आखिरकार सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठने 3-2 के बहुमत के आधार पर संसद में बहुमत से पारित आर्थिक आधार पर सवर्ण गरीबों के लिए लिये गए फैसले पर वैधता की मुहर लगा ही दी। यह अकारण नहीं कि कुछ लोग बहुमत वाले कोर्ट के इस फैसले को बहुमत वाली संसद के पक्ष का निर्णय बतला रहे हैं तो कुछ समाजशास्त्री इसे सामाजिक न्याय की अत्येंष्टि कह रहे हैं।
दरअसल, केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने लोकसभा चुनाव से पहले 8 जनवरी, 2019 को लोकसभा में 103वां संविधान संशोधन बिल पेश किया और 14 जनवरी 2019 से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग से बाहर के सवर्ण जाति समूह के कमजोर लोगों के लिए दाखिले और सरकारी नौकरियों में दस फीसदी आरक्षण दिये जाने का फैसला लागू हो गया। इसके पहले इनके लिए न तो पिछड़े वर्ग की तरह काका कालेलकर या मंडल कमीशन की तरह कोई आयोग बनाया गया और न ही किसी तरह का अध्ययन ही किया गया। सीधे संसद से बहुमत के सहारे यह प्रस्ताव पारित करवा लिया गया।
सवर्ण आरक्षण और पिछड़ों के आरक्षण में यही फर्क है कि एक जाति समूह को इसे हासिल करने में जहां चालीस साल लग गए, वहीं दूसरे जाति समूह के लिए संसद से सुप्रीम कोर्ट तक एकमत हो गई। एक जाति समूह के लिए यही संसद/सुप्रीम कोर्ट जहां दुविधाओं का पहाड़ खड़ा करती रही, दूसरे के लिए उतनी ही उदार होकर अपनी ही बनाई सीमाओं को भी ध्वस्त करने में उसे कोई गुरेज नहीं रहा। व्यवस्था जनित यह विभेद आरक्षण के मूल उद्देश्य को स्पष्ट करने के लिए काफी है। आर्थिक आधार पर लिया गया आरक्षण का कोई भी फैसला अंततः संविधान विरोधी है और राष्ट्र विरोधी भी। भारत सरकार के इस निर्णय के विरूद्ध दर्जनों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और संगठनों की ओर से जनहित याचिकाएं दायर कर सुप्रीम कोर्ट में इस निर्णय को चुनौती दी गई थी, जिसका निर्णय गत 7 नवंबर, 2022 को आया। पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ में से इस फैसले के विरोध में रहे दो न्यायाधीश निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश यू.यू. ललित और जस्टिस रवींद्र एस. भट्ट ने इस संशोधन को वैध नहीं माना। उनका मानना था कि यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ़ है। उनका तर्क था कि इसमें एससी, एसटी और ओबीसी वर्गों से जुड़े गरीब शामिल नहीं हैं। इस लिहाज से यह फैसला न्यायपालिका के 70 वर्षों के इतिहास में सबसे विभेदकारी और बहिष्करण वाला है। उन्होंने यह भी इंगित किया कि इससे 50 फीसदी आरक्षण की सीमा का भी हनन होता है।
गरीबी उन्मूलन के लिए केंद्र और राज्य की बहुत सारी योजनाएं चलाई गई हैं और आगे भी चलाई जाती रहनी चाहिए। निश्चय ही इन योजनाओं का विस्तार किया जाना चाहिए और इन्हें कारगर तरीके से लागू किया जाना चाहिए, लेकिन आरक्षण का आधार जातिगत ही होना चाहिए, यही संविधान की मूल भावना रही है। यह भारत में ऐतिहासिक रूप ये जातिगत विषमता और वंचना को दूर करने का उपक्रम है। भारत जैसे देश में सदियों से जातिभेद की अमानवीय और विभेदकारी व्यवस्था कायम रही है। आजादी के बाद संविधान निर्माताओं ने बाबा साहब भीमराव आंबेडकर की अगुआई में इसकी कसौटी सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को माना था। बाबा साहब भी इसे चिरकाल तक कायम रखने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन उनका जो मूल उद्देश्य था, तंत्र में बैठे वर्चस्ववादी जातिवादियों ने सही ढंग से कार्यान्वित ही नहीं होने दिया।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से भारत की व्यापक बहुसंख्यक जनता आरक्षण को लेकर आशंकाओं से घिर गई है जबकि एक बेहद छोटी संख्या आह्लादित है। यह वही समूह है जिसने 1990 में वीपी सिंह सरकार द्वारा आरक्षण लागू किये जाने के निर्णय पर देशव्यापी हंगामा खड़ा किया था, यह वही समूह है जो तब आरक्षण को दूसरे की हकमारी मानता था। तब उसने पूरे देश को अशांति की आग में झोंक देने का हर एक तुरूप खेला था।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने बहुत सारी संभावनाएं और अवसर के द्वार भी खोल दिये हैं। पहले की तरह सीलिंग अब बाध्यता नहीं रही। आरक्षण की पूर्व निर्धारित 50 प्रतिशत की सीलिंग टूट गई है। मंडल कमीशन ने अपनी रपट में ओबीसी के लिए समानुपातिक आरक्षण की अनुशंसा की थी, लेकिन इस समूह को 27 प्रतिशत ही आरक्षण दिया गया और वास्तविकता यह है कि इतना भी आरक्षण व्यवहार के स्तर पर नहीं मिल पा रहा है। अब जबकि सीलिंग की सीमा टूट गई है तो हरेक वर्ग समूह को उनकी जनसंख्या के अनुपात में उनके लिए आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाया जाना चाहिए। जाति जनगणना उचित और पारदर्शी तरीके से की जानी चाहिए ताकि सभी जातियों का वास्तविक आंकड़ा इकट्ठा हो सके। ‘जिसकी जितनी संख्या भारी उसको उतनी हिस्सेदारी’ का फार्मूला सुनिश्चित हो सके। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से पूरे देश में एक बात की आकांक्षा जगी है कि सीलिंग बढ़ाई जाए। झारखंड में ओबीसी के लिए 14 प्रतिशत आरक्षण था, जिसे हेमंत सोरेन की सरकार ने 27 प्रतिशत कर दिया है।
बिहार में महागठबंधन की सरकार इस मोर्चे पर गंभीरता से काम कर रही है। यहां जाति जनगणना आरंभ हो चुकी है, जिसकी रिपोर्ट अगले साल के मई में आने की उम्मीद है। करीब-करीब यह तय है कि बिहार सरकार भी सीलिंग के दायरे को बढ़ाने और मंडल कमीशन की अनुशंसा के अनुरूप ओबीसी के लिए आरक्षण को बढ़ाने का उपयुक्त समय पर निर्णय लेगी। यहां यह भी उल्लेख करते चलें कि संविधान के 103वें संशोधन का एकमात्र सकारात्मक पक्ष यह है कि इसने निजी क्षेत्र में भी आरक्षण का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। अभी जब पूरे देश में सरकारी नौकरियां बिल्कुल सिमटती जा रहीं हैं, यह जरूरी है कि निजी क्षेत्र में आरक्षण का विस्तार करने वाले कानून लाने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाया जाए।
अतीत में, पिछड़े वर्गों के आरक्षण को लेकर केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों का रवैया शुरू से टालमटोल और यथास्थिति बनाये रखने का रहा है। कालेलकर आयोग से मंडल आयोग की यात्रा को देखें तो इनकी अनुशंसा के बाद भी कांग्रेस वर्षों कुंडली मारे बैठी रही। वीपी सिंह ने राजनीतिक दबाव में इसे लागू भी किया तो आधे अधूरे रूपों में। इसके उलट ईडब्लूएस पर संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जिस तीव्रता से सकारात्मक एप्रोच दिखलाया गया वह यह बतलाता है कि तंत्र में अभी भी वर्चस्वशाली समूह बहुत प्रभावी तरीके से जमें हुए हैं। अभी भी आरक्षण रोस्टर का सही ढंग से अनुपालन नहीं करने और आरक्षित रिक्त पदों के अनुरूप भर्तियां नहीं करने के लिए ये ही जवाबदेह रहे हैं।
आरक्षण की समय सीमा और उसके मूल्यांकन की बात कई मंचों से, जिसमें संघ प्रमुख मोहन भगवत से लेकर ईडब्लूएस के पक्ष में फैसला देने वाले न्यायधीश तक शमिल हैं, कई-कई बार अलग-अलग लोगों द्वारा उठाई जाती रही है, इसका परीक्षण प्रभावी तरीके से हो इसके लिए आजतक किसी दल या संगठन ने आवाज उठाई हो इसका उदाहरण नजर नहीं आता। उल्टे दलित ओबीसी में एक मध्यवर्ग पैदा होने की बात जोर-शोर से प्रचारित की जाती रही है। कुछ वर्ष पूर्व पटना से प्रकाशित होनेवाली एक पत्रिका ने ‘25 वर्षों में कितनी बदली पटना की सामाजिक संरचना’ नाम से एक शोधपरक आलेख प्रकाशित किया था। इस सर्वे में बिहार में सरकारी और प्राइवेट सेक्टर के कई विभागों में हिस्सेदारी के आंकड़े सामने रखे और पाया कि मंडल राज में किसी भी क्षेत्र में पिछड़ों की कोई भी निर्णायक बढ़त नही है। इस तरह के अध्ययन वर्चस्ववादी समूहों की बहुप्रचारित गोयबल्सीय झूठ को सामने लाता है और आरक्षण के सही कार्यान्वयन अभी भी नहीं होने को इंगित करता है। बदली हुई परिस्थितियों में समय का तकाजा है कि बिहार सरकार अपने पिछड़े-अति पिछड़े आयोगों को दिशा निर्देश दे, ताकि बिहार में जारी आरक्षण के सही आंकड़े सामने आयें और उसका उचित अनुपालन सुनिश्चित हो। साथ ही, मंडल आयोग की अन्य अनुशंसाओं को भी अमल में लाया जाए।
(संपादन : नवल/अनिल)
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