मल्लिकार्जुन खड़गे ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में पदभार संभाल लिया है। इस प्रकार पिछले 24 वर्षों मे कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर पहली बार कोई गैर गांधी आसीन हुआ है। इसके लिए कांग्रेस ने अपने 9500 से अधिक आधिकारिक प्रतिनिधियों के जरिए एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के द्वारा अध्यक्ष पद का चुनाव करवाया, जिसमें खड़गे ने अपने प्रतिद्वंदी शशि थरूर को भारी मतों के अंतर से पराजित कर दिया।
कांग्रेस का यह चुनाव अनेक बातों के लिए ऐतिहासिक माना जाएगा। इनमें सबसे महत्वपूर्ण यह कि इसमें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और मीडिया की बेहद दिलचस्पी, जो शशि थरूर के लिए तालियां बजाने का काम कर रहा था। इस क्रम में मीडिया ने कांग्रेस और खासकर गांधी परिवार को अपमानित करने का अभियान ही चला दिया। इसका अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि वे शशि थरूर को पार्टी का अध्यक्ष बनाने पर तुले हुए थे और थरूर के नामांकन भरने के बाद से ही बड़े-बड़े चैनलों और अखबारों मे उनके साक्षात्कार इस प्रकार से प्रकाशित किये जा रहे थे, गोया वह अध्यक्ष बन गए हों। मीडिया चैनल केवल इस बात से ही परेशान नहीं थे कि शशि थरूर को अध्यक्ष क्यों नहीं बनना चाहिए अपितु उनका पूरा जोर इस बात पर भी था कि गांधी परिवार कांग्रेस मे क्यों बना हुआ है। यह वही राष्ट्रवादी मीडिया है जो ऋषि सुनक के ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनने पर महिमामंडन की हर सीमा का उल्लंघन कर रही है।
यह तो स्पष्ट है कि भारतीय मीडिया ने पिछले एक दशक में गांधी परिवार को देशद्रोही साबित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा है। वजह यह कि सोनिया गांधी इतालवी मूल की हैं।
खैर, जब मल्लिकार्जुन खड़गे के नामांकन की बात आई तो यह कहकर उनका मज़ाक उड़ाया गया कि वह 80 वर्ष के हो गए हैं और थरूर के मुकाबले में वे कही नहीं ठहरते। मीडिया यह प्रचारित करने में लगे थे कि कांग्रेस के लिए शशि थरूर ही सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं और खड़गे को गांधी परिवार का मोहरा बता दिया गया।
दरअसल, यह भारतीय मीडिया का जातीय चरित्र ही है जो पार्टी के एक वरिष्ठ नेता को जिसने कर्नाटक विधान सभा में 1972 से लेकर 2009 तक लगातार 9 बार चुने जाने का रिकार्ड बनाया हो, 2014 से 2019 लोकसभा मे कांग्रेस के नेता रहा हो, और अध्यक्षीय पद के लिए चुनाव में नामांकन कराने से पहले तक राज्य सभा में विपक्ष का नेता हो, कमतर आंक रही थी। उसने उन्हें विचारहीन कठपुतली की तरह पेश किया। जबकि हकीकत यह है कि शशि थरूर को उनके ही गृह प्रदेश केरल में समर्थन नहीं मिला। यहां तक कि गांधी परिवार से नाखुश चले रहे जी-23 के अधिकांश नेताओं ने भी मल्लिकार्जुन खड़गे का ही समर्थन किया।
यह बात समझने की है कि ऐसा प्रपंच भारतीय मीडिया ने क्यों किया? क्या सवाल यह नहीं उठता है कि उसने ऐसा केवल आरएसएस और भाजपा को मजबूत करना है? इस सवाल के बाद एक सवाल यह भी कि यह एकपक्षीय मीडिया हर राजनीतिक दल में अपने किसी न किसी चहेते को घुसाना है। आम आदमी पार्टी आज इसी प्रकार का एक दल है।
अभी बहुत दिन नहीं हुए। समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के निधन पर उनकी महानता का गुणगान ब्राह्मणवादी मीडिया ने पूरे जोर-शोर से किया। इसससे साफ जाहिर है कि संघी उन्हें और उनकी विरासत पर दावा ठोकने लगेंगे।
दरअसल, कांग्रेस में भी एक बड़ा धड़ा विकसित हुआ, जो संघ के बहुत नजदीक था, लेकिन राहुल गांधी के स्पष्ट रूख से वे समझ चुके हैं कि यह आर या पार की लड़ाई है। मनुवादी मीडिया का कोई भी चहेता यदि किसी भी विपक्षी दल का नेता बनता है तो यह उस दल के लिए ही खतरा होता। कांग्रेस के प्रतिनिधियों ने मल्लिकार्जुन खड़गे को विजयी बना कर कांग्रेस की स्वायतत्ता बरकरार रखी, जो मनुवादी मीडिया के गले नहीं उतर रहा था।
अनेक तथाकथित विशेषज्ञ यह कह रहे थे कि थरूर से गांधी परिवार को भय है, क्योंकि वह ‘स्वतंत्र’ हैं और उनकी ‘छवि’ बहुत बड़ी है। उनके पास व्यापक अंतरराष्ट्रीय अनुभव भी है। ये ‘विशेषज्ञ’ जानते हैं कि थरूर नायर जाति के हैं जो है तो शूद्र समुदाय की एक जाति, लेकिन इस जाति लोग अपने-आपको उत्तर भारत के ठाकुरों के समान मानते हैं। थरूर की धर्म संबंधी अपनी सोच अपनी किताब ‘व्हाई आय ऍम अ हिंदू?’ में जगजाहिर कर चुके हैं। इससे यह तो साफ है कि सांप्रदायिकता के सवाल पर और भाजपा से लड़ने के सवाल पर वे हमेशा से ढुलमुल रहे हैं। थरूर ने अभी हाल ही में डॉ. आंबेडकर के ऊपर भी एक पुस्तक ‘आंबेडकर : अ लाइफ’ लिखी है। इसके संबंध में समीक्षकों की राय है कि इसमें वह वस्तुगतता नहीं है, जो एक विशेषज्ञ के तौर पर थरूर को शामिल करनी चाहिए थी।
इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि थरूर भारत में उस अभिजात्य वर्ग के प्रतीक हैं, जो आज राष्ट्रवाद के नारे उछाल रहा है। मीडिया में यह वर्ग सुर्खियों में रहता है, लेकिन सत्य से परे। लेकिन यह तो कहना ही होगा कि थरूर को 1000 से अधिक वोट मिलना और 450 से अधिक वोटों का अवैध घोषित होना कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती है। यह चुनौती इसलिए भी है कि थरूर और उनके तथाकथित उदार हिंदुत्व को चाहने वाले अभी भी कांग्रेस में हैं या फिर कांग्रेस के अंदर भी एक वर्ग हिंदुत्व की ताकतों के दवाब मे थरूर को समर्थन दे रहा था।
दूसरी ओर मल्लिकार्जुन खड़गे मात्र एक दलित नेता भर नहीं हैं। उनकी छवि एक आंबेडकरवादी बौद्ध धर्मावलंबी नेता की है, जो जनता से सीधे जुड़े रहे हैं। उन्हें एक बेहद सुलझा हुआ नेता माना जाता है। लंबे राजनैतिक जीवन मे खड़गे की जुबान कभी नहीं फिसली और सभी समुदायों के लोगों का उनके ऊपर विश्वास रहा है। कनार्टक के गुलबर्ग में उनके बनाए गए बुद्ध विहार में मुझे जाने का अवसर मिला है। यह आधुनिक स्थापत्य कला का आदर्श नमूना है। इसके अलावा भी कर्नाटक में उनके योगदानों व उनके द्वारा कराए गए कामों को याद रखते हैं।
खड़गे ने लोकसभा में 26 नवंबर, 2015 को कांग्रेस संसदीय दल के नेता के रूप में जो भाषण दिया था, वह आज भी अन्य सांसदों के लिए नजीर ही है। अपने भाषण में उन्होंने मजबूती से आर्यों के बाहर से आगमन का प्रश्न संसद मे उठाया था। हालांकि खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष बन जाने का यह मतलब कतई नहीं है कि कांग्रेस में गांधी परिवार का असर खत्म हो गया है या उसकी कोई सलाह नहीं लेगा। खड़गे स्वयं इस बात को जानते है कि कांग्रेस का आम कार्यकर्ता आज भी राहुल गांधी को अध्यक्ष पद पर देखना चाहता था और यह राहुल गांधी की जिद थी कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य अध्यक्ष नहीं बनेगा। इन दिनों राहुल गांधी इस समय 3700 किलोमीटर लंबी भारत यात्रा पर हैं और इस समय तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश को पार कर तेलंगाना में प्रवेश कर चुके हैं। दक्षिण के सभी राज्यों मे उनकी यात्रा को अभूतपूर्व जन समर्थन मिला है। यह इस बात का संकेत भी है कि लोग कांग्रेस पर भरोसा कर रहे हैं। उनकी इस यात्रा का असर कर्नाटक में होनेवाले चुनाव पर अवश्य दिखेगा।
इसके बावजूद कांग्रेस को जरूरत है कि वह अपने संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करे। मल्लिकार्जुन खड़गे के ऊपर सबसे बड़ी जिम्मेवारी यही होगी कि वे अपने दल में अनुशासन को मजबूत करें और हर कस्बे, मुहल्ले, जिले तथा राज्य मे पार्टी का ढांचा विकसित करें। उनके पास अनुभवी और युवा लोगों की कोई कमी नहीं है।
स्वयं खड़गे का संघर्ष बेहद अहम रहा है। 21 जुलाई, 1942 को गुलबर्ग में एक गरीब दलित परिवार (माला जाति) में पैदा हुए खड़गे ने सात वर्ष की उम्र में अपनी मां और बहन को अपने सामने हैदराबाद की रजाकार मिलिशिया (तत्कालीन निजाम के समर्थन में एक हिंसक समूह) के हाथों जिंदा जलते देखा। किसी तरह खड़गे के पिता उन्हे साथ लेकर गांव से छिपाते हुए बचाकर ले गए। इतने संघर्षों के बाद उन्होंने पढ़ाई की और वकालत करना शुरू की। इस दौरान वह मुख्यतः मजदूरों के लिए लड़ते रहे। वर्ष 1969 में वह गुलबर्ग शहर कांग्रेस समिति के अध्यक्ष बनाए गए। तब से उनकी संघर्ष यात्रा चलती रही और वह बेहद लोकप्रिय नेता रहे हैं। इसका प्रमाण यह है कि उन्होंने लगातार आठ बार एक ही विधानसभा क्षेत्र से विधायक पद का चुनाव जीता।
वैसे यह पहला अवसर नहीं है जब कांग्रेस का नेतृत्व किसी दलित के हाथ में है। बाबू जगजीवन राम और दामोदर संजीवय्या का नाम इस सूची में पहले से है। संजीवय्या देश के पहले मुख्यमंत्री थे, जो अनुसूचित जाति से आते थे और उन्होंने आंध्र प्रदेश में उल्लेखनीय काम किये। एक समय था जब कांग्रेस में अनुसूचित जाति के अनेक लब्ध प्रतिष्ठित नेता थे। इनमें जगन्नाथ पहड़िया, बूटा सिंह, टी. अन्जाइया, बी. श्याम सुंदर आदि। दामोदर संजीवय्या ने अपने मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में छह लाख एकड़ जमीन का वितरण भूमिहीन दलितों के बीच किया। वर्ष 1960 में उन्होंने दलितों के लिए आरक्षण 14 प्रतिशत से बढ़ाकर 17 प्रतिशत किया और पिछड़ों के लिए 25 प्रतिशत से बढ़ाकर 38 प्रतिशत किया। इस संबंध में 1961 मे उन्होंने एससी, एसटी और ओबीसी के लिए पदोन्नति में आरक्षण हेतु एक विधेयक राज्य विधानसभा मे पारित कराया था।
अब बात यदि कांग्रेस की करें तो इसने हमेशा दलित-ब्राह्मण-अल्पसंख्यकों का समीकरण बनाकर राजनीति की, जो लंबे समय तक चली। लेकिन मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने संबंधी वी. पी. सिंह के राजनैतिक फैसले के फलस्वरूप भाजपा के कमंडल के बीच कांग्रेस फंस गई। राजीव गांधी इन सवालों को ईमानदारी से जवाब नहीं ढूंढ पाए और उनके जीते जी ही देश मे दलितों, मुसलमानों और पिछड़ो का बड़ा तबका कांग्रेस से दूर हो गया। राजीव गांधी की हत्या के बाद, 1991 मे जब कांग्रेस पार्टी ने पी. वी. नरसिम्हा राव को कांग्रेस के नेता पद पर आसीन किया तो उम्मीद थी कि वह पार्टी को मजबूत करेंगे। लेकिन राव की चालाकी के चलते कांग्रेस और अधिक कमजोर हुई। अपनी सरकार बचाने के लिए उन्होंने न केवल समझौते किए अपितु संघ से उनके संबंधों के चलते 6 दिसंबर, 1992 को हिंदुत्ववादी के लठैतों ने बाबरी मस्जिद का असंवैधानिक तरीके से ध्वंस किया। राव ने अपनी पार्टी से अधिक आरएसएस पर भरोसा किया और नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस का सबसे मजबूत जनाधार उसके हाथ से बिल्कुल खिसक गया।
मंडलोपरांत राजनीति मे राव की सरकार ने वैश्वीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया, जिसके फलस्वरूप निजीकरण की प्रक्रिया को बहुत अधिक बढ़ावा मिला और आरक्षण की पूरी व्यवस्था पर सीधे चोट पड़ी। इस प्रकार नरसिम्हा राव की सरकार ने उत्तर भारत मे कांग्रेस को मटियामेट ही कर दिया।
आज कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती उत्तर प्रदेश और बिहार में हैं, जहां पार्टी को पुनर्जीवित करने के सभी प्रयास विफल हो चुके हैं। बिहार में तो वह राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के सहयोग से कुछ सीटें जीतने में कामयाब हुई है। लेकिन उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति बेहद खराब है। समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगा दी है। पहले दलित और ओबीसी क्रमश: सपा और बसपा से संबद्ध थे, लेकिन भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिए इन दोनों पार्टियों को मात दे दी है। वहीं कांग्रेस अभी तक ब्राह्मणों के सहारे ही उम्मीद लगाए बैठी थी। लेकिन धीरे धीरे उनकी समझ मे आ गया है कि बिना दलित, ओबीसी और मुस्लिम के साथ आए पार्टी आगे नहीं बढ़ सकती।
वर्तमान में उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बसपा के पुरानी नेता ब्रज लाल खबरी हैं और कांग्रेस पांच अन्य क्षेत्रीय अध्यक्षों के जरिए पार्टी दलित, ब्राह्मण, ओबीसी और मुसलमानों के बीच जाना चाहती है। उत्तर प्रदेश मे पार्टी का संघर्ष कठिन है लेकिन बहुत से लोगों को लग रहा है कि भाजपा और संघ का मुकाबला केवल कांग्रेस ही कर सकती है।
एक बात तो सत्य है कि मल्लिकार्जुन खड़गे के अध्यक्ष बनने के बाद और राहुल गांधी की भारत जोड़ों यात्रा की दक्षिण भारत मे सफलता के बाद कांग्रेस को दलितों के एक बड़े वर्ग का समर्थन मिलने की उम्मीद है। मुसलमानों का बड़ा तबका भी दक्षिण और अन्य राज्यों मे जहां कांग्रेस बड़ी पार्टी हैं, वहा कांग्रेस को ही चुनेगा। उत्तर प्रदेश मे स्थिति आज भी मुश्किल है क्योंकि दलितों का बड़ा वर्ग अभी भी बसपा के साथ है और वह इतनी आसानी से मायावती का साथ नहीं छोड़ने वाला। ओबीसी की बड़ी संख्या भाजपा और सपा के साथ रहने वाली है। मल्लिकार्जुन खड़गे की सबसे बड़ी चुनौती यही होगी कि क्या वह बाबू जगजीवन राम की तरह दलितों के बड़े वर्ग को कांग्रेस की तरफ खींच ला सकते है। यदि ऐसा हुआ तो वे कांग्रेस का देश की सत्ता के लिए रास्ता आसान कर सकते हैं। खड़गे का राजनैतिक और प्रसासनिक अनुभव बहुत बड़ा है और वे कांग्रेस को लाभ दिला सकते हैं। सभी गैर-भाजपाई दलों के नेताओं में उनके प्रति सम्मान है और वे कांग्रेस का अन्य दलों के साथ रिश्ते मजबूत कर सकते हैं। लेकिन कांग्रेस की केंद्रीय सत्ता में वापसी की शर्त यह है कि वह लोकसभा की 150 सीटें जीते और इसके लिए उत्तर प्रदेश और बिहार महत्वपूर्ण राज्य हैं। इसके लिए उसका उत्तर भारत में अपने पैरों पर खड़ा होना आवश्यक होगा।
क्या खड़गे ऐसा कर पाएंगे? यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि उनकी पार्टी के अन्य नेता उनका कैसा सहयोग करते हैं।
(संपादन : नवल/अनिल)