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समान नागरिक संहिता : देश भर के आदिवासी कर रहे विरोध

नगालैंड ट्राइबल काउंसिल (एनटीसी) भी यूसीसी के विरोध में आ गई है। उसका मानना है कि यूसीसी संविधान के अनुच्छेद 371ए के प्रावधानों को कमजोर कर देगा, जिनमें कहा गया है कि नगाओं की धार्मिक या सामाजिक प्रथाओं, नगा प्रथागत कानून एवं प्रक्रिया से संबंधित और अन्य मामलों में संसद का कोई भी अधिनियम राज्य पर लागू नहीं होगा। बता रहे हैं मनीष भट्ट मनु

लोकसभा चुनाव से पूर्व एक बार फिर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपानीत सरकार ने समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का दांव खेला है। हमेशा की तरह यूसीसी को लेकर नागर समाज दो धड़ों में बंटा नजर आ रहा है। जहां एक धड़ा इसके फायदे गिनाते नहीं थक रहा, वहीं दूसरे को इसमें तमाम खामियां नजर आ रही हैं। मुसलमान और ईसाई सहित कई अल्पसंख्यक समुदायों को यह प्रतीत हो रहा है कि यूसीसी लागू करना दरअसल आरएसएस द्वारा भारत को हिंदू राष्ट्र की ओर ले जाने का एक कदम हैं। वहीं अब इस मुल्क का आदिवासी समुदाय, जो पहले से ही विस्थापन और पहचान के संकट झेल रहा है, सशंकित हो चला है कि यूसीसी के बहाने उससे उसकी वह विशिष्ठ पहचान भी छीन ली जाएगी, जो संविधान द्वारा उसे प्रदत्त की गई है।

उल्लेखनीय है कि 22वें विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता को लेकर जनता से सुझाव मांगे हैं। यह भी सच है कि सुझाव मांगें जाने से कानून बनने तक के सफर को अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना है। लेकिन आदिवासी समाज, जो पहले से ही आरएसएस और उसके अनुषंगी संगठनों द्वारा आदिवासियों की पहचान मिटाने के लिए किए जा रहे प्रयासों को लेकर सशंकित था, ने अपने-अपने स्तर पर विधि आयोग की इस पहल का विरोध करना शुरू कर दिया है। उन्हें लगता है कि यूसीसी कई जनजातीय प्रथागत कानूनों और अधिकारों को कमजोर कर सकता है। हमेशा की ही तरह आदिवासी समाज के विरोध के स्वर सबसे पहले झारखंड से उठे और अब उसकी गूंज देश के विभिन्न प्रांतों में सुनाई दे रही है।

22वें विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता को लेकर मांगे गए सुझाव से पहले 9 दिसंबर, 2022 को भाजपा के राज्यसभा सांसद किरोड़ी लाल मीणा ने राज्यसभा में समान नागरिक संहिता पर निजी बिल प्रस्तुत करते हुए कहा था कि देश में ‘समान नागरिक संहिता’ लागू होनी चाहिए। मीणा यहीं नहीं रुके, निजी बिल प्रस्तुत करने के बाद उन्होंने ही ‘डिलिस्टिंग’ के मुद्दे को उछाला था। उनके अनुसार धर्मांतरित आदिवासियों को अनुसूचित जनजातियों के लोगों को मिलने वाला आरक्षण समाप्त किया जाना चाहिए, क्योंकि ईसाई धर्म में धर्मांतरित होने के बाद वे अपनी संस्कृति, परंपरा एवं विश्वास को खो चुके हैं।

समान नागरिक संहिता से आदिवासियत के खत्म होने का खतरा

समान नागरिक संहिता और डीलिस्टिंग जैसे मुद्दे हमेशा से ही संघ परिवार के प्रिय रहे हैं। ऐसे में यह संदेह लाजमी है कि इन मुद्दों के बहाने संघ परिवार आदिवासियों की परंपरा, रूढ़ि-प्रथा एवं स्वशासी कानूनों को खत्म करने का प्रयास कर रहा है। वे प्रश्न करते हैं कि क्या परंपरा, रूढ़ि-प्रथा एवं स्वशासी कानूनों के बगैर आदिवासियों का अस्तित्व बचेगा? भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 (1 एवं 2) के अंतर्गत किसी भी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने या हटाने का अधिकार संसद को है। ऐसे में समान नागरिक संहिता के लागू होने के बाद अनुच्छेद 342 (1 एवं 2) के तहत अनुसूचित जनजाति में शामिल करने या हटाने का आधार क्या होगा? आदिवासियों को मौजूदा विशेष अधिकार किस आधार पर मिलेगा?

इन सब बातों को लेकर बीते 25 जून, 2023 को झारखंड की राजधानी रांची में विभिन्न आदिवासी संगठनों के प्रतिनिधि आदिवासी समन्वय समिति (एएसएस) के बैनर तले यूसीसी पर चर्चा के लिए एकत्रित हुए थे। बैठक में सर्वानुमति से फैसला हुआ कि वे विधि आयोग से समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के विचार को वापस लेने का आग्रह करेंगे। उन्होंने विधि आयोग द्वारा यूसीसी पर नए विचार के खिलाफ आंदोलन शुरू करने का भी निर्णय लिया। इन आदिवासी संगठनों का मानना है कि यूसीसी के बहाने संघ और उसके अनुषांगिक संगठन आदिवासी प्रथागत कानूनों, छोटानागपुर काश्तकारी (सीएनटी) और संथाल परगना काश्तकारी (एसपीटी) अधिनियम, पेसा कानून, पांचवीं अनुसूची क्षेत्र के नियमों सहित आदिवासियों के विवाह और तलाक कानूनों को खत्म करने की साजिश कर रहे हैं।

एएसएस के सदस्य देव कुमार धान ने बैठक में लिए गए निर्णयों की जानकारी देते हुए कहा कि हमने विधि आयोग को पत्र लिखकर यूसीसी के विचार को वापस लेने का आग्रह किया है। एएसएस का मानना है कि इसके लागू होने से देश भर में आदिवासियों की पहचान खतरे में पड़ सकती है। बैठक में यह भी तय किया गया कि झारखंड के विभिन्न आदिवासी समुदाय आगामी 5 जुलाई, 2023 को रांची स्थित राजभवन के सामने प्रदर्शन कर राज्यपाल को ज्ञापन सौंपकर यूसीसी को वापस लेने के लिए केंद्र से अनुरोध करने का आग्रह करेंगे। यदि उनकी मांग नहीं मानी गई तो देशभर के आदिवासी संगठनों को साथ लेकर नई दिल्ली में प्रदर्शन भी किया जाएगा। 

आदिवासी जन परिषद (एजेपी) के अध्यक्ष प्रेम साही मुंडा ने कहा कि आदिवासी अपनी जमीन से गहराई से जुड़े हुए हैं। हमें डर है कि दो आदिवासी कानूनों – छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम – यूसीसी के कारण प्रभावित हो सकते हैं। दोनों कानून आदिवासी भूमि को सुरक्षा प्रदान करते हैं। उन्होंने कहा कि दोनों कानूनों में संशोधन के लिए पहले भी कई प्रयास किए गए हैं।

वहीं नगालैंड ट्राइबल काउंसिल (एनटीसी) भी यूसीसी के विरोध में आ गई है। उसका मानना है कि यूसीसी संविधान के अनुच्छेद 371ए के प्रावधानों को कमजोर कर देगा, जिनमें कहा गया है कि नगाओं की धार्मिक या सामाजिक प्रथाओं, नगा प्रथागत कानून एवं प्रक्रिया से संबंधित और अन्य मामलों में संसद का कोई भी अधिनियम राज्य पर लागू नहीं होगा। एनटीसी ने मांग की है कि नगालैंड को यूसीसी के दायरे से बाहर रखा जाए ताकि अनुच्छेद 371ए के ‘कड़ी मेहनत से अर्जित अविभाज्य प्रावधान’ अछूते रहें। 

इसके साथ ही मेघालय की खासी हिल्स ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल (केएचएडीसी) ने भी यूसीसी के विरोध में 24 जून, 2023 को एक प्रस्ताव पारित किया है। केएचएडीसी के मुख्य कार्यकारी सदस्य पाइनिएड सिंग सियेम ने कहा कि यह प्रस्तावित कोड खासी समुदाय के रीति-रिवाजों, परंपराओं, प्रथाओं, शादी और धार्मिक स्वतंत्रता जैसे मुद्दों को प्रभावित करेगा। उल्लेखनीय है कि खासी जैसे आदिवासी समुदायों को संविधान की छठी अनुसूची में विशेष अधिकार मिले हुए हैं। खासी एक मातृसत्तात्मक समुदाय है जहां परिवार की सबसे छोटी बेटी को पारिवारिक संपत्ति का संरक्षक माना जाता है और बच्चों को उनकी मां का उपनाम दिया जाता है। वहीं एक अन्य उत्तरपूर्वी और आदिवासी बहुल राज्य मिजोरम का विरोध विधि आयोग के सुझाव मांगने से पहले से जारी है। यहां की विधानसभा ने फरवरी, 2023 में ही एक प्रस्ताव पारित कर यूसीसी लागू करने से जुड़े किसी भी कदम का विरोध करने का संकल्प लिया था।

संविधान में यूसीसी का लेकर क्या है? 

संविधान के अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा। मतलब संविधान सरकार को सभी समुदायों के उन मामलों को लेकर एक कानून बनाने का निर्देश दे सकता है, जो मौजूदा समय में उनके व्यक्तिगत कानून के दायरे में हैं। 

बताते चलें कि सर्वप्रथम 1835 में समान नागरिक संहिता की अवधारणा को लेकर एक रिपोर्ट पेश की गई थी, जिसमें अपराधों, सबूतों और अनुबंधों जैसे विषयों पर भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता लाने की बात कही गई थीं। हालांकि उस रिपोर्ट में हिंदू व मुसलमानों के पर्सनल लॉ को इस एकरूपता से बाहर रखने की सिफारिश की गई थी। जब व्यक्तिगत मुद्दों से निपटने वाले कानूनों की संख्या बढ़ने लगी तो सरकार ने 1941 में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिए बी.एन. राव समिति गठित कर दी। इसी समिति की सिफारिशों के आधार पर हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों के लिए उत्तराधिकार से संबंधित कानून को संशोधित एवं संहिताबद्ध करने के लिए 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम को अपना लिया गया। हालांकि मुस्लिम, ईसाई और पारसियों के लिए अलग-अलग व्यक्तिगत कानून लागू रहे।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

मनीष भट्ट मनु

घुमक्कड़ पत्रकार के रूप में भोपाल निवासी मनीष भट्ट मनु हिंदी दैनिक ‘देशबंधु’ से लंबे समय तक संबद्ध रहे हैं। आदिवासी विषयों पर इनके आलेख व रपटें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहे हैं।

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