डॉ. भीमराव आंबेडकर (14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1956) पर विशेष
डॉ. भीमराव आंबेडकर अपने चिंतन में सामाजिक समस्याओं पर सोचते हुए स्त्री समस्या पर आए थे। उनका मंतव्य था कि भारतीय स्त्रियों की समस्या की मूल जड़ में मनु का विधान और पितृसत्ता की क्रूर मानसिकता है। वे अपने अध्ययन में इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि मनु के विधान से पहले समाज में स्त्री को पूर्ण रूप से अधिकार और सम्मान प्राप्त थे। वह मानते थे कि स्त्री को पतन में ले जाने वाला मनु का विधान है। वे अपने लेख ‘नारी और प्रतिक्रांति’ में लिखते हैं, कि “मनु से पूर्व नारी को बहुत सम्मान दिया जाता था, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। प्राचीन काल में राजाओं को राज्याभिषेक के समय जिन स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी, उनमें रानी भी होती थी।”
आंबेडकर मानते थे कि स्त्रियों को उनके वाजिब अधिकारों से वंचित रखकर ही जाति प्रथा को खड़ा किया गया और इतने लंबे समय तक यह बरकरार है। अपने पहले शोध पत्र ‘भारत में जातियां : उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास’ के 29वें परिच्छेद में वे कहते हैं– “मेरा यह कहना गलत नहीं है कि साध्य के रूप में देखा जाये या साधन के रूप में सती, आजीवन वैधव्य, और बालिका विवाह ऐसे रिवाज हैं, जिनका प्राथमिक लक्ष्य था जाति के भीतर अतिरिक्त पुरुष और अतिरिक्त स्त्री की समस्या का समाधान करना और सजातीय विवाह को बनाये रखना। इन रिवाजों को बिना सजातीय विवाहों को बचाये नहीं रखा जा सकता था, क्योंकि सजातीय विवाह के बगैर जाति एक धोखा है।”
समाज में स्त्री से जुड़ी कई कुप्रथाएं प्रचलित थीं। इनमें सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह, परदा प्रथा और पुनर्विवाह सरीखी मुख्य समस्याएं थीं। डॉ. आंबेडकर इन कुप्रथाओं से बहुत ही गहराई से वाकिफ थे। वे यह भी जानते थे कि इन कुप्रथाओं के चलते स्त्री स्वतंत्र नहीं हो सकती। यह ऐसी सामाजिक कुप्रथाएं थीं, जो स्त्री के मार्ग में इतनी बाधा बनी कि स्त्री का अस्तित्व ही चकनाचूर हो गया, जिसका खामियाजा स्त्री को अब तक भुगतना पड़ रहा है।
स्त्री स्वतंत्रता में बाधक अविच्छेद्य विवाह
स्त्री स्वतंत्रता के मार्ग में एक बड़ी बाधा के रूप में विवाह का अविच्छेद्य होना था। मनु ने ऐसा कानून बनाकर स्त्री स्वतंत्रता का मार्ग सदा के लिए अवरुद्ध कर दिया था। गौरतलब है कि हिंदू समाज अविच्छेद्य विवाह में अटूट आस्था रखता था। डॉ. आंबेडकर लिखते हैं कि, “पति-पत्नी के रूप में स्त्री-पुरुष के अविच्छेद्य-संबंध संबंधी मनु के विधान को बहुत से हिंदू बड़ी श्रद्धा से देखते हैं, और यह समझते हैं कि विवाह संबंध चूंकि आत्मा का मिलन होता है, इसलिए मनु ने इसे अविच्छेद्य बताया है।” लेकिन मनु ने इस प्रकार का कानून केवल स्त्री के लिए बनाया था। मनु का यह कानून पुरुषों पर लागू नहीं होता था। मनु ने पुरुष को यह अधिकार दे रखा था कि वो जब चाहे पत्नी को छोड़ सकता था और पत्नी के रहते हुए भी किसी दूसरी स्त्री से शादी कर सकता था।
बाबासाहेब मानते थे कि इस प्रकार का कानून स्त्री की गुलामी का कारण बना और उसका जीवन इस बंधन में यातनागाह बन गया। वे लिखते हैं, “इस विधान में पुरुष को स्त्री को छोड़ने का अधिकार ही नहीं, उसे बेचने का भी अधिकार है। यदि कोई बंधन है तो यह कि स्त्री स्वतंत्र नहीं हो सकती, भले ही वह बेच दी जाए या त्याग दी जाए।” प्रत्येक अधिकार से स्त्री को वंचित रखा गया, उसे यह अधिकार तक नहीं था कि वह लूले लंगड़े और मंदबुद्धि पति से छुटकारा पा सके। कानून में अविच्छेनीयता का सिद्धांत होना स्त्री स्वतंत्रता के मार्ग में बाधा बनकर उसके सामने आया है। स्त्री के स्वतंत्र न होने का खामियाजा यह भुगतना पड़ा कि समाज सैकड़ों साल पीछे चला गया।
विकास की कसौटी स्त्रियों का विकास
डॉ. आंबेडकर का मानना था कि किसी भी समाज के विकास की कसौटी का पैमाना उस समाज की स्त्री प्रगति पर निर्भर करता है। वे मानते थे कि किसी भी समुदाय की प्रगति इस बात से आंकी जा सकती है कि उस समाज की महिलाओं की स्थिति क्या है? संपूर्ण अधिकार उन्हें प्राप्त है या नहीं। जो समुदाय अपनी स्त्रियों पर प्रतिबंध और उनके स्वतंत्रता के मार्ग में बाधा बनता है, वह समुदाय प्रगति के पथ पर नहीं जा सकता है। जिस समाज की स्त्रियां आत्मरूप से स्वतंत्र और विकसित होगी, वह समाज प्रगति करने वाला माना जा सकता है।
भारतीय स्त्री की बात की जाए तो शास्त्रों और पितृसत्ता की जकड़न के चलते उसके विकास का दायरा इतना सीमित कर दिया गया था कि वह चाह कर भी प्रगति के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकती थी। इसका कारण यह था कि हजारों असामाजिक संहिताएं और मर्दवादी मानसिकता स्त्री के विकास के मार्ग में बाधा बनकर खड़ी थीं। यह भी सच है कि जिन स्त्रियों ने इन बाधाओं को पार करने की कोशिश की, उन्हें कुल्टा रूपी दंड देकर प्रताड़ित किया गया। डॉ. आंबेडकर मानते थे कि किसी स्त्री को ऐसे पुरुष के साथ नहीं रहना चाहिए, जो स्त्री गरिमा को ठेस पहुंचाए या फिर स्त्री का सम्मान न करे उन्होंने 15 अक्तूबर, 1956 को दिए अपने भाषण में कहा था कि “स्वाभिमान किसी भी आर्थिक लाभ से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। हमारा संघर्ष स्वसम्मान और इज्जत के लिए है, केवल आर्थिक विकास के लिए नहीं।” उनकी इस बात को स्त्री आंदोलन से जोड़कर देखा जाए तो स्त्री गरिमा और उसकी स्वतंत्रता को रेखांकित करता है। बाबासाहेब स्त्री को इस रूप में भी देखते हैं कि स्त्री को अपने पति की दासी नहीं बनना है। यदि किसी भी स्त्री का पति उसे दासी या नौकरानी बनाकर रखता है, तो ऐसे पति से स्त्री को अलग हो जाना चाहिए। यह भी मानते थे कि स्त्री को अच्छे पति का साथ भी देना है। वे लिखते हैं कि “सबसे जरूरी बात यह कि हर लड़की जो शादी करती है, अपने पति का साथ, अपने पति से मित्रता और बराबरी के रिश्ते कायम करें और उसकी दासी न बने।”
स्त्री अधिकारों के लिए बिल
डॉ. आंबेडकर स्त्री की समस्या को लेकर चिंतित थे। उनकी चिंता यह थी कि स्त्री को वे सब अधिकार मिले, जिन से उसे वंचित रखा गया है। सन् 1941 की बात है जब बी. एन. राय की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इस समिति में देश के कई विचारक और विद्वान शामिल हुए और सहमति से स्त्री अधिकारों के लिए एक बिल बनाया गया। इस बिल को सन् 1946 में केंद्रीय विधानसभा में पेश किया गया, लेकिन इस बिल को लेकर कोई ठोस नतीजा नहीं निकल सका। नतीजतन हुआ यह कि इस बिल को पुन: विचार के लिए वापस भेज दिया गया।
डॉ. आंबेडकर ने स्त्री स्वतंत्रता और अधिकारों को ध्यान में रखते हुए इस ‘हिंदू कोड बिल’ का कार्य अपने हाथों में ले लिया। उन्होंने हिंदू कोड बिल द्वारा स्त्री मुक्ति के सदियों से बंद चले आ रहे दरवाजों पर प्रहार कर स्त्री अधिकारों का रास्ता साफ कर दिया। इस बिल में स्त्री के वे सभी अधिकार निहित थे, जिनसे स्त्रियां अब तक वंचित थीं। इस बिल में स्त्री के अधिकारों की गारंटी इस रूप में थी कि स्त्री को अपने पिता की संपत्ति में हिस्सेदारी का अधिकार और पति से तलाक लेने का अधिकार था। इतना ही नहीं, इस बिल में यह भी निहित था कि स्त्रियां शासन-प्रशासन के महत्वपूर्ण पदों पर जा सकती हैं। वे इस बिल के द्वारा स्त्री मुक्ति और उसकी स्वतंत्रता का स्वप्न लेकर आए थे।
हिंदूकोड बिल का लोकसभा में विरोध
डॉ. आंबेडकर ने स्त्री अधिकार का मसौदा हिंदू कोड बिल के रूप में तैयार कर 5 फरवरी, 1951 को लोक सभा में प्रस्तुत किया। इस बिल को प्रस्तुत करते ही इसका पुरजोर विरोध हुआ। कुछ लोगों ने इस बिल को हिंदू संस्कारों पर कुठाराघात के रूप में देखा, तो कुछ ने इसे पितृसत्ता की जड़ों को कमजोर करने वाला बताया। इस बिल का विरोध सदन के अंदर से लेकर बाहर तक विभिन्न नेताओं और संगठनों के द्वारा किया जा रहा था। हिंदू कोड बिल के विरोधियों का ध्यान इस बात पर नहीं था कि स्त्री के जीवन में जो त्रासदी और विघटन है, उससे स्त्री को मुक्त किया जाए। पंडित भार्गव ने इस बिल का विरोध करते हुए कहा कि यह बिल पंजाब पर लागू न किया जाए। डॉ. आंबेडकर ने भार्गव के सवाल का जवाब देते हुए कहा कि, संपूर्ण भारत में यह बिल समान तौर पूरे देश में लागू होगा। स्त्री विरोधी और पितृसत्ता के पोषक पैरोकार इस बिल को लेकर डॉ. आंबेडकर का विरोध कर रहे थे, लेकिन वे बड़ी निर्भीकता के साथ स्त्री मुक्ति की लड़ाई लड़ते रहे। हिंदू कोड बिल के ऊपर विमर्श से यह बात एकदम साफ हो गई कि स्त्री स्वतंत्रता को लेकर हिंदुओं का दृष्टिकोण क्या है?
डॉ. आंबेडकर ने इस बिल पर दोबारा चर्चा करवाने के लिए 10 अगस्त, 1951 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिख कहा कि आप इस बिल को प्राथमिकता देकर 16 अगस्त को लोकसभा में विचार-विमर्श के लिए पेश करें, ताकि सितंबर तक इस बिल पर चर्चा हो जाए। इसके बाद डॉ. आंबेडकर के अनुरोध पर कांग्रेस दल की बैठक हुई। इस बैठक में यह निर्णय लिया गया कि 17 सितम्बर, 1951 को हिंदू कोड बिल के पहले भाग, जिसमें विवाह और तलाक के विषय हैं, पर विचार-विमर्श किया जाए।
तय तिथि यानी 17 सितम्बर 1951 को डॉ. आंबेडकर इस बिल को लोकसभा में चर्चा करवाने के लिए ले गए। लेकिन उनके विरोध में लोकसभा के सामने तथाकथित मर्दवादियों ने आर्य स्त्रियों से प्रदर्शन करवाया। सभा में इस बिल को लेकर विराधियों ने उनके ऊपर हमला बोलना शुरू कर दिया। इस बिल का विरोध करते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा किं “हिंदू कोड बिल की वजह से हिंदू संस्कृति की भव्य रचना का विनाश होगा और जिस गतिमान और उदार जीवन पद्धति ने अनेक शताब्दियों में विस्मयकारी रीति से जो उचित परिवर्तन स्वीकार किए, उस जीवन पद्धति का विघटन होगा।” इस बिल के विरोधी स्त्री के जीवन में चल रहे विघटन और यातना को नहीं देख पा रहे थे।
हिंदू कोड बिल को लेकर तत्कालीन नेताओं और धर्म के ठेकेदारों ने समाज में कई तरह के भ्रम फैलाए। जैसे, यह परिवार को तोड़ने वाला और भारतीय मूल्यों के अनुकूल नहीं है। इतना ही नहीं, यह भी कुप्रचार किया गया कि कोई भी स्त्री अपने पिता, भाई को मारकर उसकी संपत्ति ले सकती है और किसी भी समय कोई स्त्री अपने पति को छोड़कर जा सकती है।
इस बिल का सभा में काफी विरोध होने से नेहरू हिम्मत हार गए। उन्होंने स्थिति को भांपते हुए यह कहा कि विवाह और तलाक हिंदू कोड बिल के अलग विभाग माने जाए। डॉ. आंबेडकर की तमाम कोशिशों के बाद भी हिंदू कोड बिल का महत्वपूर्ण हिस्सा विवाह, संपत्ति और तलाक संबंधी कानून पूर्ण रूप से परित नहीं हो सका।
बाबासाहेब का इस्तीफा
हिंदू कोड बिल पारित न होने पर डॉ. आंबेडकर ने अत्यंत दुखी होते हुए कहा था कि स्त्री अधिकारों वाले इस बिल को मार डाला गया और दफन कर दिया गया, लेकिन कोई रोने वाला नहीं था। कहने का अर्थ यह कि इस दिन स्त्री अधिकारों और उसकी स्वतंत्रता की हत्या कर दी गई थी। उन्होंने स्त्री मुक्ति के लिए कुर्बानी देते हुए 27 सितंबर, 1951 को कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। इसके साथ ही यह दिन स्त्री मुक्ति के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो गया। वे भारतीय इतिहास में पहले व्यक्ति कहे जा सकते हैं, जिन्होंने स्त्री अधिकारों के लिए अपने मंत्री पद से इस्तीफा दिया था। वे हिंदू कोड बिल के जरिए पुरुष की सैकड़ों वर्षो से चली आ रही स्त्री पर दबंगई पर रोक लगाकर स्त्री और पुरुष के बीच समानता लाना चाहते थे। वह इस बिल के द्वारा पुरुष को एक पत्नी तक लाकर परिवार और राष्ट्र को मजबूत करना चाहते थे। वह स्त्री स्वतंत्रता के सबसे बड़े हिमायती थे। वे ऐसे हिमायती नहीं थे जो अपनी कथनी और करनी में अंतर रखते थे, उनके समकालीन केवल कहने के लिए स्त्री के समर्थक थे, जिनकी पोल तब खुली जब हिंदू कोड बिल के विरोध में सबसे आगे खड़े दिखाई दिए।
वर्तमान में स्त्री चिंतन की बात की जाए तो कहीं ना कहीं उच्च श्रेणी की स्त्रियां डॉ. आंबेडकर के चिंतन से कटी हुई दिखाई देती हैं । जबकि स्त्री मुक्ति का रास्ता हिंदू कोड बिल की ही धाराओं से होकर जाता है। यदि तत्कालीन दौर में स्त्री अधिकारों वाला बिल पूर्ण लागू होता तो स्त्रियों की दशा और दिशा में आज काफी परिवर्तन देखने को मिलता। आज की द्विज महिलाओं को चाहिए कि बाबा साहब की हिंदू कोड बिल की अकेले की हार को सामूहिक जीत में बदलकर मनुवादी पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था और स्त्री विरोधी मानसिकता पर प्रबल प्रहार करें।
(संपादन : नवल/अनिल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in