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डॉ. धर्मवीर की नजर में दलितों का धर्म

डॉ. धर्मवीर न तो हिंदू धर्म को दलितों के लिए ठीक मानते हैं, न ईसाई, न मुसलमान और ना ही बौद्ध धर्म को। वे ‘आजीवक धर्म’ को दलितों का मूल धर्म मानते हैं। पढ़ें, इस आलेख शृंखला का पहला भाग

दुनिया में लगभग हर समुदाय अपने धर्म के साथ बड़ी मजबूती से खड़ा है। यदि भारत की बात ही की जाय तो धर्म को लेकर गोलबंदी मजबूत हुई है। वहीं डॉ. धर्मवीर लिखते हैं कि “हिंदुओं में एक बड़ी संख्या में लोग बिना धर्म के रह रहे हैं।”[1] उनका इशारा दलित वर्ग से है।

डॉ. धर्मवीर आगे लिखते हैं, “दलित उन्हीं में से हैं। हिंदुओं ने उनके लिए धर्मशास्त्रों और मंदिरों के रास्ते रोक रखा हैं और खुद दलितों ने अपने धर्मशास्त्र व मंदिर नहीं खड़े किए। यह धर्महीनता की स्थिति है और इसे अच्छी स्थिति नहीं कहा जा सकता है। इसीलिए हिंदू धर्म की कोई परिभाषा तय नहीं हुई है, क्योंकि दलितों को इसमें शामिल किया गया है। यदि दलितों और पिछड़ों को हिंदू धर्म की गिनती में न लिया जाय तो हिंदू धर्म की एक पक्की परिभाषा बन सकती है। हिंदू धर्म के अपरिभाषित रहने का मुख्य कारण यह है कि उसके काफी संख्या में लोग अहिंदू हैं।”[2]

दलितों की राह में सबसे ज्यादा बाधक ब्राह्मण और क्षत्रिय बने हैं। इन्होंने ही दलितों को धर्महीनता की स्थिति में रखा है। डॉ. धर्मवीर लिखते हैं, “दलित चिंतन को सबसे पहला और भारी धक्का ढाई हजार साल पहले बुद्ध के चिंतन के रूप में लगा था। उस धक्के और धोखे से दलित चिंतन आज तक उभर नहीं सका है।”[3] वे आगे कहते हैं कि “ब्राह्मण अपनी बात ब्राह्मण धर्म के रूप में कहता है। क्षत्रियों ने अपनी बात बौद्ध धर्म के रूप में रखी है। इसमें कुछ भी बुराई नहीं है। बुराई तब पैदा होती है, जब दलितों को अपनी बात दलित धर्म के रूप में नहीं रखने दी जाती है। उसके सामने जान-बूझकर पहचान का संकट खड़ा किया जाता है, लेकिन यह प्रत्येक दलित चिंतक का कर्तव्य है कि वह अपने महान गुरुओं की बात संसार को समझाए कि उनके पास एक पृथक दलित धर्म है। दूसरे धर्मों के लोगों को भी उनकी बात धैर्य से सुननी चाहिए।”[4]

गौर तलब है कि डॉ. धर्मवीर की नजर में क्षत्रिय की परिभाषा राजपूत जाति की अवधारणा से अलग है। मुमकिन है कि वे यह मानते हैं जिन लोगों ने अपने क्षेत्र की रक्षा की और अपनी सत्ता स्थापित की, वे क्षत्रिय कहलाए। इसी आधार पर उन्होंने बुद्ध को भी क्षत्रिय माना।

ब्राह्मणों ने कई प्रकार से दलितों को हानि पहुंचाई है। जैसे अस्पृश्यता के नियम ब्राह्मणों ने बनाए और दलितों पर लादे तथा उन्हें शिक्षा से वंचित रखा। यहां तक कि उन्होंने दलितों को धर्म से वंचित रखकर उनकी अलग पहचान नहीं बनने दी। डॉ. धर्मवीर बताते हैं कि “ब्राह्मणी दृष्टि इस बात के लिए जिम्मेदार है कि दलित समाज के धर्म की अलग पहचान नहीं बनने दी जाती। उनका अपना अलग धर्म है, उस धर्म की अलग परिभाषा है, लेकिन हिंदू लेखक इसे जबरन अपने में मिलाना चाहते हैं। इस प्रकार, दलितों द्वारा किए गए धार्मिक विद्रोह के सारे इतिहास को नाम मात्र का बताकर और ऊपर-ऊपर से हिंदुओं द्वारा अपने में समा लेने की गुप्त प्रक्रिया ही कबीर के पृथक धर्म की स्थापना में अड़चन और फलस्वरूप असफलता है।”[5] दलितों को धार्मिक दृष्टि से मजबूत करने के लिए डॉ. धर्मवीर ने ‘दलित धर्म’ की बात उठाई है। उनका मानना है कि कबीर का पृथक धर्म ही दलित धर्म है। डॉ. धर्मवीर के शब्दों में ही जाना जाय कि “कबीर का, हिंदू धर्म और मुसलमान धर्म से, सर्वथा अलग धर्म है। यह दलित धर्म है।”[6]

डॉ. धर्मवीर

उल्लेखनीय है कि कबीर जुलाहा परिवार में जन्मे। कुछ हिंदी आलोचक उन्हें इस आधार पर पिछड़े वर्ग के साथ जोड़ कर देखते हैं। जबकि डॉ. धर्मवीर उन्हें आजीवक मानते हैं और दलित धर्म से जोड़ते हैं।

डॉ. धर्मवीर न तो हिंदू धर्म को दलितों के लिए ठीक मानते हैं, न ईसाई, न मुसलमान और ना ही बौद्ध धर्म को। वे ‘आजीवक धर्म’ को दलितों का मूल धर्म मानते हैं। यहां हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई धर्म के बारे में चर्चा करना प्रसांगिक नहीं होगा, क्योंकि दलितों का इन धर्मों से ज्यादा लगाव नहीं रहा है। दलितों का जिस धर्म से ज्यादा लगाव है, वह बौद्ध धर्म है। डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने 14 अक्टूबर, 1956 को धर्मांतरण कर बौद्ध धर्म ग्रहण किया। डॉ. आंबेडकर के साथ-साथ हजारों की संख्या में दलितों ने भी धर्मांतरण किया। अब सवाल उठता है कि जब डॉ. आंबेडकर दलितों को बौद्ध धर्म देकर गए हैं, तो दलितों के लिए नए धर्म की जरूरत क्यों है? डॉ. धर्मवीर ने यह अनुभव किया कि दलितों के पास अपना धर्म होना चाहिए और दूसरी बात, धर्मांतरण के द्वारा दलितों की समस्याएं हल नहीं हुई हैं। दलित खुद अपनी धार्मिक लड़ाई लड़ें और दूसरों पर आश्रित न रहें। दलितों को अपने पैरों पर खड़ा होना है। वे लिखते हैं कि “दलित अपने संघर्ष की जिम्मेदारी लेने से क्यों बचता है? जो लड़ाई उसके ऊपर थोपी गई है, उबाल खाकर, वह उसे लड़ता क्यों नहीं है? वह बौद्ध, सिख, इस्लाम और ईसाइयत के घरों में लुकता-छिपता क्यों फिर रहा है? क्या उसे यकीन है कि वहां-वहां ब्राह्मण द्वारा ढूंढ नहीं लिया जाएगा? सच यही है कि वह किसी भी धर्मांतरण के द्वारा लड़ नहीं रहा है बल्कि छिप रहा है।”[7] दलित कहीं भी जाएगा ब्राह्मण उनकी समस्याओें को हल नहीं होने देते हैं। डॉ. धर्मवीर आगे कहते हैं कि “वह कहीं भी छिपे ब्राह्मण द्वारा खोज लिया जाता है और वहीं दलित बनाया जाता है। यहां ‘दलित बौद्ध’, ‘दलित मुसलमान’ और ‘दलित ईसाई’ के शब्द वास्तव में मौजूद और प्रचलन में हैं।”[8]

दलित धर्मांतरण करके किसी भी धर्म में जाए तो उससे पहले ब्राह्मण वहां मौजूद है। वे आगे लिखते हैं, “आखिर, तब दलित क्या करेगा जब ब्राह्मण भी उससे पहले बौद्ध, सिख, मुसलमान या ईसाई बन जाता है? सही बात यह है कि दलित और ब्राह्मण की यह ऐतिहासिक लड़ाई हर धर्म में लड़ी जा रही है। इसीलिए दलित का काम है कि यदि ब्राह्मण ने उसे चुनौती दी है तो वह उसे हिम्मत से स्वीकार करे। यह युद्ध है – इस दृष्टि से इस लड़ाई में कुछ भी अलौकिक नहीं हैं। यह सांसारिक और सम्मान की लड़ाई है।”[9] दूसरी बात, यह है कि जब दलितों के पास सदगुरु है तो उनका धर्म भी होगा। उसे खोजने की जरूरत थी।

डॉ. धर्मवीर ने डॉ. आंबेडकर के धर्मांतरण को उचित नहीं माना है। उनके इस निर्णय की आलोचना करते हुए वे कहते हैं कि डॉ. आंबेडकर को दलितों को धर्म के मामले में मजबूती से खड़ा करना चाहिए था। डॉ. आंबेडकर और उनके बौद्ध धर्म के संबंध में डॉ. धर्मवीर के विचार इस प्रकार हैं–

  1. “डॉ. आंबेडकर के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बारे में यही कहा जा सकता है कि यह कोट दलित जीवन की नाप का नहीं है। इस पुराने और उतरे हुए कोट को पहनकर दलित शरीर का जाड़ा नहीं मिटा है।”[10]
  2. “जरूरत इस बात की थी कि बाबा साहब अपनी नाप का पहनावा खुद सी लेते। बौद्ध धर्म और बौद्ध दर्शन दलित विचार में खपते और जंचते नहीं हैं। उतरन तो उतरन ही है।”[11]
  3. “पहले इशारा किया जा चुका है कि दलित चिंतन को सबसे पहले और भारी धक्का ढाई हजार साल पहले बुद्ध के चिंतन के रूप में लगा था। उस धक्के और धोखे से दलित चिंतन आज तक उभर नहीं सका है। उलटे डॉ. आंबेडकर के रूप में वह इस धोखे में फंसता ही जा रहा है।”[12]
  4. “राजकुमार बुद्ध संघर्षशील दलित का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते थे।”[13]
  5. “वास्तव में, बुद्ध ने केवल अपनी लड़ाई लड़ी थी और वह भी ठीक तरीके से नहीं लड़ी थी। उनका दलित की समस्या से कुछ लेना-देना नहीं था।”[14]
  6. “बुद्ध की समस्या एक साधन संपन्न व्यक्ति की समस्या थी। ऐसी समस्या का समाधान दलित के लिए किसी मतलब का नहीं हो सकता। नुकसान यह हुआ है कि आज के दलितों ने बुद्ध के बहकावे में आकर अपने स्वतंत्र चिंतन की खोज करना छोड़ रखी है।”[15]
  7. “बुद्ध का धर्म मूलतः बेघर वालों का धर्म है। गृहस्थ लोगों के लिए इसमें कोई सम्मान और आकर्षण नहीं है। गृहस्थ और भिक्षु की तुलना में उन्होंने भिक्षु जीवन को तहजीह दी है। व्यक्ति को बिना भिक्षु बनाए बुद्ध के पास उनकी समस्याओं का कोई समाधान नहीं है।”[16]
  8. “डॉ. आंबेडकर अपने समय के गांधी के रूप में जन्मे नए बुद्ध से तो जुझारू होकर लड़े थे लेकिन ढाई हजार वर्ष पहले बुद्ध के रूप में जन्मे पुराने गांधी के शिष्य बन गए थे।”[17]
  9. “वास्तव में, आज दलितों को अपने ऐतिहासिक डॉ. आंबेडकर की खोज करनी है, जो बुद्ध के समय में बुद्ध से ऐसे ही लड़े, जैसे आज के गांधी के सामने वे लड़े थे। ऐसे किसी डॉ. आंबेडकर ने उस समय जरूर जन्म लिया होगा। दलित चिंतन की दृष्टि से कोई युग इतना खाली नहीं जा सकता है, जितना बुद्ध का युग खाली दिखाया जाता है।”[18]
  10. “बौद्ध धर्म दलितों को क्या दे सकता था? उल्टे दलितों का काम यह हो गया है कि वे बौद्ध धर्म पर लगाए गए ऐतिहासिक लांछनों को अपने सिर पर ढोएं। सही बात यह है कि बाबा साहब ने बौद्ध धर्म अख्तियार कर दलितों की जो समस्या उभार कर बताई है, उन्हें छोड़ा या भुलाया नहीं जा सकता।”[19]
  11. “बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म और परलोक के सिद्धांतों का ठीक से खंडन नहीं हो पाता है, जिसकी दलितों की बहुत आवश्यकता पड़ती है। बौद्ध धर्म से वर्ण-व्यवस्था, जाति-प्रथा और अस्पृश्यता का भी गृहस्थ जीवन में खंडन नहीं हो पाता है– वह इनका खंडन केवल भिक्षु वर्ग में कर पाता है।”[20]

डॉ. धर्मवीर ने बताया कि बौद्ध धर्म से दलितों की समस्या हल नहीं हुई है। दलितों की धार्मिक समस्याओं के समाधान के लिए डॉ. आंबेडकर को खुद अपना धर्म खड़ा करना चाहिए था। यहां देखा जा सकता हैं कि डॉ. धर्मवीर धर्म के संबंध में डॉ. आंबेडकर से स्पष्ट रूप से असहमत हो गए हैं।

डॉ. धर्मवीर के उपर्युक्त विचारों के संबंध में हमें कुछ दलित चिंतकों के विचारों को जानना चाहिए। मसलन, डॉ. तुलसीराम उनकी आलोचना करते हुए कहते हैं, “धर्मवीर दलितों के लिए अलग धर्म की स्थापना जैसी बातें करके लोगों को दिवास्वप्न दिखाना चाहते हैं। वे कहते हैं कि संसार की कई कौमें अपने अलग धर्म को लेकर मजबूती से खड़ी हैं। यह बात सही है, लेकिन अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में।”[21]

डॉ. तुलसीराम लिखते हैं कि “धर्मवीर दलितों के जिस इतिहास चिंतन की ओर अपने नेतृत्व में ले जाने की बात करते हैं, ठीक उसी चिंतन से वे पूर्णतया अनभिज्ञ हैं, वर्ना महामानव बुद्ध को ढाई हजार वर्ष पूर्व गांधी का अवतार नहीं मानते।”[22] वह फिर से लिखते हैं कि “बाबा साहब आंबेडकर ने जिस गांधी के खिलाफ संघर्ष किया था, वह गांधी वर्ण व्यवस्था का अपने समय का सबसे बड़ा पोषक था। अतः डॉ. आंबेडकर का गांधी विरोध वर्ण व्यवस्था का विरोध था।’’[23]

डॉ. धर्मवीर ने एक नई बात अपने चिंतन में उठाई और वह यह कि बौद्धधर्म में भी वर्ण-व्यवस्था का क्रम हैं। डॉ. धर्मवीर लिखते हैं कि “यह एक खास बात है कि थेरीगाथा की पहली थेरी क्षत्रियकुलोत्पन्न है। शुरूआत किसी भी थेरी के नाम से की जा सकती थी, लेकिन नाम के अज्ञात रहने पर भी क्षत्रिय कुल की थेरी से की गई है। यह उस वर्णक्रम से पूर्णतया मेल खाने वाली बात है कि बौद्ध धर्म में वर्णक्रम क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र का है। इस पहले क्रम की क्षत्रिय कुल की थेरी के बाद तत्काल दूसरा नाम ब्राह्मण कुल की थेरी का है। क्या यह संयोग है कि यहां बौद्ध वर्ण-व्यवस्था का क्रम मिलता है जिसमें क्षत्रिय पहले और ब्राह्मण बाद में आता है?”[24]

लेकिन डॉ. तुलसीराम लिखते हैं, “जहां तक बौद्ध का सवाल है तो जो काम डॉ. आंबेडकर ने बीसवीं सदी में किया, वही काम ढाई हजार वर्ष पूर्व महामानव बौद्ध ने किया था। बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था के खिलाफ जबरदस्त संघर्ष चलाया था।”[25] जब बुद्ध ने वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष किया तो डॉ. आंबेडकर को फिर से क्यों जूझना पड़ा? एक ही काम दो व्यक्तियों को करने की जरूरत क्यों पड़ी?

वहीं दलित लेखक तेज सिंह लिखते हैं कि “डॉ. धर्मवीर के दलित धर्म का विचार डॉ. आंबेडकर और बौद्ध धर्म के विरोध के अलावा कुछ भी नहीं है।”[26]

जबकि डॉ. श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ लिखते हैं कि “बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा धर्म-परिवर्तन कर लेने के कारण दलित साहित्य का काफी हिस्सा बुद्ध धम्म से प्रेरित है, लेकिन मेरे मन में आज भी द्वंद्व बरकरार है कि क्या अपने समय के समृद्ध सम्पन्न और शायद क्षत्रिय राज-घराने में पैदा हुए भगवान बुद्ध को अस्पृश्यता बहिष्कार का अनुभव हुआ होगा? क्या संघ में निम्न जातियों को समान प्रवेश देने वाले महामानव बुद्ध ने समान हैसियत दी होगी?”[27]

डॉ. श्यौराज सिंह बैचेन आगे लिखते हैं कि “वरिष्ठ चिंतक डॉ. धर्मवीर का वह वाक्य कि बुद्ध के युग में भी कोई दलित चिंतक दलित हकों के लिए अवश्य लड़ रहा होगा, उन्हीं का दूसरा अवदान मक्खलि गोसाल का दिशाचार-धर्म क्या बिल्कुल विचारणीय नहीं है?”[28]

दलित चिंतक कंवल भारती बौद्ध धर्म से दलित के रिश्ते को उचित मानते हैं। वे लिखते हैं, “बौद्ध धर्म से दलितों का रिश्ता सिर्फ इस कारण नहीं हो सकता कि उसे डॉ. आंबेडकर ने स्वीकार किया था। डॉ. आंबेडकर का बुद्धानुराग भी सिर्फ एक धर्म की तलाश के रूप में नहीं हो सकता था। यदि ऐसा होता, तो ईसाई, इस्लाम या सिख धर्म भी दलित मानस से अपना रिश्ता बना सकते थे। पर ऐसा नहीं हुआ। ईसाई, इस्लाम और सिख धर्मों में दलितों का सामूहिक धर्मांतरण भी इन धर्मों से दलितों का रिश्ता नहीं बना सका। इसके विपरीत बौद्ध धर्म के प्रति वे दलित भी अनुराग रखते हैं या उदारवादी दिखाई देते हैं और उसका समर्थन भी करते हैं, जो बौद्ध धर्म के अनुयायी नहीं हैं।”[29]

गौर तलब है कि दलितों का बौद्ध धर्म से रिश्ता डॉ. आंबेडकर के कारण जुड़ा है। डॉ. आंबेडकर से पहले अपवाद को छोड़कर दलित बौद्ध के प्रति आकर्षित नहीं हुए।

डॉ. धर्मवीर के विचारों को लेकर लेखक जयप्रकाश कर्दम का मत है– “प्रश्न उठता है कि क्या इस तरह का आचरण करने वाले लोगों को बाबा साहब का अनुयायी अथवा आंबेडकरवादी कहा जा सकता है? समाज का एक अन्य वर्ग है, जो कहता कि हम बाबा साहब को तो मानते हैं, लेकिन बुद्ध को नहीं मानते। इस वर्ग के कुछ बद्धिजीवियों का यह भी कहना है कि बौद्ध धर्म दलितों की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत नहीं करता। सिद्धार्थ की समस्या एक राजकुमार की समस्या थी, दलित-दर्द की अनुभूति उसे नहीं थी। इसलिए सिद्धार्थ अर्थात गौतम बुद्ध का धर्म दलितों के लिए उपयुक्त नहीं है। इनकी राय में दलितों का अलग धर्म होना चाहिए।”[30]

जयप्रकाश कर्दम उसे ही आंबेडकरवादी मानते हैं जिसने बौद्ध के सिद्धांतों का अपना लिया हो, उनके विचार इस प्रकार हैं– “बाबा साहब को मानने का तात्पर्य है कि उनके विचारों को उनकी समग्रता में अपनाना। डॉ. आंबेडकर के अनुयायी के लिए जरूरी है कि बौद्ध धर्म के मानववादी सिद्धांतों को अपनाए, अपने जीवन को उनके अनुरूप ढालें।”[31]

यहां दलित चिंतक कंवल भारती की बात गौर तलब हैं कि “बौद्ध धर्म पर मुग्ध दलित चिंतक कुछ समझना नहीं चाहते, क्योंकि बुद्धवाद ने उनकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट कर दी है।”[32] कंवल भारती यह भी बताते है कि बुद्धवाद ने आंबेडकरवादी आंदोलन को नुकसान भी पहुंचाया हैं। वे लिखते हैं कि “आंबेडकर के समाजवादी आंदोलन को सबसे ज्यादा नुकसान अगर किसी ने पहुंचाया, तो वह ‘बुद्धवाद’ है। जिस तरह बुद्ध ने अंगुलिमाल को हथियार डलवाकर सामंतवाद के खिलाफ उसके विद्रोह को शांत कर दिया था, उसी प्रकार दलितों के बुद्धवाद ने व्यवस्था के खिलाफ आंबेडकर की सारी लड़ाई को ठंडा कर दिया है।”[33] डॉ. धर्मवीर की यह बात सत्य हो सकती है कि “दलित चिंतन को सबसे पहला और भारी धक्का ढाई हजार साल पहले बुद्ध के चिंतन के रूप में लगा था।”[34]

क्रमश: जारी

संदर्भ :

[1] दलित चिंतन का विकास : अभिशप्त चिंतन से इतिहास चिंतन की ओर, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2008, पृ. 7
[2] वही, पृ. 7
[3] वही पृ. 78
[4] कबीर : बाज भी, कपोत भी, पपीहा भी; डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-दरियागंज, नई दिल्ली, 110002, प्रथम संस्करण, 2000 पृ. 7
[5] कबीर के आलोचक, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-दरियागंज, नई दिल्ली, 110002, द्वितीय संस्करण, 2000, पृ. 40
[6] कबीर : बाज भी कपोत भी पपीहा भी, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-दरियागंज, नई दिल्ली 110002, प्रथम संस्करण, 2000, पृ. 7
[7] दलित चिंतन का विकास : अभिशप्त चिंतन से इतिहास चिंतन की ओर, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2008, पृ. 83
[8] वही, पृ. 83
[9] वही, पृ. 83
[10] वही, पृ. 15
[11] वही, पृ. 15
[12] वही, पृ. 78
[13] वही, पृ. 78
[14] वही
[15] वही, पृ. 78-89
[16] थेरीगाथा की स्त्रियां और डॉ. आंबेडकर, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-दरियागंज, नई दिल्ली – 110002, प्रथम संस्करण, 2008, पृ. 67
[17] दलित चिंतन का विकास : अभिशप्त चिंतन से इतिहास चिंतन की ओर, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2008 पृ. 77
[18] वही, पृ. 77
[19] वही, पृ. 141
[20] वही
[21]दलित समाज के नए ‘साइ’ बाबा”, तुलसीराम, स्त्री नैतिकता का तालीबानी करण, संपादक रमणिका गुप्ता, विमल थोरात, सह-संपादक अनिता भारती, प्रोमिला नव चेतना, प्रकाशन, संस्करण, 2009, पृ. 80
[22] वही, पृ. 81
[23] वही, पृ. 81-82
[24] थेरीगाथा की स्त्रियां और डॉ. आंबेडकर, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-दरियागंज, नई दिल्ली – 110002, प्रथम संस्करण, 2005, पृ. 18
[25]दलित समाज के नए ‘साइ’ बाबा”, तुलसीराम, स्त्री नैतिकता का तालीबानीकरण, संस्करण, 2009, पृ. 82
[26] दलित संस्कृति और समाज, डॉ. तेज सिंह, आधार प्रकाशन, पंचकुला (हरियाणा), प्रथम संस्करण, 2007, पृ. 158
[27]अघोषित पाबंदियों के बीच सत्ता-विमर्श और दलित’, श्यौराज सिंह बेचैन (अतिथि संपादक), हंस, अगस्त, 2007, पृ. 12
[28] वही, पृ. 12
[29] दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म, कंवल भारती, स्वराज प्रकाशन, अंसारी रोड़, दरियागंज नई दिल्ली-2, संस्करण-2012, पृ. 13
[30] हिंदुत्व और दलित, जयप्रकाश कर्दम, सागर प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली 110032, प्रथम सं., 2007, पृ. 40
[31] हिंदुत्व और दलित, जयप्रकाश कर्दम, सागर प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली 110032, प्रथम सं., 2007, पृ. 40
[32] वही, पृ. 40
[33] वही, पृ. 4
[34] दलित चिंतन का विकास : अभिशप्त चिंतन से इतिहास चिंतन की ओर, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-ए दरियागंज, नई दिल्ली – 110002, प्रथम संस्करण, 2008, पृ. 78

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

सुरेश कुमार

युवा आलोचक सुरेश कुमार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद इन दिनों नवजागरण कालीन साहित्य पर स्वतंत्र शोध कार्य कर रहे हैं। इनके अनेक आलेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हैं।

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