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मिहनतकशों के साहित्यकार रेणु

रेणु ने हिंदी में रिपोर्ताज विधा को जिस शिखर पर पहुंचाया, उसकी बराबरी आज तक कोई नहीं कर सका है। अपने पहले ही रिपोर्ताज ‘बिदापत नाच’ में उन्होंने दलित समाज की गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत की पहचान कराते हुए नृत्य कला के आचार्य उदयशंकर को प्रश्नांकित किया और सामंती शोषण को भी बेनकाब किया। बता रहे हैं मो. दानिश

फणीश्वरनाथ रेणु (4 मार्च, 1921 – 11 अप्रैल, 1977) पर विशेष

किसी भी रचनात्मक क्षेत्र में अपने समकालीनों के बीच एक प्रतिमान के रूप में प्रतिष्ठित हो पाना दुर्लभ उपलब्धि मानी जाती है। हिंदी के युगांतकारी रचनाकार फणीश्वरनाथ रेणु ने इस दुर्लभ उपलब्धि का वरण किया था। 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया जिला (तत्कालीन पूर्णियां) के औराही हिंगना गांव में जन्मे रेणु की इस दुर्लभ उपलब्धि की तस्दीक निर्मल वर्मा की इस टिप्पणी से की जा सकती है, जिसमें उन्होंने रेणु के अतुलनीय आभामंडल को रेखांकित करते हुए लिखा है–

“मैं जिन लोगों को ध्यान में रखकर लिखता था, उनमें रेणु सबसे प्रमुख थे। … कुछ लोग हमेशा हम पर सेंसर का काम करते हैं – सत्ता का सेंसर नहीं, जिसमें भय और धमकी छिपी रहती है – किंतु एक ऐसा सेंसर, जो हमारी आत्मा और ‘कांशियंस’, हमारे रचना कर्म की नैतिकता के साथ जुड़ा होता है। रेणु जी का होना, उनकी उपस्थिति ही एक अंकुश और वरदान थी।” 

उपरोक्त उद्धरण का महत्त्व इस बात से और बढ़ जाता है कि इसके उद्गाता समकालीन हिंदी कथा साहित्य के कद्दावर हस्ताक्षर और विश्व साहित्य के गहना अध्येता निर्मल वर्मा हैं। ऐसे व्यक्ति के द्वारा देशज अस्मिता के पुरोधा रेणु को ‘संत लेखक’ के रूप में याद करना रेणु के सार्वकालिक महत्त्व को उजागर करने के लिए पर्याप्त है। निर्मल वर्मा के अलावा रघुवीर सहाय और अज्ञेय ने भी उनकी रचनात्मक प्रतिबद्धता और जनपक्षधरता को प्रेरणास्रोत के रूप में स्वीकारा है। 

अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर रेणु के साहित्य में ऐसा क्या है, जिसने उन्हें इस कदर मकबूल और मशहूर बना दिया कि न केवल समकालीन लेखक उनके मुरीद बन गए, बल्कि आम पाठकों तक में उनके लेखन का सम्मोहन आज भी बरकरार है। इसका जवाब इस स्थापना के साथ दिया जा सकता है कि रेणु शब्द और कर्म की एकता के हामी थे। उन्होंने जो भी लिखा उसका प्रत्यक्ष जुड़ाव ‘धरतीपुत्रों’ की जीवनस्थितियों, विसंगतियों, संघर्षों, उल्लासों और प्रमादों से है। वे हिंदी के पहले ऐसे कलमकार हैं, जो ‘प्राणों में घुले हुए रंग’ और ‘मन के रंग’ अर्थात मानवीय भावों के राग-विराग और प्रेम को, दुःख और करुणा को अपने साहित्य में एक साथ लेकर आत्मा के शिल्पी के रूप में चित्रित करते हैं। 

रचनात्मक लेखन के क्षेत्र में रेणु का पदार्पण सन् 1944 में महज 23 साल की उम्र में हुआ था। इसी साल उनकी पहली कहानी ‘बटबाबा’ का प्रकाशन विश्वामित्र (कलकत्ता) में हुआ। आम तौर पर किसी भी लेखक की आरंभिक कहानी उपेक्षित रह जाती है। रेणु के साथ भी यही हुआ, लेकिन दुनियाभर में उत्पन्न पर्यावरणीय संकट के मद्देनजर पर्यावरण संरक्षण पर बढ़ते विमर्शों और ‘इको लिटरेचर’ की जोर पकडती चर्चाओं के बीच ‘बटबाबा’ पुनर्पाठ की मांग करती है, क्योंकि इस कहानी का कथ्य भी मूल रूप से पर्यावरण संरक्षण पर ही केंद्रित है। इस कहानी का नायक वर्षों पुराना बरगद का एक पेड़ है, जिसे ग्रामीण सम्मानपूर्वक ‘बटबाबा’ कहते हैं। इससे ग्रामीणों का इतना गहरा अनुराग है कि पर्व, त्यौहार, आरजू, मन्नत, दुख, सुख, बैठकी जैसे तमाम क्रियाकलाप इसी के इर्द-गिर्द संपादित होते हैं। सांस्कृतिक अस्मिता का प्रतीक बन चुके इस पेड़ के सूख जाने पर जमींदार जलावन की कमी को पूरा करने के लिए ‘बटबाबा’ को काटने का आदेश देता है। इस खबर से पूरे गांव में शोक की लहर फ़ैल जाती है। 

फणीश्वरनाथ रेणु (4 मार्च, 1921 – 11 अप्रैल, 1977)

रेणु ने जिन शब्दों के माध्यम से शोकग्रस्त गांव का दृश्य खिंचा है, उसे पर्यावरण संरक्षण की संवेदनशीलता के साथ जोड़कर देखने की जरुरत है। इस मार्मिक प्रसंग का वर्णन करते हुए रेणु ने उसकी छत्रछाया में जीवनयापन करने वाले मानवेतर प्राणियों – कुत्तों, गाय, बैल, घोड़े, बकरे, पक्षियों तक की पीड़ा को मूर्त कर दिया है। गांववालों की वेदना का एक चित्र द्रष्टव्य है – “कोई-कोई मर्द भी फूट-फूटकर रो रहा था, मानो सबों के कलेजे पर ही कुल्हाड़े चलाये जा रहे हैं।” 

बटबाबा के कटने पर ग्रामीणों का सामूहिक रुदण दरअसल भारतीय समाज में वृक्षों के अन्यतम महत्त्व का प्रतीक है। इस कहानी को लिखते वक़्त ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्या आज की तरह तो कतई नहीं रही होगी, फिर भी पेड़ों के बिना मानवीय अस्तित्व पर मंडराने वाले संकट को लेखक ने जिस तरह से सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों में उभारा है, उसका विस्तार वर्तमान पर्यावरणीय संदर्भों तक करना आवश्यक है। कंक्रीट के शहरों में जीने को अभिशप्त आधुनिक मानव की चिंता को इस कहानी का एक बूढा पात्र प्रकट करते हुए कहता है– “बड़कवा बाबा सुख गईले का? … अब दुनिया ना रही।” गहरे निहितार्थों से भरी हुई यह कहानी पेड़-पौधों के बिना दुनिया के नहीं रहने की वैज्ञानिक अवधारणा के साथ कदमताल करती प्रतीत होती है। इस संदर्भ में यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि आजाद भारत में वृक्षों को बचाने के लिए शुरू किये गये ऐतिहासिक ‘चिपको आंदोलन’ की पूर्वपीठिका के बीज भी ‘बटबाबा’ में मौजूद हैं। 

इसी संदर्भ में रेणु के क्लासिकल उपन्यास ‘परती परिकथा’ (1957) को भी विश्लेषित करना चाहिए। यह उपन्यास मुख्य रूप से ‘बंजर धरती में सृष्टि की रचनात्मक कल्पना’ पर आधारित है। इसका नायक जित्तन अपने विशाल परती क्षेत्र के लिए वृक्षारोपण कार्यक्रम की योजना बनाता है। अपने इकोलोजिकल ज्ञान और समझ के आधार पर जित्तन परती में उगने लायक वनस्पतियों का पता लगाता है और परती तोड़ने का निश्चय करता है। जित्तन का यह कृत्य पर्यावरण संरक्षण हेतु सामुदायिक और साहचर्यपूर्ण जीवन पद्धति का संदेश मुखरित करता है, जिसकी आज सख्त जरुरत है। 

उपभोक्तावाद के आधुनिक दौर में येन-केन-प्रकारेण प्रोफेशनल ‘टारगेट’ को पूरा करना ही सफल होने का मापदंड बन गया है। इस क्रम में संवेदना, करुणा, त्याग, प्रेम और सामाजिकता जैसे मानवीय मूल्य निरंतर अर्थहीन होते जा रहे हैं। ऐसे विकृत समय में ‘संवदिया’, ‘ठेस’, ‘रसूल मिस्त्री’, ‘मारे गये गुलफाम’, ‘रसप्रिया’, ‘जलवा’, ‘जड़ाऊ मुखड़ा’ जैसी कहानियां कॉर्पोरेट कल्चर में रच-बस गयी पीढ़ी के अंधेरे मन में प्रकाश की लौ बिखेरने का काम करती हैं। ये कहानियां यह बतलाती हैं कि सबसे ज्यादा जरुरी है मनुष्यता और सामाजिकता को बचाना चाहे, फिर इसके लिए हमें प्रोफेशनल मोर्चे पर मात ही क्यों न खानी पड़े। आखिर ‘संवदिया’ हरगोबिन बडकी बहुरिया के मायके पहुंचकर भी संवाद क्यों नहीं पहुंचा पाता जबकि उसका तो यही पेशा था। वह कहता है– “बड़ी बहुरिया मुझे माफ़ करो। मैं तुम्हारा संवाद नहीं कह सका। तुम गांव छोड़कर मत जाओ। तुमको कोई कष्ट नहीं होने दूंगा। मैं तुम्हारा बेटा! बड़ी बहुरिया, तुम मेरी मां, सारे गांव की मां हो! मैं अब निठल्ला बैठा नहीं रहूंगा। तुम्हारा सब काम करूंगा।” 

अपनी पेशेवर प्रतिबद्धता में हरगोबिन जरुर पिछड़ जाता है, लेकिन मानवीय अनुराग और ममत्व के जिस सेतु को वह ढहने से बचा लेता है, उसके आगे हर ‘टारगेट’ छोटा पड़ जाता है। ठीक यही बात रसूल मियां, हीरामन, पंचकौड़ी मिरदंगिया, फतिमादी और डॉक्टर उमेश जैसे पात्रों पर भी लागू होती है। 

रेणु ने हिंदी में रिपोर्ताज विधा को जिस शिखर पर पहुंचाया, उसकी बराबरी आज तक कोई नहीं कर सका है। अपने पहले ही रिपोर्ताज ‘बिदापत नाच’ में उन्होंने दलित समाज की गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत की पहचान कराते हुए नृत्य कला के आचार्य उदयशंकर को प्रश्नांकित किया और सामंती शोषण को भी बेनकाब किया। सामंती-महाजनी व्यवस्था द्वारा श्रमिक बहुजन वर्ग को ऋणजाल में आजीवन बंधक बना लेने की अमानवीय स्थिति का पर्दाफाश रेणु ने इस रिपोर्ताज में अत्यंत निर्भीकता से किया है– ‘बाप रे !’

“बाप रे कौन दुर्गति नहीं भेल।
सात साल हम सूद चुकाओल,
तबहूं उरिन नहीं भेलौं।
कोल्हुक बरद सन खटलौं रात-दिन
करज बढ़त ही गेल।
थारी बेच पटवारी के देलियेंह
लोटा बेच चौकीदारी।
बकरी बेच सिपाही के देलियेंह
फटक नाथ गिरधारी।”

इस संदर्भ से रेणु की ‘आदमी के प्रति प्रतिबद्धता’ स्पष्ट हो जाती है। अपनी इस प्रतिबद्धता का निर्वहन रेणु ‘नेपाली क्रांतिकथा’ से लेकर ‘ऋणजल धनजल’ तक करते हैं। बाढ़, सुखाड़, राजनीतिक छल-छद्म से लेकर क्रिकेट और सिलाव का खाजा (बिहार की एक मिठाई) तक पर उन्होंने कलम चलायी है। अपने रिपोर्ताजों में उन्होंने अपने शब्दों से परिवेश को इतना जीवंत और मार्मिक बना दिया है कि उसके आगे आज के ‘लाइव स्ट्रीमिंग’ पर आधारित फील्ड रिपोर्टिंग फीकी पड़ जाती है। इस जीवंत वर्णन का एक करुण उदाहरण उल्लेखनीय है– “उसके पांव धरती पर जम नहीं पाते। उसके पेट में भीषण पीड़ा मालूम होती है। … चार महीने का गर्भ … मांस का पिंड बाहर आने के लिए, खीर-पूड़ी का मुलुक देखने के लिए अंतिम जोर लगाता है। भगिया जमीन पर गिर पड़ती है … धरती गर्म खून से पट जाती है।” भूख की यंत्रणा पर केंद्रित ‘हड्डियों का पुल’ और ‘पुरानी कहानी : नया पाठ’ जैसे रिपोर्ताज ‘वैश्विक भूख सूचकांक’ वाले युग में भी भूख की विभीषिका से उत्पन्न त्रासदी को समझने के प्रामाणिक दस्तावेज हैं। बाढ़ और सुखाड़ जैसी प्रलयंकारी त्रासदियों का सबसे बुरा असर समाज के श्रमशील सर्वहारा वर्ग पर पड़ता है। आजीवन रोजी-रोटी के संकट से जूझनेवाले इस वर्ग के पास न खाने को अनाज रह जाता है और न सर छुपाने को छत। ऐसी दारुण और दयनीय दशा में भी इन धरतीपुत्रों का दैहिक, मानसिक शोषण करने से समाज का संप्रभु वर्ग बाज नहीं आता– 

“रहिकपुर के बाबू लोग हैं शायद! … रहिकपुर के बाबू … कम उम्र के लड़के, जिनकी मसें भी अभी नहीं भींगीं … चार-पांच दिनों से मुसहर टोली में चक्कर काट रहे हैं झोली में मकई के दाने लिए रहते हैं, … कहते हैं … जिन्हें मकई लेना है, ले लो! सेर दो सेर नहीं – चार मुट्ठी। कर्ज! लेकिन सूद पहले ही चाहिए … उनकी नई जवानी बूढ़ी और जवान या बच्ची में कोई फर्क नहीं समझती।” 

‘हड्डियों का पुल’ में दर्ज यह लोमहर्षक वर्णन जातीय और आर्थिक असमानता से उपजी क्रूर विद्रूपताओं की कलई खोलने के लिए पर्याप्त है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के साथसाथ रेणु ने अपनी ‘सानो आमा’ (मौसी) नेपाल की सशस्त्र क्रांति में भी सक्रिय भागीदारी की थी। उनके इस अनुभव पर आधारित ‘नेपाली क्रांति कथा’ भू-राजनीति और सामरिक समस्याओं के संदर्भ में भारत-नेपाल संबंधों को नया आकार देने में बेहद मूल्यवान कृति साबित हो सकती है। 

रेणु की अन्यतम प्रसिद्धि का श्रेय जिस ‘मैला आंचल’ को दिया जाता है, उसमें व्यक्त आंचलिकता और आधुनिकता, लोकजीवन और लोकराग, राजनीतिक भ्रष्टाचार और छद्म आदर्शवाद जैसी स्थितियां आज के वैश्वीकृत समय में ज्यादा वृहत्तर पैमाने पर प्रतिबिंबित हो रही हैं। ‘वोकल फॉर लोकल’ वाले दौर में ‘मैला आंचल’ की परिधि का विस्तार साफ़-साफ़ दृष्टिगोचर है, क्योंकि इसमें पूंजी और विकास के अंतर्संबंधों और अंतर्द्वंद्वों के कई सूत्र अंतर्निहित हैं। इन सूत्रों के बहुआयामी परिदृश्य को ‘दीर्घतपा’, ‘पल्टू बाबु रोड’ और ‘जुलूस’ जैसे उपन्यासों में भी ढूंढा जा सकता है। रेणु ने युगीन यथार्थ को नैतिक अंतर्दृष्टि की संवेदना और जनवादी सरोकारों के साथ कलमबद्ध किया है। इसी वजह से उनके रचनाकर्म की प्रासंगिकता आजतक बनी हुई है। 

रेणु ने अपने जीवन में कला और राजनीति के साथ बराबर का संबंध निभाया। समाजवादी परंपरा में दीक्षित रेणु आजीवन अपनी कला और राजनीति के प्रति सचेत और सचेष्ट रहे। यही कारण है कि उनके साहित्य में कला और राजनीति दोनों की समस्याएं बार-बार प्रतिध्वनित होती हैं। रेणु देशज मानुष की व्यथा और उत्कंठा के दूरदर्शी भावक थे। गांव और लोक से उनका अप्रतिम लगाव जगजाहिर है। अपने बारे में वो अक्सर कहा करते थे– “तेरे लिए मैंने लाखों के बोल सहे।” उनके ‘तेरे लिए’ में वो तमाम मेहनतकश शामिल हैं, जिनकी मेहनत के दम पर तरक्की की हरेक इबारत मुकम्मल होती है, लेकिन इन मेहनतकशों के हिस्से में सिर्फ गुमनामी और तिरस्कार ही आते हैं। इन मेहनतकशों की पीड़ा को स्वर देने के साथ-साथ रेणु ने सामंती मानसिकता के पोषकों की पतितता को भी बड़ी बेबाकी से उद्घाटित किया है। प्रमाणस्वरूप ‘उच्चाटन’ कहानी का यह संवाद देखिये– “बेटा! अब क्या बताऊं? अभी उस दिन मिसिर का बड़ा बेटा दूध लेने आया। दूध बिक गया था, सब। कहां से देती? तो बर्तन उठाकर जाते समय जीभ ऐंठकर बोला– ‘जमाना ही उलट गया है। नहीं तो इसी टोले से भैंस के बदले औरत का दूध दूहकर ले गये हैं हमारे सिपाही !’” 

वर्तमान समय में जातीय गणना के विरोधी वर्गों की शिनाख्त यह प्रसंग बहुत आसानी से कर देता है। गुमनाम और उपेक्षित चेहरों के सच्चे हमदर्द रेणु ने अपने साहित्य में इनको जो इज्ज़त बख्शी है, उससे समाज के प्रभुओं का बेचैन होना स्वाभाविक था। रेणु ने आजीवन आलोचनाओं को दरकिनार कर जनपक्षीय प्रतिबद्धताओं को आगे बढ़ाया एवं अपनी लेखनी से एक सशक्त प्रतिपक्ष की भूमिका को साकार किया। 

रेणु ने न सिर्फ ‘अंचल’ को नायक की तरह उभारने में कामयाबी हासिल की बल्कि अंचल में रहने वाली श्रमशील जनता को भी केंद्रीय महत्व का अधिकारी बना दिया। यह रेणु की विलक्षण लेखकीय क्षमता के कारण ही संभव हो पाया। इसी विलक्षणता ने उन्हें आपातकाल के समय ‘पद्मश्री’ को ‘पापश्री’ कहकर लौटाने का साहस दिया। उल्लेखनीय है कि भावना और संवेदना का मूल भाव हर युग और परिस्थिति में कमोबेश एक-सा ही होता है, इसीलिए रेणु की रचनाएं आज भी विमर्शों और पाठकों के केंद्र में बनी हुई हैं और वर्षों बाद भी उनकी लोकप्रियता और उपादेयता जन-जन में बरकरार है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

मो. दानिश

मूल रूप से रोहतास (बिहार) के निवासी मो. दानिश ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली से फणीश्वरनाथ रेणु के कथा साहित्य पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। पिछले कई वर्षों से हाशिए के समाज के नायकों पर केंद्रित लेखन में संलग्न।

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