जिस तरह से संसद की बैठकें स्थगित हो रही हैं, यह साफ है कि लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है। लोकतंत्र में प्रतिपक्ष का अहम स्थान होता है। यदि उसे बोलने का अवसर नहीं दिया जा रहा है तो इसका मतलब साफ है कि आप लोकतंत्र काे अपनी शैली में कमजोर कर रहे हैं।
पूरे मसले को वैश्विक स्तर पर देखे जाने की भी आवश्यकता है। पूरी दुनिया में अनेक रूपों में लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। नायक राजनेताओं का भी अभाव है। जहां कभी लेनिन रहे, वहां पुतिन का शासन है। जहां माओ रहे, वहां आज शी जिनपिंग का राज है। आप पूरी दुनिया में देखें कि लोकतंत्र के साथ किस तरह का व्यवहार किया जा रहा है। भारत भी इसी विश्व का हिस्सा है और यहां भी इसके मूल्यों में ह्रास को देखा जा सकता है।
पूरे संदर्भ को समझने की आवश्यकता है। निर्विवाद सत्य है कि पूरी दुनिया में आवारा पूंजी का प्रभाव बढ़ा है और जब आवारा पूंजी, जो पूंजीवाद का एक विकृत रूप है, का प्रभाव बढ़ता है तो समाज और राजनीति में वैचारिक और नैतिक गिरावट होती ही है। इसे जन सामान्य के स्तर पर समझा जाना चाहिए कि यदि किसी व्यक्ति के पास आवारा पूंजी हो तो वह शराब पीकर या फिर अन्य गैर-जरूरी कार्यों में उसका अपव्यय करने लगता है। इसलिए आप देखें कि दुनिया के सभी धर्मों में उपवास वगैरह का प्रावधान किया गया है ताकि आदमी अर्जित अभावों के बीच अपनी नैतिकता को समझे। दुःख हमें मांजता है, सिखाता भी है। इसलिए अविरल सुख की कामना विचारकों ने नहीं की है।
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आज वैश्विक स्तर पर आवारा पूंजी का प्रभाव बढ़ा है तो इसका असर राजनीति और साहित्य पर भी देखा जा सकता है। आज आप किसी भी ज़ुबान का साहित्य उठाकर देख लें, आपको उसमें लोकतंत्र का अभाव दिखेगा। व्यक्तिपरक साहित्य और व्यक्तिपरक अथवा संकीर्णमना राजनीति वर्तमान की अहम परिघटनाएं हैं। इसे भी लोकतंत्र के साथ देखा जाना चाहिए।
दरअसल, आज हम जिस दौर में जी रहे हैं, आम लोगों के लोकतांत्रिक सरोकार कमजोर हुए हुए हैं। लोगों को इससे कोई मतलब नहीं है कि संसद चल रहा है या नहीं चल रहा। यह सब इस कारण से ही है कि आवारा पूंजी ने आमजनों को सुविधाभोगी और सीमित सोच का बना दिया है।
रही बात भारत में लोकतंत्र की तो यह केवल आज नहीं हुआ है। तब भी खतरे में था जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया था और आज नरेंद्र मोदी के राज में भी यह खतरे में है। आप देखें कि कैसे आपातकाल के दौरान ही चुनाव की घोषणा करने से ठीक पहले इंदिरा गांधी ने संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद जोड़ा। सवाल यह नहीं है कि प्रस्तावना में आपने सकारात्मकता को जोड़ा या फिर नकारात्मकता को। आपकी नीयत क्या थी? चुनाव की घोषणा के ठीक पहले आपने ऐसा क्यों किया था। क्या नेहरू समाजवादी नहीं थे और क्या डॉ. आंबेडकर से समाजवाद की अच्छी समझ इंदिरा गांधी के पास थी?
जाहिर तौर पर इन सवालों का जवाब नहीं है। लेकिन यह किया गया। वह एक दौर था। आप उस दौर को याद करें जब इस देश में संजय गांधी मार्का राजनीति हुई। हालांकि वह राजनीति आज की राजनीति के मुकाबले कम आक्रामक और निरंकुश थी। लेकिन पतन तो शुरू हो ही गया था न! आप देखें कि उस दौरान हुआ क्या? मैं तो बिहार का उदाहरण देता हूं। 1980 में जनता पार्टी की सरकार के पतन के बाद बिहार में दस साल तक कांग्रेस का राज रहा। इस दौरान पांच मुख्यमंत्री कांग्रेस ने बदले। इनमें दो ही जातियों के लोगों को मुख्यमंत्री बनाया गया। एक ब्राह्मण और दूसरे राजपूत। कांग्रेस का यह जातिवादी स्वरूप पहले नहीं था। इसकी प्रतिक्रिया हुई। वहां 1990 के बाद से सवर्ण सत्ता के शीर्ष से दूर हैं और फिर केवल दो जातियों यादव और कुर्मी के ही मुख्यमंत्री बन सके हैं। इस बीच मांझी समुदाय के एक व्यक्ति को मौका भी दिया गया, लेकिन उससे यह पद उसी तरह छीन लिया गया, जैसे हिंदू धर्म ग्रंथों के एक मिथक राहू के साथ किया गया। राहू ने छल से अमृत चख लिया था, लेकिन देवताओं ने उसका गला अमृत गले से नीचे उतरने के पहले ही काट डाला था।
जाति की राजनीति कांग्रेस ने शुरू की। आप कांग्रेस को ही देखिए। क्या यह वही कांग्रेस थी, जो पहले थी। मैं एक बार फिर से बिहार की ही राजनीति का उदाहरण देता हूं। आप देखिए वह कांग्रेस ही थी, जिसकी सहायता से बी,पी. मंडल मुख्यमंत्री बने। वह कांग्रेस ही थी, जिसने दारोगा प्रसाद राय, भोला पासवान शास्त्री और अब्दुल गफुर को मुख्यमंत्री बनाया।
दरअसल कांग्रेस की अवनति का अहम कारण वैचारिक और नैतिक ह्रास है। जब आप वैचारिकता और नैतिकता का परित्याग करते हैं तो आपका ह्रास होना निश्चित है। कांग्रेस के पतन के लिए केवल परिवारवाद को मैं जिम्मेदार नहीं मानता। आप यह देखें कि 1990 से लेकर 1998 तक कांग्रेस के शीर्ष पद पर नेहरू परिवार का कोई सदस्य नहीं था। लेकिन हुआ क्या? बाबरी विध्वंस से लेकर वैश्वीकरण तक सब कुछ कांग्रेसी हुकूमत के दौरान ही सामने आया। क्या वे वजहें नहीं हैं लोकतंत्र के कमजोर होने की?
कुल मिलाकर बात यह है कि लोकतंत्र को कमजोर कांग्रेस ने भी किया और अब नरेंद्र मोदी की हुकूमत भी कर रही है। कांग्रेस ने यह काम धीरे-धीरे किया तथा नरेंद्र मोदी की हुकूमत तेजी से कर रही है। इसमें कोई शक नहीं है कि संसद काे कमजोर कर लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि पहले लोकतांत्रिक विचार समाज में स्थापित हो। लेखक राजेंद्र यादव भी कहा करते थे कि देश में लोकतांत्रिक संस्कृति का अभाव है। जब तक यह नहीं होगा, लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकेगा। हुकूमतें ऐसे ही लोकतंत्र को कमजोर करती रहेंगीं।
(संपादन : नवल/अनिल)
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