जहां हर बार नये साल की तारीख यानी 1 जनवरी को उत्सव के रूप में मनाया जाता है, वहीं झारखंड के सरायकेला जिले के खरसवावां में एक जनवरी काला दिवस (शोक दिवस) के रूप में मनाया जाता है। इसके पीछे इतिहास यह है कि आजादी के मात्र साढ़े चार महीने बाद ही पहली जनवरी 1948 में खरसावां हाट बाजारटांड़ में पुलिस फायरिंग में बड़ी संख्या में आदिवासी मारे गए थे। जिसे आजाद भारत का जालियावाला बाग हत्याकांड की संज्ञा दी गई है। इस घटना के बाद से क्षेत्र के आदिवासी समुदाय में शहीद स्थल पर शहीदों को श्रद्धांजलि देने की ही परंपरा शुरू हुई जो अब तक चलती आ रही है। लेकिन पिछले कुछ सालों से यह पिकनिक स्पॉट के रूप में विकसित हो रहा है। वहीं दूसरी तरफ इस शहीद स्मारक स्थल पर राजनीतिक हस्तक्षेप भी बढ़ा है और इसके कारण शहीद स्थल के रूप में इसकी मूल पहचान खत्म होती जा रही है।
बताते चलें कि पिछले वर्ष 1 जनवरी, 2022 को यहां शहीद स्थल पर श्रद्धांजलि देने के क्रम में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इसे विश्वस्तरीय पर्यटन स्थल बनाने हेतु 16 करोड़ के बजट की भी घोषणा की थी।
करीब पांच साल पहले 1 जनवरी, 2017 को जब तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास द्वारा शहीदों को श्रद्धांजलि देने आए थे तो न केवल विरोध स्थानीय आदिवासियों के द्वारा किया गया, बल्कि उनपर जूते-चप्पल भी फेंके गये।
खरसावां शहीद स्थल के बारे में विस्थापित मुक्ति वाहिनी, झारखंड के एक कार्यकर्ता घनश्याम कहते हैं कि “शहीद स्थल राजनीतिकरण का शिकार हो रहा है, जिसके कारण आने वाले दिनों में संभव है कि शहीद स्थल पूरी तरह पिकनिक स्पॉट व मनोरंजन का केंद्र बन जाए। वैसे काफी समय से यह स्थिति देखने को मिल रही ही है। नयी पीढ़ी शहीद स्थल को मनोरंजन का केंद्र समझने लगी है, जिससे बुजुर्गों को काफी दुख हो रहा है।”
वहीं, आदि संस्कृति विज्ञान संस्थान के केंद्रीय अध्यक्ष दामोदर सिंह हांसदा की मानें तो “पहले शहीद स्थल के आसपास के गांव के लोग खासकर नौजवान एक जनवरी को यहां केवल पिकनिक मनाने और मनोरंजन करने के उद्देश्य से आते थे। डीजे बजाना और उसके धुन पर डांस करना ही उनका मकसद होता था। यह प्रक्रिया लगभग पिछले दो दशक से चल रही थी। ऐसे में संस्थान की तरफ से हमलोगों द्वारा इस तरह की हरकत का विरोध किया जाता रहा, कमोबेश पिकनिक वाला मनोरंजन और गैर-आदिवासी संस्कृति पर बैन तो लगा है, लेकिन डीजे के प्रभाव को नहीं रोका जा सका है। दूसरी तरफ शहीद स्थल के बगल में स्थित नदी को युवा वर्ग आज भी पिकनिक स्पॉट बनाकर रखा है। दूरदराज के लोग भले ही शहीद स्थल को काला दिवस के रूप में देखते हैं, लेकिन कई स्थानीय लोग मनोरंजन का दृष्टिकोण अपनाए हुए हैं, जो दुर्भाग्यपूर्ण है।”
वहीं सामाजिक कार्यकर्ता शिवचरण हांसदा कहते हैं कि “पर्यटन स्थल बनने से काला दिवस का महत्व नहीं रह पाएगा और धीरे-धीरे एक जनवरी सामान्य दिनों में शामिल हो जाएगा। वैसे अभी तक ऐसी स्थिति नहीं आई है। लेकिन इतना तो देखने को जरूर मिल रहा है कि जहां एक तरफ एक जनवरी को काला दिवस मनाया जाता है तो दूसरी तरफ कुछ लोग पिकनिक के तौर पर भी इस दिन मनोरंजन करते हैं। एक तरह से यह शहीदों का अपमान है।”
(संपादन : नवल/अनिल)
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