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संघी रंग में रंगा जेएनयू, ‘अभिमन्यु’ पर जोर

अगर गर्भवती स्त्री के कुछ भी पढ़ने से गर्भ में पलने वाला शिशु उसे सुनकर सब याद कर लेता है, तो गर्भवती स्त्रियों के समक्ष गीता और रामायण ही क्यों, इंजीनियरिंग, चिकित्सा और विज्ञान की किताबों का भी पाठ करना चाहिए, ताकि मां के पेट से ही बच्चा इंजीनियर, डाक्टर और वैज्ञानिक बनकर पैदा हो। फिर इंजीनियरिंग, चिकित्सा और विज्ञान के शिक्षा-संस्थान खोलने की भी क्यों जरूरत पड़ेगी? पढ़ें, कंवल भारती की प्रतिक्रिया

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने एक और पाखंड की घोषणा की है। दैनिक हिंदी ‘अमर उजाला’ (7 मार्च, 2023) में छपी खबर के अनुसार, राष्ट्रीय आरएसएस की महिला शाखा संवर्द्धिनी न्यास ने गर्भवती महिलाओं के लिए ‘गर्भ-संस्कार’ अभियान शुरू किया है। इसके माध्यम से आरएसएस गर्भवती महिलाओं को गीता और रामायण का पाठ करवाकर गर्भ में पल रहे बच्चों को संस्कारवान बनायेगा। राष्ट्रीय संगठन सचिव माधुरी मराठे ने बताया है कि इस अभियान से स्त्री रोग विशेषज्ञों, आयुर्वेदिक डाक्टरों और योग प्रशिक्षकों को भी शामिल किया जाएगा। खबर में यह भी कहा गया है कि पिछले रविवार (यानी 5 मार्च) को न्यास ने जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) में कार्यशाला आयोजित की थी, जिसमें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के कई रोग विशेषज्ञों ने भी भाग लिया था।

यह भारत का दुर्भाग्य है कि पाखंड और अन्धविश्वास की ऐसी कार्यशाला का आयोजन उस जेएनयू में हुआ, या किया गया, जो मार्क्सवादी विद्या का केंद्र माना जाता है। इससे यह तो स्पष्ट हो ही गया कि भाजपा और आरएसएस जेएनयू का भगवाकरण करके ही दम लेंगे। पर, एक सवाल यह जहन में आता है कि जिस हिंदू राष्ट्र का डंका पीटा जा रहा है, और साधु-संत गला फाड़-फाड़कर भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की मांग कर रहे हैं, क्या वह हिंदू राष्ट्र इसी तरह के पाखंड और अंधविश्वास पर खड़ा होगा?

दूसरा सवाल यह जहन में उभरता है कि एम्स के ये कौन से डाक्टर और स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं, जिनके दिमागों में डाक्टरी करने के बाद भी गाय का गोबर भरा हुआ है, और जो इस अवैज्ञानिक विचार को प्रमाणित कर रहे हैं कि गर्भ में पलने वाला शिशु बाहर की बातें सुनकर संस्कार ग्रहण करता है? ये कौन से दिमाग से पैदल डाक्टर हैं, जो इस तरह की झूठी कपोल-कल्पित कहानियों में विश्वास करते हैं, जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है? निश्चित रूप से ये आरएसएस की गोबर-बुद्धि रखने वाले डाक्टर ही होंगे, जो अभिमन्यु की इस झूठी कहानी में आस्था रखते हैं, कि उसने मां के गर्भ में ही चक्रव्यूह को तोड़ना सीख लिया था? और चक्रव्यूह के अंतिम द्वार को तोड़ने की कला वह इसलिए नहीं सीख पाया था क्योंकि तब तक उसकी मां को नींद आ गई थी? अगर गर्भवती स्त्री के कुछ भी पढ़ने से गर्भ में पलने वाला शिशु उसे सुनकर सब याद कर लेता है, तो गर्भवती स्त्रियों के समक्ष गीता और रामायण ही क्यों, इंजीनियरिंग, चिकित्सा और विज्ञान की किताबों का भी पाठ करना चाहिए, ताकि मां के पेट से ही बच्चा इंजीनियर, डाक्टर और वैज्ञानिक बनकर पैदा हो। फिर इंजीनियरिंग, चिकित्सा और विज्ञान के शिक्षा-संस्थान खोलने की भी क्यों जरूरत पड़ेगी?

जेएनयू में आयोजित ‘गर्भ संस्कार’ अभियान का एक दृश्य

लेकिन चूंकि इस पाखंड का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, और धर्मग्रंथों में ब्राह्मणों द्वारा गढ़ी गईं कहानियों के सिवा, इस यथार्थ जगत में उसका एक भी जीता-जागता उदाहरण नहीं मिला है, इसलिए यह जानते हुए भी आरएसएस की गोबर-बुद्धि इस तरह के पाखंड रचती है, और दुनिया के सामने स्वयं को हास्यास्पद बनाती है। मगर सबसे बड़ी हैरत यह है कि भारत का बौद्धिक माना जाने वाला ब्राह्मण समुदाय इस तरह के पाखंडों की निंदा क्यों नहीं करता? भारत का हिंदू वैज्ञानिक वर्ग भी मौन रहकर इस पाखंड का समर्थन क्यों करता है? और क्यों राष्ट्रीय अख़बारों में इस तरह के पाखंड के खंडन में न संपादकीय लिखे जाते हैं, और न लेख छापे जाते हैं? यह दुखद है कि भारत का मार्क्सवादी, गांधीवादी, आर्यसमाजी, समाजवादी, कोई भी वादी इस पाखंड का विरोध नहीं करता।

आखिर क्यों? इस क्यों का जवाब मुश्किल नहीं है, अगर आप यह जान लें कि अंधविश्वास और पाखंड ही ब्राह्मण धर्म को सुरक्षित रखते हैं। खबर के अनुसार संवर्द्धिनी न्यास की योजना कम से कम एक हजार महिलाओं को अपने अभियान से जोड़ने की है। ये एक हजार महिलाएं ब्राह्मण और अन्य द्विजों की नहीं होंगी, बल्कि इस अभियान में जिन गर्भवती महिलाओं को जोड़ा जाएगा, वे दलित, पिछड़ी और आदिवासी महिलाएं होंगी। उनको गीता और रामायण पढाने का मतलब है, उन्हें ब्राह्मण-भक्त, रामभक्त और हिंदुत्व का समर्थक बनाना। गर्भ में पलने वाले बच्चे की ख़ाक भी समझ में नहीं आता कि कौन क्या पढ़ रहा है या पढ़ा रहा है। गर्भवती महिला घर में अपनी सास, ननद और पति से दिनभर बोलती-बतलाती है। क्या गर्भस्थ शिशु उस भाषा या बातचीत को समझ पाता है? अगर समझ पाता, तो गर्भ से बाहर निकलते ही अपने घर की भाषा बोलने लगता। वह जानवर का बच्चा नहीं है, जो पैदा होते ही अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है, और चलना शुरू कर देता है, और बोलना भी। यह इंसान का बच्चा है, जो गर्भ से मांस के लोथड़े की शक्ल में बाहर आता है, असहाय अवस्था में। वह न खड़ा होना जानता है और न बोलना। अगर घर-परिवार उसको पाले-पोसे नहीं, तो वह चलना-बोलना तो दूर, बैठना भी नहीं सीख पायेगा। अच्छी परवरिश के बाद ही वह चलना-बोलना सीख पाता है, और उसमे भी दो-ढाई साल लगते हैं। गीता और रामायण या ब्राह्मण के किसी भी मंत्र या ग्रंथ में इतनी ताकत नहीं कि वह नवजात शिशु को, गर्भ में तो छोड़ो, गर्भ के बाहर भी, चलना-बोलना सिखा दे। एक भी उदाहरण न तो माधुरी मराठे दे सकती हैं, और न आरएसएस का, अपने को दिव्य शक्तिमान समझने वाला कोई पंडित, कि किस हिंदू या ब्राह्मण परिवार में किस शिशु ने गर्भ में सुनी बातों को बताया हो। फिर ये लोग अपने दिमाग में भरा अंधविश्वास का गोबर क्यों नहीं निकालते?

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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