लेखक : सावित्रीबाई फुले
अनुवादक : उज्ज्वला म्हात्रे
भूमिका : प्रो. हरी नरके
मूल्य : 220 रुपए (अजिल्द)
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“उद्योग दो तरह के होते हैं। एक वह, जिसमें बुद्धि का भी इस्तेमाल होता है और दूसरा, वह जिसमें बुद्धि का बिल्कुल प्रयोग नहीं करना पड़ता। पढ़ना यह भी एक उद्योग है, जिसमें आंख और कान जैसे इंद्रियों के अलावा बुद्धि का प्रयोग करना जरूरी होता है। ‘दे दो माई, रोटी दे दो’ ऐसे चिल्लाते हुए भीख मांगना भी एक उद्योग है, लेकिन इसमें बुद्धि का प्रयोग नहीं होता। कुछ उद्योग जिनमें हाथ-पैर इत्यादि का इस्तेमाल होता है, उनमें साथ-साथ बुद्धि की भी जरूरत होती है।”
(पुस्तक में संकलित सावित्रीबाई फुले के भाषण ‘उद्योग’ से उद्धृत)
“किसी अमरूद के बगीचे में अगर पेड़ों को गर्मी झेलने के बाद खाद-पानी दिया जाए तो वह बाग जिस तरह से खिल उठता है, ठीक उसी तरह से शूद्रातिशूद्रों ने जो ताप झेला है, उसके बाद जब उन्हें अंग्रजों के शासन में विद्यारूपी खाद-पानी मिलेगा, तब वे भी उसके बलबूते खिल उठेंगे। उसके बाद धूर्त-पाखंडी आर्य भट सपने में भी मांग, कुनबी, मराठा, माली इत्यादि जातियों को शूद्र कहने की हिम्मत नहीं कर पाएंगे।”
(पुस्तक में संकलित सावित्रीबाई फुले द्वारा संपादित जोतीराव फुले के भाषण ‘इतिहास’ से उद्धृत)
“सावित्रीबाई ने जीवनपर्यंत जोतीराव को जिस तरह संबल, सहयोग और साथ दिया वह असाधारण और अतुलनीय था। पुरुषों और महिलाओं की समानता और दोनों के शांतिपूर्ण सहचर्य का जो आदर्श फुले दंपत्ति ने प्रस्तुत किया, वह काल और स्थान की सीमाओं से परे है। दोनों ने शिक्षा, सामाजिक न्याय, जाति उन्मूलन और पुरोहित वर्ग के प्रभुत्व का अंत करने के लिए जो सघन प्रयास किये, वे अतीत में तो महान थे ही, आज भी हमें रास्ता दिखलाते हैं।”
(पुस्तक में संकलित प्रो. हरी नरके द्वारा लिखित भूमिका से उद्धृत)
“सावित्रीबाई फुले के साहित्य का यह संकलन ‘काव्यफुले’ (1854) से शुरू होता है, जिसके प्रकाशन के समय वे मात्र 23 वर्ष की थीं और इसका अंत ‘बावन्नकशी सुबोध रत्नाकर’ (1892) से होता है। इन दो अवधियों की रचनाओं के बीच उनके पत्र और भाषण हैं। अपने इस लेखन के जरिए उन्होंने स्वयं के मुक्तिकामी सफर को कलमबद्ध किया और उनका यह सफर एकांगी न होकर अपने-आप में वृहत्तर समाज की मुक्ति का सफर था।”
(पुस्तक में संकलित प्रकाशकीय से उद्धृत)
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