h n

डॉ. भीमराव आंबेडकर और उनके शिक्षक प्रो. जेम्स शॉटवेल

डॉ. आंबेडकर कोलंबिया विश्वविद्यालय के अपने उन शिक्षकों को याद किया करते थे, जिनसे वे प्रभावित थे। इस बात के प्रमाण भी हैं कि उनके शिक्षक जेम्स टी. शॉटवेल भी उन्हें एक विद्यार्थी और जातिगत दमन के खिलाफ लड़ने वाले कार्यकर्ता के रूप में याद करते थे। बता रहे हैं स्कॉट आर. स्ट्राउड

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने विविध विषयों की शिक्षा हासिल की थी। सन् 1913 से लेकर सन् 1916 तक वे कोलंबिया विश्वविद्यालय के विद्यार्थी/शोधार्थी थे। इस दौरान उन्होंने जो कुछ सीखा-जाना, उसने एक चिंतक और अध्येता के रूप में उनके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। सन् 1930 में कोलंबिया के अपने दिनों को याद करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था, “मेरे जीवन के सबसे अच्छे मित्रों में कोलंबिया के मेरे कुछ सहपाठी और वहां के विख्यात प्राध्यापक जॉन डेवी, जेम्स शॉटवेल, एडविन सेलिगमैन और जेम्स हार्वे रोबिन्सन शामिल हैं।”[1]

डॉ. आंबेडकर की हाल में प्रकाशित कुछ जीवनियों, जिनमें आकाश राठौर की ‘बिकमिंग बाबासाहेब’ और अशोक गोपाल की ‘ए पार्ट अपार्ट’ शामिल हैं,  में आंबेडकर के न्यूयार्क के अनुभवों को बहुत अच्छे ढंग से संजोया गया है। लेकिन उनकी शिक्षा के बारे में विस्तार से जानना एक कठिन काम है। ऐसा क्यों? सबसे पहले इसलिए क्योंकि कोलंबिया विश्वविद्यालय, लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स और ग्रेज़ इन की कक्षाओं में तब क्या होता था या क्या हुआ जब आंबेडकर विद्यार्थी थे, इसका कोई ब्यौरा उपलब्ध नहीं है। हम केवल यह जानते हैं कि युवा आंबेडकर ने इन संस्थानों के पाठ्यक्रमों में प्रवेश लिया, अपने लब्धप्रतिष्ठित प्राध्यापकों से ज्ञानार्जन किया और वहां से जो आंबेडकर पढ़कर निकला वह एक उच्च शिक्षित सामाजिक कार्यकर्ता और उभरता हुआ नेता था। लेकिन उन्होंने क्या जाना, क्या सीखा और जो जाना और सीखा, उसके बारे में उनकी क्या प्रतिक्रिया थी, यह सब या तो नज़रअंदाज़ किया जाता है या इसके बारे में केवल कयास लगाए जाते हैं। यथा उन्होंने इस प्रोफेसर से यह सीखा होगा और उस प्रोफेसर से वह जाना होगा।

इसलिए आंबेडकर अपनी कक्षाओं में किस तरह के अनुभवों से गुज़रे, सप्रमाण यह पता लगाना एक चुनौती है। यह मेरे लिए सुखद है कि मेरी हालिया पुस्तक द इवोल्यूशन ऑफ़ प्रेग्मेटिज्म इन इंडिया को लिखते समय मुझे जॉन डेवी, डॉ. आंबेडकर और उनके सहपाठियों के अनेक लेक्चर नोट्स पढ़ने और उनका विश्लेषण करने का मौका मिला, जिनसे मैं यह जान सका कि डॉ. आंबेडकर ने प्रोफेसर डेवी से क्या सीखा और उसका उनके जीवन और कार्यों पर किस तरह का असर पड़ा। जहां तक मेरी जानकारी है, यह पहली बार है कि विशिष्ट पाठ्यक्रमों की कक्षाओं के रिकॉर्ड का प्रयोग आंबेडकर के अनुभवों का लेखा-जोखा तैयार करने के लिए किया गया है। उनकी शिक्षा के बारे में हम और क्या जान सकते हैं? यह खोज दिलचस्प तो होगी, लेकिन इसके लिए कई अध्येताओं और इतिहासविदों को संयुक्त प्रयास करने होंगे, क्योंकि आंबेडकर की शिक्षा अत्यंत विविधरूपा थी।

जेम्स शॉटवेल के लेखों के एक संकलन के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित उनकी तस्वीर और युवा बी.आर. आंबेडकर

डॉ. आंबेडकर याद थे जेम्स शॉटवेल को

सन् 1930 के ‘कोलंबिया एलुमनाई न्यूज़’ में अपने एक लेख में आंबेडकर ने डेवी के ठीक बाद जेम्स टी. शॉटवेल (1874-1965) का नाम लिखा है। जेम्स हार्वे रॉबिन्सन के शिष्य, शॉटवेल, कोलंबिया विश्वविद्यालय में इतिहास के शिक्षक थे। रॉबिन्सन और शॉटवेल दोनों युवा आंबेडकर के शिक्षक बने। उन्होंने न केवल इतिहास के विशिष्ट प्रसंगों से बल्कि इतिहास में अनुसंधान की पद्धति में नवीन परिवर्तनों से भी आंबेडकर को परिचित करवाया। कोलंबिया में शॉटवेल के अध्यापन काल के बारे में उनके इस विस्तृत विवरण से यह भी पता चलता है कि विश्व शांति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों से जुड़े मसलों में उनकी रूचि बढ़ती जा रही थी। आंबेडकर की तरह, शॉटवेल भी एक साथ सार्वभौमिक आदर्श और स्थानीय व्यावहारिकता पर विचार करने में सक्षम थे।

शॉटवेल की कक्षाओं में आंबेडकर का समय कैसा गुज़रा? आंबेडकर को अपना यह शिक्षक याद था और जैसा कि मेरी पड़ताल से जाहिर है, उनके शिक्षक को भी आंबेडकर याद थे। अपने लंबे जीवन के अंतिम दौर में शॉटवेल ने ‘द लॉन्ग वे टू फ्रीडम’ (1960) लिखी, जिसे वे अपनी सबसे अहम कृति मानते थे। यह पुस्तक दुनिया के अधिकांश महाद्वीपों और परंपराओं में स्वतंत्रता हासिल करने में आई ऐतिहासिक कठिनाईयों और मुसीबतों का विवरण करती हैं, जिनमें भारत का स्वाधीनता संग्राम भी शामिल है।

कोलंबिया अल्युमिनी न्यूज (19 दिसंबर, 1930) में प्रकाशित एक आलेख का अंश

गांधी और स्वराज पर चर्चा के बीच शॉटवेल अछूत कुप्रथा का मुद्दा उठाते हैं। वे लिखते हैं, “केवल राजनैतिक स्वतंत्रता काफी नहीं थी। रुकावटें पैदा करने वाली वर्जनाओं से भी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। गांधी का जन्म और लालन-पालन, ब्राह्मणवादी वर्जनाओं के मध्य हुआ था।” शॉटवेल लिखते हैं, “और वे मानते थे कि जाति प्रथा समाज को ढांचा प्रदान करती है।” जाति के मुद्दे पर गांधी का प्रतिकार कौन करता था? शॉटवेल का उत्तर है– उनके पूर्व शिष्य बी.आर. आंबेडकर।

यह दिलचस्प है कि शॉटवेल अपनी पहले से ही काफी लंबी पुस्तक में एक लंबे फुटनोट में अपने इस पूर्व विद्यार्थी का परिचय देते हैं। वे जाति के बारे में बहुत थोड़ी बात करते हैं, लेकिन आंबेडकर का जो जीवन परिचय उन्होंने दिया है, वह सारगर्भित और स्पष्ट है—

“डॉ बी. आर. आंबेडकर कोलंबिया विश्वविद्यालय से पीएचडी हैं, जहां वे इस लेखक के विद्यार्थी थे। वे अछूतों के सबसे मज़बूत संगठन शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के प्रमुख थे और भारत की मंत्रिपरिषद में विधि मंत्री बनाए गए। वे गणमान्य भारतीयों की उस समिति के अध्यक्ष भी नियुक्त किए गए थे, जिसने भारत के संविधान का मसौदा तैयार किया था। यह संविधान जनवरी 1950 में लागू हुआ। विद्यार्थी के रूप में भी वे जोर देकर कहा करते थे कि ब्राह्मणों के नियंत्रण वाली भारतीयों की अपनी सरकार से अछूतों को बेहतर व्यवहार की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। सरकार में उनके अनुभव ने उनकी इस धारणा की पुष्टि की और उन्होंने अक्टूबर 1951 में कैबिनेट से त्यागपत्र दे दिया क्योंकि उन्हें ‘वही पुरानी निरंकुशता, वही पुराना दमन, और वही पुराना भेदभाव, जो पहले भी था, फिर देखने को मिला और शायद पहले से भी ख़राब स्वरुप में।’ द्वितीय विश्वयुद्ध में उन्होंने पश्चिमी शक्तियों से प्रत्यक्ष गठबंधन की वकालत करते हुए चुनाव लड़े और हार गए। वे फिर सत्ता में नहीं लौटे सके और 1956 में उनकी मृत्यु हो गई।”[2]

इस उपरोक्त पाद टिप्पणी में शॉटवेल ने आंबेडकर – या कम-से-कम उनके जीवन के राजनैतिक पक्ष – के बारे में ठीक-ठाक ही विवरण दिया है। यह साफ़ है कि शॉटवेल को अपना पूर्व विद्यार्थी याद था और वे उसकी राजनैतिक गतिविधियों में दिलचस्पी लेते थे। उन्हें यह भी पता था कि आंबेडकर को किन परिस्थितियों में नेहरु सरकार से त्यागपत्र देना पड़ा।

यह पंक्ति विशेष रूप से हमारा ध्यान आकर्षित करती है– “विद्यार्थी के रूप में भी वे जोर देकर कहा करते थे कि ब्राह्मणों के नियंत्रण वाली भारतीयों की अपनी सरकार से अछूतों को बेहतर व्यवहार की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।” इससे जाहिर है कि विद्यार्थी के रूप में भी आंबेडकर सामाजिक दृष्टि से जागृत थे और जातिगत दमन के प्रतिरोध में इतनी रुचि रखते थे कि उनके पूर्व प्रोफेसर उन्हें उनकी इसी समझ व विचारों के लिए याद करते हैं। इससे पूर्व उनके एक सहपाठी, जिनसे मैंने अपनी किताब के लेखन के सिलसिले में बात की थी, की स्मृति की भी पुष्टि होती है। उनके सहपाठी का कहना है कि आंबेडकर जातिगत दमन के उन्मूलन के प्रति प्रतिबद्ध थे। इस तरह हमें यह ठीक-ठीक नहीं मालूम कि अपनी कक्षाओं में डॉ. आंबेडकर अपने अध्यापकों और सहपाठियों से क्या कहते-सुनते थे। लेकिन हमें यह ज़रूर पता है कि वे इतने मुखर थे कि उनके प्रोफेसरों (जैसे प्रो. शॉटवेल) को याद रहा कि उनके सरोकार और प्रतिबद्धताएं क्या थीं।

जेम्स शॉटवेल की पुस्तक ‘द लॉन्ग वे टू फ्रीडम’ जिसमें उन्होंने अपने विद्यार्थी आंबेडकर का उल्लेख किया है

आंबेडकर ने शॉटवेल से क्या सीखा होगा

किसी के भी दिमाग में यह प्रश्न आ सकता है कि प्रो. शॉटवेल जैसे शिक्षक, जिन्होंने आंबेडकर को याद रखा, से उनके विद्यार्थी ने क्या सीखा? इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर देना संभव नहीं है, क्योंकि आज की तारीख तक तो हमारे पास न तो पाठ्यक्रम है, न नोट्स हैं, न व्याख्यानों की रूपरेखा है और ना ही अन्य कोई सामग्री, जिसकी मदद से हम प्रो. शॉटवेल की कक्षा में झांक कर देख सकें कि वहां क्या चल रहा है। baws.in से हमें पता चलता है कि अंग्रेजी में अपने संपूर्ण लेखन में आंबेडकर ने कहीं भी प्रो. शॉटवेल का ज़िक्र नहीं किया है, लेकिन जो जानकारी हमारे पास है, उससे हम यह अंदाज़ा तो लगा ही सकते हैं कि आंबेडकर किन अनुभवों से गुज़रे होंगे और शायद आगे चलकर अन्य अध्येता शॉटवेल और आंबेडकर की कहानी में और रंग भर सकेंगे।

आंबेडकर के दस्तावेजों में उपलब्ध जानकारी और 1913 से 1916 की अवधि के कोलंबिया विश्वविद्यालय के बुलेटिनों (जिनमें कक्षा का विषय, समय, स्थान व संक्षिप्त विवरण सहित पाठ्यक्रमों के बारे में जानकारियां हैं) की मदद से हम यह जान सकते हैं कि आंबेडकर ने शॉटवेल से कौन-से पाठ्यक्रमों की शिक्षा हासिल की होगी।[3] अकादमिक वर्ष 1914-15 में आंबेडकर ने निम्न दो पाठ्यक्रमों को चुना–

इतिहास 155-156 : यूरोपीय समाज का उदय : सामाजिक व औद्योगिक, आधुनिक इंग्लैंड (सोमवार और बुधवार अपराह्न 3.10 बजे, कक्षा क्रमांक 615 के) जेम्स टी. शॉटवेल, पीएच-डी (प्राध्यापक, इतिहास, कोलंबिया विश्वविद्यालय)

155 : यूरोपीय समाज का उदय (शरद 1914)

यूरोपीय समाज का उद्विकास, विशेषकर कार्य और दैनिक जीवन की आम चीज़ों के इतिहास के संदर्भ में; शुरुआत प्रागैतिहासिक मानव से, पाषाण, कांस्य व प्रारंभिक लौह युग, कृषि की शुरुआत, प्राचीन नगर राज्य, व्यापार और दास प्रथा, जर्मनी के ग्रामीण जीवन का शुरुआती दौर, सामंतवाद, जागीरों की संपत्ति का प्रबंधन, यूरोपीय नगरों का उदय, पूंजी और राष्ट्र राज्यों का उदय।

156 : आधुनिक इंग्लैंड का सामाजिक और औद्योगिक इतिहास (वसंत 1915)

यूरोपीय समाज के केंद्र को मेडिटरेनीयन से उत्तर की ओर खिसकाने वाली वाणिज्यिक क्रांति पर संक्षिप्त चर्चा, अमरीका से सोने और चांदी की आमद और आधुनिक राजनीति के व्यावसायिक पहलू, फिर औद्योगिक क्रांति पर विस्तार से चर्चा, महत्वपूर्ण आविष्कार और फैक्ट्री प्रणाली की शुरुआत, औद्योगिक सर्वहारा वर्ग का उदय और समाज सुधार, सामाजिक नियमन, ट्रेड यूनियन, चार्टिस्ट आदि जनांदोलन और समाजवाद के उदय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि।

सन् 1915 के वसंत में, डॉ. आंबेडकर ने शॉटवेल के निम्न उच्च पाठ्यक्रमों को चुना, जिनमें से एक की विषयवस्तु, कम-से-कम युवा आंबेडकर के लिहाज से, काफी गूढ़ थी–

इतिहास 226 : 12वीं और 13वीं सदियों में यूरोप [संपूर्ण पाठ्यक्रम; बुधवार अपराह्न 4.10 और 5.10 बजे, कक्ष क्रमांक 402एल], जेम्स टी. शॉटवेल, पीएचडी (प्राध्यापक, इतिहास, कोलंबिया विश्वविद्यालय)।

विशेष रूप से योग्य विद्यार्थियों के लिए शोध पाठ्यक्रम।

शैक्षणिक वर्ष 1915-16 में आंबेडकर ने शॉटवेल के केवल एक पाठ्यक्रम में दाखिला लिया (1916 के वसंत में, जो कोलंबिया में उनके अध्ययन का अंतिम सेमेस्टर था)

इतिहास 223 : यूरोप के इतिहास में आदिम संस्थाएं [बुतपरस्तों और ईसाइयत दोनों की) सोमवार अपराराह्न 8-10 बजे, कक्ष क्रमांक 106 एल, जेम्स टी. शॉटवेल, पीएच-डी (प्राध्यापक, इतिहास, कोलंबिया विश्वविद्यालय)

यह पाठ्यक्रम यूरोपीय संस्थाओं में जड़ता से वास्ता रखता है। आदिम समाज की प्रथाएं, नियम और धर्म, जिनका सीधा संबंध जादू और वर्जनाओं से है। पुरातन लोकप्रिय धर्मों, रहस्यवादी पंथों, बुतपरस्तों और ईसाईयों दोनों द्वारा उत्पीड़न और मध्यकालीन चर्च का उद्गम।

हम देख सकते हैं कि शॉटवेल ने आंबेडकर को यूरोप के इतिहास के विविध पहलुओं से परिचित करवाया। इनमें शामिल थे ऐसे विषय जिनका प्रभाव स्पष्ट था (धार्मिक संस्थाएं) और ऐसे घटनाक्रम, जिन्हें नज़रअंदाज़ किया जा सकता था (जैसे औद्योगिक और तकनीकी विकास)। जब तक हम आंबेडकर के लेक्चर नोट्स या पाठ्यक्रम हासिल नहीं कर लेते तब तक हम पक्के तौर पर नहीं कह सकते कि आंबेडकर को इन पाठ्यक्रमों में क्या सिखाया या बताया गया।

जेम्स टी. शॉटवेल का एक ऑटोग्राफ

शायद डॉ. आंबेडकर को यह समझ में आ गया था कि इतिहास के प्रति शॉटवेल का दृष्टिकोण, जिसे उनके शिक्षक ने रॉबिन्सन से आत्मसात किया था, यह था कि वर्तमान आवश्यकताओं के प्रकाश में अतीत का अध्ययन ही इतिहास है। या शायद आंबेडकर ने अपने प्रोफेसर के व्याख्यानों से एक दूसरी चीज़ भी सीखी थीं। इसी के बारे में शॉटवेल ने आगे चलकर कहा था कि उन्होंने यह बात कोलंबिया में अपने मार्गदर्शक से सीखी थी। शॉटवेल ने कहा था, “सामान्यीकरणों पर अविश्वास करना हमने रॉबिन्सन से सीखा।”

सामान्यीकृत और सरल-सहज व्याख्याओं की सत्यता के प्रति संशय के इसी भाव के चलते प्रो. शॉटवेल ने मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद और ऐतिहासिक परिवर्तनों का आधार आर्थिक होने के सिद्धांतों को ख़ारिज किया। आगे चलकर शॉटवेल ने लिखा– “भौतिकवाद और अर्थशास्त्र में अधिक संभावनाएं इसलिए दिखती हैं क्योंकि (धर्मशास्त्रीय अथवा तत्वमीमांसीय दृष्टिकोणों की तुलना में) वे अधिक लौकिक हैं लेकिन इस श्रेष्ठता को हम बहुत लंबा नहीं खींच सकते। कभी-कभी उनकी व्याख्या से जिंदगी ही फिसल जाती है। कुल मिलाकर, हम यह कह सकते हैं कि हमारी समस्या के दो मुख्य हिस्से हैं, जिन्हें हमें एक साथ लाना होगा – एक है भौतिक और दूसरा है आत्मिक।”[4] निश्चित रूप से शॉटवेल ने आंबेडकर जैसे अपने विद्यार्थियों को यह समझाया होगा कि अधिकांश मामलों में आत्मिक और भौतिक तत्वों के एकीकरण से ही व्यावहारिक और व्यवहार्य ‘सत्य’ आकार ले सकता है। शॉटवेल अपनी आत्मकथ्यात्मक टिप्पणी में आगे लिखते हैं, “जब तक मनोविज्ञान और आर्थिक और प्राकृतिक विज्ञान एक साथ इस काम में नहीं जुटते, वह भी प्रतिद्वंदियों की तरह नहीं वरन सहयोगियों की तरह, तब तक हम इतिहास को ठीक ढंग से नहीं समझ सकते।”[5] आंबेडकर ने जिस तरह जाति के मनोविज्ञान का अध्ययन किया और उसका प्रतिरोध करने के राजनैतिक और आर्थिक तरीकों का संधान किया, उससे ऐसा लगता है कि वे भी बहुलवादी और नॉन-रिडकटिव कार्यवाहियों के पक्षधर थे।

हम देख सकते हैं कि इतिहास के प्रति प्रो. शॉटवेल का दृष्टिकोण समग्रता, सुधारवादिता और सामान्यीकरण से बचने पर आधारित था। इतिहास एक विशिष्ट वस्तु है, जिसे समझने के लिए कई तरह के स्पष्टीकरणों की ज़रूरत होगी। और ये स्पष्टीकरण हमारे लिए आज उपयोगी होने चाहिए। निश्चित रूप से जो पाठ्यक्रम शॉटवेल पढ़ाते थे उनमें उन्होंने इस ऐतिहासिक व्यवहारवाद का समावेश कर दिया होगा और आंबेडकर को यह उपयोगी लगा होगा।

शॉटवेल, आंबेडकर और व्यवहारवादी सार्वदेशिकता

अछूत प्रथा और जातिगत दमन के विरुद्ध आंबेडकर के संघर्ष का एक दिलचस्प पहलू था उसका सार्वदेशिक विस्तार। निश्चित तौर पर आंबेडकर जाति के विरुद्ध संघर्ष को और व्यापक आधार देने के लिए दूसरे देशों के उन लोगों से जुड़ना चाहते थे जो या तो बौद्ध धर्म में रूचि रखते थे या जाति की तरह के अन्य कलंकों जैसे नस्लवाद के खिलाफ संघर्षरत थे (डब्ल्यू.ई.बी. डु बोइस से उनका पत्राचार देखिये)। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आंबेडकर की प्रतिष्ठित कृति ‘बुद्धा एंड हिज धम्म’, जिसे हम बौद्ध धर्म की बाइबिल कह सकते हैं और जिसका प्रकाशन उनकी मृत्यु के कुछ ही समय बाद सन् 1957 में हुआ था, को अंग्रेजी में लिखा गया था और वह इसी भाषा में प्रकाशित हुई थी। इसमें यह कहा गया है कि बौद्ध धर्म, कार्ल मार्क्स और साम्यवाद दोनों का जवाब है–. आंबेडकर की दृष्टि में, बौद्ध धर्म जातिगत दमन को तो समाप्त करने में सक्षम है ही, वह पूरी दुनिया की एक बेहतर राजनैतिक प्रणाली की खोज को पूरा कर सकता है। आंबेडकर की मान्यता थी कि बौद्ध धर्म लोकतान्त्रिक है और साम्यवाद की ज्यादतियों, जिनसे तब की दुनिया परेशान थी, का मुकाबला कर सकता है।

कोलंबिया विश्वविद्यालय के रिकॉर्ड में आंबेडकर का नाम

शॉटवेल का दृष्टिकोण भी सार्वदेशिक था। उनके लिए इतिहास का अध्ययन आज की आवश्यकताओं से जुड़ा हुआ था और उसका उद्देश्य एक बेहतर और एक अधिक स्वतंत्र वर्तमान का निर्माण था। उनका मानना था कि चिरस्थायी स्वतंत्रता इतिहास की ज़रुरत है। शॉटवेल के लिए और कोलंबिया विश्वविद्यालय के लिए भी इतिहास के अध्ययन के क्या मायने थे, इसकी चर्चा करते हुए लिजा एंडरसन उनके वैश्विक दृष्टिकोण को इन शब्दों में रेखांकित करती हैं–

जेम्स टी. शॉटवेल अमरीका में नीतिगत मामलों के ऐसे बुद्धिजीवियों की पहले पीढ़ी से थे, जो सच्चे अर्थों में सार्वदेशिक थी …  अध्येता के रूप में शॉटवेल उत्साही थे, वे दुनिया में व्यवहारवादी अंतःक्रिया के पैरोकार थे। वे चिरंतन आशावादी थे, उनका यह दृढ़ मत था कि समाज विज्ञानियों को अपने ज्ञान का उपयोग सार्वजनिक उद्देश्यों को हासिल करने लिए करना चाहिए, उन्हें विश्वास था कि मानवीय हस्तक्षेप से मनुष्यों की स्थिति में सुधार आ सकता है और वे पूरी दुनिया को एक इकाई के रूप में देख सकते थे। उनमें यह सब कुछ था और यही सोच कोलंबिया में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन की विशिष्टता बनी।[6]

यह समग्र और सार्वदेशिक दृष्टिकोण, एक तरह के आशावाद से सहज रूप से जुड़ा हुआ था। शॉटवेल की आशावादिता यथार्थवादी थी – वह राष्ट्रों और संस्कृतियों के समक्ष उपस्थित समस्याओं की प्रकृति और विस्तार का ईमानदारी से पड़ताल करती थी – लेकिन वह इस आशा से संचारित थी कि कुछ बेहतर बनाया जा सकता है। यद्यपि अपने आगे के जीवन में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शांति के पहरेदार संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्थाओं के स्तर पर काम किया, लेकिन ऐसा लगता है कि शॉटवेल की आशावादिता और वैश्विक दृष्टिकोण ने युवा आंबेडकर को उनसे शिक्षा हासिल करते समय गहरे तक प्रभावित किया।

शॉटवेल की तरह, आंबेडकर जिन समस्याओं से बाबस्ता थे, उन्हें वे यथार्थवादी दृष्टिकोण से देखते थे, लेकिन वे इन समस्याओं से निपटने के लिए उनके प्रयासों की सफलता के प्रति आशावादी भी थे। जाति के उन्मूलन के लिए ज़रूरी था ऐसा राजनैतिक लोकतंत्र, जो सामाजिक लोकतंत्र (mental habits of social democracy)  पर आधारित हो। इन दोनों चिंतकों के संघर्ष राष्ट्रों, संस्कृतियों और समूहों के स्तर पर तो थे ही, वे विचारों और भय के स्तर पर भी थे। अपनी कविता “इज़ इट द डॉन (क्या भोर हो गई है)” के अंतिम छंद में वे जो कहते हैं, उसमें न केवल वैश्विक स्तर पर उनके प्रयासों की अनुगूंज है, बल्कि वे आंबेडकर के अविस्मरणीय संघर्षों की याद भी दिलाते हैं।

जब हो संकट गहरा
अपनी आंखें न बंद करो
देखो, जहां छाया होती है
सूरज वहीं चमकता है
लाखों वर्षों की विषमता मिटाने की
यह महज आगाज है[7]

आंबेडकर जब भी अपने प्रोफेसर शॉटवेल और अन्य आशावादी और व्यावहारिक चिंतकों, जैसे उनके शिक्षक जॉन डेवी को याद करते होंगे, तब शायद उपरोक्त पंक्तियों में अभिव्यक्त व्यवहार्य आशावादिता आंबेडकर को अनुप्राणित करती होगी।

[1] कोलंबिया एलुमनाई न्यूज़, 19 दिसम्बर 1930, 12.
[2] जेम्स टी. शॉटवेल, ‘द लॉन्ग वे टू फ्रीडम’ (इंडिआनापोलिस: बाब्स-मेर्रिल, 1960), 514   
[3] मैं उन ट्रांसक्रिप्टों का प्रयोग कर रहा हूं जिन्हें कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा 24 मार्च, 1965 को जारी किया गया और जो मुंबई विश्वविद्यालय में खैरमोड़े पेपर्स में संरक्षित हैं।
[4] जेम्स टी. शॉटवेल, ‘द फेथ ऑफ़ एन हिस्टोरियन एंड अदर एसेस’ (न्यूयार्क: वाकर एंड कंपनी, 1964), 85
[5] वही, 85
[6] लिसा एंडरसन, “जेम्स टी. शॉटवेल: ए लाइफ डिवोटिड टू ऑरगनाइजिंग पीस”, कोलंबिया मैगज़ीन, दिसंबर 8, 2005, https://magazine.columbia.edu/article/james-t-shotwell-life-devoted-organizing-peace.
[7] जेम्स टी. शॉटवेल, ‘पोयम्स’ (न्यूयार्क: साइमन एंड शिंग्सटर, 1953), 5

(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

स्कॉट आर. स्ट्राउड

स्कॉट आर. स्ट्राउड ऑस्टिन, अमेरिका, स्थित टेक्सास विश्वविद्यालय में संचार अध्ययन के सह-प्राध्यापक और मीडिया आचार के कार्यक्रम निदेशक हैं। उनकी सबसे ताज़ा पुस्तक ‘द इवोल्यूशन ऑफ़ प्रेगमेटिज्म इन इंडिया: आंबेडकर, डेवी एंड द रेटोरिक ऑफ़ रिकंस्ट्रक्शन’ (यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो प्रेस, 2023) हमें यह बताती है कि डेवी के व्यवहारवाद से भीमराव आंबेडकर कैसे जुड़े और किस प्रकार इस जुड़ाव ने भारत में सामाजिक न्याय की स्थापना के अभियान में आंबेडकर के भाषणों और लेखन को आकार दिया। ‘वे जॉन डेवी एंड द आर्टफुल लाइफ’ एवं ‘कांट एंड द प्रॉमिस ऑफ़ रेटोरिक’ के लेखक भी हैं। वे सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में देश के पहले जॉन डेवी केंद्र के सहसंस्थापक भी हैं।

संबंधित आलेख

डॉ. आंबेडकर : भारतीय उपमहाद्वीप के क्रांतिकारी कायांतरण के प्रस्तावक-प्रणेता
आंबेडकर के लिए बुद्ध धम्म भारतीय उपमहाद्वीप में सामाजिक लोकतंत्र कायम करने का एक सबसे बड़ा साधन था। वे बुद्ध धम्म को असमानतावादी, पितृसत्तावादी...
डॉ. आंबेडकर की विदेश यात्राओं से संबंधित अनदेखे दस्तावेज, जिनमें से कुछ आधारहीन दावों की पोल खोलते हैं
डॉ. आंबेडकर की ऐसी प्रभावी और प्रमाणिक जीवनी अब भी लिखी जानी बाकी है, जो केवल ठोस और सत्यापन-योग्य तथ्यों – न कि सुनी-सुनाई...
व्यक्ति-स्वातंत्र्य के भारतीय संवाहक डॉ. आंबेडकर
ईश्वर के प्रति इतनी श्रद्धा उड़ेलने के बाद भी यहां परिवर्तन नहीं होता, बल्कि सनातनता पर ज्यादा बल देने की परंपरा पुष्ट होती जाती...
सरल शब्दों में समझें आधुनिक भारत के निर्माण में डॉ. आंबेडकर का योगदान
डॉ. आंबेडकर ने भारत का संविधान लिखकर देश के विकास, अखंडता और एकता को बनाए रखने में विशेष योगदान दिया और सभी नागरिकों को...
संविधान-निर्माण में डॉ. आंबेडकर की भूमिका
भारतीय संविधान के आलोचक, ख़ास तौर से आरएसएस के बुद्धिजीवी डॉ. आंबेडकर को संविधान का लेखक नहीं मानते। इसके दो कारण हो सकते हैं।...