्री बनाया गया। और उसके बाद 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ और भाजपा सत्ता में लगातार बनी है।
‘हिंदू’ के नाम पर दलित-बहुजनों के असली मुद्दों को उभरने ही नहीं दिया गया और उन्हें केवल गुजराती और हिंदू तक सीमित कर दिया गया। बताते चलें कि रामजन्म भूमि आंदोलन, आरक्षण विरोधी आंदोलन की शुरूआत गुजरात से ही हुई। यह सहज तरीके से शुरू नहीं हुआ, बल्कि यह एक सुनियोजित योजना के तहत के किया गया। गुजरात की धरती गांधी और आरएसएस की प्रयोगशाला रही। गुजरात में 2002 में गोधरा कांड हुआ और मनुवाद पूरे भारत में फैल गया। इसे भी समझना जरूरी है। गांधी ने एक समय मनुवादी कु-व्यवस्था को सुरक्षित रखा था, वही काम आज नरेंद्र मेादी कर रहे हैं। यह सांकेतिक मात्र नहीं है। गुजरात में आरक्षण के खिलाफ दो बड़े आंदोलन हुए। एक 1980 में और दूसरा 1985 में। हालांकि बाद में हार्दिक पटेल भी पाटीदारों के आरक्षण के लिए लड़े, लेकिन वह भी एक तरह से दलित-बहुजन समाज के हितों के खिलाफ ही था।
कहना अतिशयोक्ति नहीं कि गांधीवादी विचारधारा के प्रभाव में फुले व आंबेडकरवादी विचारधारा विकसित नहीं हुई। इसके कारण गुजरात के दलित-बहुजनों के सामाजिक जीवन में इस विचारधारा का कोई प्रभाव नहीं है।
दलित-बहुजनों के सवाल
गुजरात में दलित-बहुजनों के समस्याओं की कोई कमी नहीं है। आदिवासियों के रोजी-राजगार के सवाल, बढ़ती बेरोजगारी, तटीय इलाकों में मूलभूत संरचनाओं की कमी, दलितों को घोड़ी पर नहीं बैठने देने से लेकर तमाम तरह के छुआछूत। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अपने गांव से महज 12 किमी की दूरी पर दलितों के बाल नाई नही काटते।
इसके अलावा आदिवासियों को वनवासी बनाना भी गंभीर मुद्दा है। बड़े मुद्दों की बात करें तो जातिगत जनगणना ना होना, और स्थानीय पंचायतों, नगर निकायों में ओबीसी के लिए आरक्षण खत्म होने का आरक्षण हटाने का मुद्दा भी है। शिक्षण संस्थाओं का निजीकरण,अडानी-अंबानी-टाटा जैसे उद्योगपतियों का बढ़ता प्रभाव, आर्थिक संसाधन का उच्च जातियों के इर्द-गिर्द केंद्रीकरण, आदिवासी बहुल इलाकों में छठी अनुसूची नहीं लागू करना, नदियों पर बांध परियोजनाओं के कारण विस्थापन, वनाधिकार से जुड़ी समस्याएं और असंगठित कामगरों की समस्याएं भी हैं। लेकिन कोई भी दल इन मुद्दों के बारे में बात नहीं करता। इन मुद्दों के विपरीत गुजरात के लोगों के सामने जो मुद्दे प्रस्तुत किये जा रहे हें, उनमें दलित-बहुजन कहीं नहीं हैं।
अब सवाल यह कि गुजरात में दलित-बहुजनों के मुद्दे राजनीतिक दलों के एजेंडे में शामिल क्यों नहीं किये जाते हैं? इसका जवाब यह कि गुजरात की सत्ता, ग्राम पंचायत से लेकर प्रांत के स्तर तक, पूरी तरह से मनुवादियों के हाथ में है। यहां तक कि किसान सहकारी समितियों, दुग्ध समितियों, चीनी कारखानों पर भी उनका ही अधिकार है। इसके अलावा धर्म और धर्म गुरुओं का प्रभाव भी चहुंओर है। मीडिया की सत्ता वर्ग के प्रति पक्षधरता भी एक बड़ा कारण है।
बहरहाल, यह तय है कि गुजरात में दलित बहुजन समस्या का समाधान तबतक नहीं होगा जबतक वे फुले-आंबेडकर के विचारों के आधार पर खुद सत्ता में नहीं आएंगे।
(संपादन : नवल/अनिल)
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