दलित साहित्य जगत में तेजपाल सिंह ‘तेज’ सुपरिचित हैं। उनका जन्म 1949 में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के एक छोटे से गांव अला बास बातरी के एक साधारण परिवार में हुआ। सातवीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते माता-पिता दोनों का साया उठ चुका था। दसवीं तक की शिक्षा बड़े भाई की देख-रेख में हुई। बारहवीं कक्षा खुद मेहनत-नजदूरी करके व कॉलेज के प्रधानाचार्य रामाश्रय शर्मा जी द्वारा प्रदत्त आर्थिक योगदान के चलते उत्तीर्ण की। 1969 में बारहवीं करने के बाद रोजगार की तलाश में दिल्ली आगमन हुआ। सबसे पहले दिल्ली परिवहन निगम में बस कंडक्टर बने। फिर इंप्लॉयज प्रोविडेंट फंड कमिश्नर आफिस में नौकरी की। इसके बाद 1974 में भारतीय स्टेट बैंक में टंकक-लिपिक के पद पर नियुक्त हुए। यह सब करते हुए तेजपाल सिंह ‘तेज’ ने मेरठ विश्वविद्यालय से 1977 में स्नातक की डिग्री प्राप्त की।
आजीवन बाधाओं से जूझते हुए तेजपाल सिंह ‘तेज’ ने अपनी सामाजिक, पारिवारिक और साहित्यिक जिम्मेदारियों का निर्वहन किया। विशेषकर साहित्यिक उपलब्धियों की बात करें तो उनकी अनेक ग़ज़लें, कविताएं, और विचार-विमर्श की लगभग दो दर्जन से भी अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें ‘दृष्टिकोण’, ‘ट्रैफिक जाम है’, ‘गुजरा हूं जिधर से’, ‘हादसों के शहर में’, ‘तूंफां की ज़द में’ तथा ‘चलते-चलते’ (सभी ग़ज़ल संग्रह), ‘बेताल दृष्टि’, ‘पुश्तैनी पीड़ा’ (कविता संग्रह), ‘रुन-झुन’, ‘खेल-खेल में’, ‘धमाचौकड़ी’, ‘खेल-खेल में अक्षर ज्ञान’ (बालगीत : दो खंड),’ कहां गई वो दिल्ली वाली’ (शब्द चित्र) के अलावा सात आलेख संग्रह – ‘शिक्षा मीडिया और राजनीति’, ‘ दलित-साहित्य और राजनीति के सामाजिक सरोकार’, ‘राजनीति का समाजशास्त्र’, ‘लोक से विमुख होता तंत्र’, ‘मौजूदा राजनीति में लोकतंत्र’, ‘राजनीति और मानवाधिकार के प्रश्न’ शामिल हैं। इनकी लघु नाटिका ‘कानया की वापसी’ खासी चर्चित रही है। इसके ऊपर टेलीविजन धारावाहिक बनाया गया।
तेजपाल सिंह ‘तेज’ द्वारा रचित विपुल साहित्य के अलावा अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी उल्लेखनीय है। इनमें ‘तेज’ साप्ताहिक पत्र, ‘ग्रीन सत्ता’ के साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका ‘अपेक्षा’ के उपसंपादक, ‘आजीवक विजन’ (पत्रिका) के प्रधान संपादक तथा ‘अधिकार दर्पण’ नामक त्रैमासिक पत्रिका के वे संपादक रहे हैं। हिंदी-साहित्य में योगदान के लिए इन्हें हिन्दी साहित्य अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से नवाजा गया।
हाल ही उनकी आत्म कथा “बियॉंड पैराडाइम” शीर्षक से दो भागों में प्रकशित है। इससे एक दलित रचनाकार की रचनाधर्मिता और समाज क प्रति उनकी प्रतिबद्धता सामने आती है। आत्मकथा के पहले भाग में वे लिखते हैं कि उनके लालन-पालन का भार उनकी भाभी ने उठाया, इसलिए वे अपनी भाभी को “भाभी मां” का दर्जा देते हैं। इसके अलवा उन्होंने अपने प्रेम-प्रसंगों को कुछ अलग ही अंदाज में दर्ज किया है। एक को कविता के रूप में तो दूसरे को कहानी के रूप में व्यक्त किया है।
आत्मकथा के दोनों खंडों की विषय-वस्तु अलग-अलग हैं। पहले भाग में पारिवारिक और साहित्यिक सफर का तो दूसरे भाग में पत्रकारिता और समाज के प्रति दायित्व का उल्लेख है। आमतौर पर सरकारी कर्मचारी अपने आसपास हो रही अनियमितताओं या समस्याओं पर चुप्पी साधे रखता है। लेकिन तेजपाल सिंह ‘तेज’ इस मामले में अपवाद हैं। एक बार उन्होंने देश के प्रधानमंत्री रहे चंद्रशेखर तक की शिकायत मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टी. एन. शेषन को कर दी थी। ये अटल बिहारी वाजपेयी के बुद्धिस्टों को आरक्षण के विरोध पर भी चुप नहीं बैठे। गौरतलब है कि आत्मकथा व्यक्ति की निजता के शब्द चित्रण से जब समाज यानी परिवेश को समाहित कर लेते हैं तो इसे आत्मवृत्त कहा जाना चाहिए। लेखक का आग्रह भी इसे आत्मवृत्त कहे जाने का है। जब हम ‘तेज’ साहब के ‘बियोंड पैराडाइम’ के दोनों भागों को एक साथ जोड़कर देखते हैं तो आत्मवृत्त का उत्कृष्ट रूप से हमारा साक्षात्कार होता है।
तेजपाल सिंह ‘तेज’ का डॉ. आंबेडकर की विचारधारा से प्रभावित होना किसी से छिपा नहीं है। वे उनके विचारों और उनसे जुड़ी संस्थाओं की कार्यप्रणाली पर भी बारीक नजर रखते हैं। वे उनके विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए निरंतर अपनी कलम चलाते रहे। वे दलित साहित्य के प्रोत्साहन के लिए गोष्ठियां भी कराते रहे। समाज में मौजूद कुरीतियों के निवारण के लिए समस्याओं को अनदेखा करने के बजाय उन्हें सार्वजनिक करने के पक्षधर रहे हैं।
लेखक स्वयं स्वीकार करते हैं– “मेरे जीवन की कहानी किसी एक वक्त की कहानी नहीं, बिखरी हुई कहानियां हैं। जीवन में न जाने कितने पड़ाव आते हैं … बाल्यकाल, बचपन, यौवनावस्था और आखिर बुढ़ापा … सबको इन हालातों से गुजरना होता है।… मेरी कोशिश रही है कि मैं अपनी कहानी को परत-दर-परत खोलता हुआ अपने जीवन के हल्के-फुलके, ज्ञात-अज्ञात, अनछुए पहलुओं को शब्दबद्ध करूं। सच्चाई एवं जीवन की यथार्थ स्थिति का बोध कराऊं। … मेरी यह कहानी कुछ ऐसे समय में लिखी जा रही है जबकि आज समग्र दृष्टि से भारतीय समाज में ही नहीं, अपितु विश्व पटल पर भी आए दिन मानवता पर नाना विधि से हमले जारी हैं। कहीं ऐसे हमलों का कारण आर्थिक है तो कहीं धार्मिक। आर्थिक और धार्मिक आतंक में जो खास अंतर है, वह है – शोषण और दमन का। सो ऐसे परिवेश का प्रभाव पड़ने की पूरी आशंका है।”
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि इनके दोनों आत्मवृत्त इसलिए भी पठनीय हैं कि कोई भी व्यक्ति किसी भी मुद्दे पर अपनी आवाज बुलंद कर सकता है। उसे अपने अधिकार हासिल करने के लिए किसी अधिकारी के पद या किसी राजनेता से डरने की जरूरत नहीं है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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