वर्ष 2024 में भाजपा की राह उत्तर प्रदेश में जितनी आसान नजर आती है, बिहार में उससे कहीं ज्यादा मुश्किल है। देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देने का श्रेय भले ही उत्तर प्रदेश को जाता हो, 1975 में इंदिरा गांधी को हराने के लिए प्रतिक्रियावादी ताकतें एकजुट हुईं तो उन्हें सबसे बड़ी उम्मीद बिहार में ही दिखाई पड़ी थी। समाजवाद का विचार जिनके कभी गले नहीं उतरता था, उन्हें एक वयोवृद्ध समाजवादी को अपना नायक चुनना पड़ा। जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी नेता के जुड़ने का असर यह हुआ था कि युवा समाजवादी मिजाज के नेता भी प्रतिक्रियावादी आंदोलन को परिवर्तनकारी मानकर प्राण-प्रण से उसमें कूद पड़े। सरकार के भ्रष्टाचार के विरोध में उठे आंदोलन को ‘संपूर्ण क्रांति’ का नाम दिया।
यह बात अलग है कि जनसंघ और उसके जैसी अन्य शक्तियां केंद्र में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपात्काल को लोकतंत्र की हत्या का नाम दे रही थीं, उन्हें न तो लोकतंत्र में किंचित विश्वास था और ना ही समाजवाद में उनकी निष्ठा थी। यह उन्होंने सिद्ध भी कर दिया था। कर्पूरी ठाकुर भी कथित ‘संपूर्ण क्रांति’ के नेताओं के साथ थे। प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने 1978 में मुंगेरी लाल आयोग की रिपोर्ट लागू करने का फैसला किया था। उसमें पिछड़ों और महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था थी। रिपोर्ट लागू होते ही प्रतिक्रियावादी विषधर अपना फन फैलाने लगे। कर्पूरी ठाकुर की सरकार गिरने के साथ-साथ जनता पार्टी में भी फूट पड़ गई। जिस समस्या से आज पूरा देश जूझ रहा है, उसकी नींव दरअसल उन्हीं दिनों पड़ी थी। प्रेमकुमार मणि के शब्दों में–
“मोरारजी सरकार में दरअसल जो शुद्ध गैर-कांग्रेस था, वह था जनसंघ का अंश। इसके दो मंत्री थे, लालकृष्ण आडवाणी और अटलविहारी वाजपेयी … इन दोनों ने सूचना प्रसारण मंत्रालय और विदेश मंत्रालय अपने जिम्मे लिया और धीरज के साथ अपनी मूल पार्टी जनंसघ और आरएसएस का आधार पुख्ता करने की सभी कोशिशें कीं … वे समझदारी व चालाकी से अपना काम कर रहे थे।” [1]
‘संपूर्ण क्रांति’ अंततः रेलगाड़ी का नाम बनकर रह गई। तो क्या बिहार को असफल क्रांतियों का ‘देश’ कहा जाए? यह इसलिए कि संपूर्ण क्रांति के मूल में अवसरवादी शक्तियां थीं? वे शक्तियां, जो केंद्र सरकार के विरुद्ध जनाक्रोश की आड़ में अपना घोर जातिवादी और सांप्रदायिक एजेंडा पूरा करना चाहती थीं। बिहार की जनता ने उन्हें कभी माफ नहीं किया। कर्पूरी ठाकुर की सरकार गिरने के बाद वहां सवर्ण मुख्यमंत्री केवल साढ़े सात साल रहे, जबकि पिछड़े और दलित वर्गों के मुख्यमंत्रियों ने 30 वर्षों से ज्यादा शासन संभाला है।
यह बात ठीक है कि इसके लिए उन्हें कई बार भाजपा जैसे दलों का समर्थन लेना पड़ा। फिर भी, पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के शब्दों में कहें तो शताब्दियों तक ‘रेलगाड़ी के डिब्बे रहे लोगों का इंजन की भूमिका में आ जाना’ लोकतंत्र की छोटी उपलब्धि नहीं है। बिहार में सांप्रदायिक ताकतें इसलिए कामयाब न हो सकीं, क्योंकि वहां की मूल संस्कृति का विकास विहारों और चैत्यों से हुआ है।
समाजवाद की आदि प्रेरणा
ढाई हजार वर्ष पहले जब उत्तर भारत का बड़ा हिस्सा यज्ञ आधारित संस्कृति की गिरफ्त में आ चुका था, यज्ञ के नाम पर निरीह पशु बलि चढ़ा दिए जाते थे, उस समय बिहार की भूमि से ही नए धर्म और संघ के पक्ष में आवाजें उठी थीं। उससे पहले वहां यज्ञ-संस्कृति के धुर विरोधी आजीवक दार्शनिक थे। अपने कठिन व्रतों, निस्पृह-अनुशासित और नीति-सम्मत जीवन-शैली के बल पर उन्होंने ब्राह्मणवाद का शताब्दियों तक सामना किया था। नए धर्म-दर्शन के गठन के मूल में भी आजीवक दर्शन की प्रेरणाएं थीं। निस्संदेह उसके नायक गौतम बुद्ध थ्े। देखा जाए तो वे इस देश के पहले आंदोलनकारी थे।
ब्राह्मण कहते– “वेद-शास्त्रों की मानो … उनके विरुद्ध मत जाओ”
बुद्ध का कहना था– “केवल अपने विवेक को मार्गदर्शक बनाओे … अप्प दीपो भव:”
ब्राह्मणों का नारा था– “धर्म की शरण में आओ, तभी कल्याण होगा”
बुद्ध ने कहा– “केवल मनुष्य ही मनुष्यों का भला कर सकता है। इसलिए संघ में शामिल होकर, मनुष्यता के नवनिर्माण के लिए निकल पड़ो … चरथ भिक्खवे चारिकम्, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय।”
ब्राह्मणों फुसलाते– “यज्ञ करो, बलि चढ़ाओ, घी-धूप-दीप-हव्य आदि समर्पित करो तो देवता प्रसन्न हो, कल्याण करेंगे”
बुद्ध, कबीर जैसी उलटबांसी करते– “आज तक कभी किसी देवता ने किसी भी इंसान का भला नहीं किया। उनका अस्तित्व अप्रामाणिक है, पुराण झूठे हैं। मनुष्य अपने साथ-साथ, देवता हैं तो, उनका भी भला कर सकता है … लोकानुकंपाय, अत्थाय हिताय, सुखाय देव मनुस्सानं।”
जॉन रस्किन की पुस्तक ‘अनटू दिस लास्ट’ का ‘सर्वोदय’ शीर्षक से अनुवाद करते हुए गांधी ने कहा था कि राज्य को समाज के अंतिमजन तक पहुंचकर उसका भला करना चाहिए। खुद रस्किन का कहना था कि उन्हें इसकी प्रेरणा बाइबिल के एक दृष्टांत से मिली थी, जिसे उन्होंने पुस्तक के एकदम आरंभ में उद्धृत किया था। यही बुद्ध का भी दर्शन था, जो केवल अंतिम जन का ही कल्याण नहीं चाहते थे, बल्कि आदि, मध्य और अंत में जो भी मौजूद है, सबके कल्याण की कामना उनके दर्शन में है –“देसेथ भिक्खवे धम्मं आदिकल्याण मंझे कल्याणं परियोसान कल्याणं…”[2]
यही तो समाजवाद है जिसका पहला संदेश बुद्ध की धरती से आया था। वहीं से वह पूरी दुनिया में फैला।
नुकसान भी उठाना पड़ा
अहिंसा हो, इंसानियत हो या फिर समाजवाद, बिहार के बुद्धिजीवी-दार्शनिक हमेशा इनके पक्ष में खड़े रहे। ढाई हजार वर्ष पहले के बुद्ध के संदेश को पूरी दुनिया ने अपनाया, लेकिन अपने ही देश में, बिहार सहित जहां-जहां लोगों ने इसे तवज्जो दी, उन्हें इसका नुकसान उठाना पड़ा। आप कोई भी पुराण, महाकाव्य, स्मृति या ब्राह्मण ग्रंथ देख लीजिए, सभी में मगध और उसके आसपास के क्षेत्र की आलोचना है। वहां के निवासियों को नास्तिक, अनीश्वरवादी, पाषंड, धूर्त्त, अधर्मी वगैरह और न जाने क्या-क्या कहा गया है। मगध को पुराणों में कीकट प्रदेश भी कहा गया। ब्राह्मणों ने गाय को पूज्य माना। लेकिन तब तक जब तक लोग उनका और उनके धर्म का सम्मान करे। कीकट प्रदेश के निवासियों को ब्राह्मण धर्म से परहेज था। वे नास्तिक, अनीश्वरवादी थे, ऐसे प्रदेश की गायें भी ब्राह्मणों ग्रंथों में नफरत का पात्र बनी रहती हैं–
“हे इंद्र! कीकट (मगध) प्रदेश की गायें भला किस काम की। उनका न तो दूध तो तुम्हारे काम आता है, न ही सोमरस के साथ मिलकर वह यज्ञ-पात्रों को गर्माहट प्रदान करता है। इसलिए ओ इंद्र! उन नैचाशाखों (निम्न जातीय लोगों) का धन मुझे दिला दो।”[3]
ऋग्वेद के ख्यात टीकाकार सायण मगधवासियों को नास्तिक और अनार्य घोषित कर देते हैं। इस विद्वेष से कोई पुराण, कोई स्मृतिग्रंथ या धर्मशास्त्र बच नहीं पाया। प्रतिस्पर्धी विचारों के प्रति जो असहिष्णुता संस्कृत ग्रंथों में है, उतनी और वैसी असहिष्णुता शायद ही किसी और भाषा के साहित्य में हो। महाभारत के अनुसार कलिंग, मगध, अंग आदि देशों से आए अनेक योद्धा कुरुक्षेत्र के कथित धर्मयुद्ध में इस ओर या उस ओर से शामिल थे। दावा किया गया था कि कुरुक्षेत्र की भूमि पर गिरा हर योद्धा स्वर्ग जाएगा। उसी युद्ध की भूमि पर महाभारतकार अपने मन में पैठे जातीय विद्वेष को नहीं छिपा पाते। कहते हैं कि कारस्करान के अलावा महिषक, कलिंग, कीकट, अटवी, कर्कोटक के निवासियों के साथ-साथ अन्य धर्महीन लोगों से हमेशा बचकर रहना चाहिए।[4]
आजीवकों का विरोध
मगध में ही एक आजीवक मक्खलि गोसाल थे, जो शांति ही श्रेष्ठतम है[5], की भावना में विश्वास करते थे। वैनायिक थे (आजीवक परिव्राजकों की एक शाखा) जो जड़ और चेतन सभी के प्रति विनत भाव रखा करते थे।[6] उनके दर्शन को पहले लोकायत (जनसाधारण का मत) बताकर हलका करने की कोशिश की गई। हाथ में कलम होने के कारण जब यह षड्यंत्र कामयाब हुआ तो उन्हें सीधे-सीधे ‘चार्वाक’ कहा जाने लगा। दूसरों के परिश्रम, दान-दक्षिणा के भरोसे खाने-पीने, मौज-मस्ती करने वाले ‘देवता’। जनसाधारण अपने श्रम का खुद लाभ उठाना चाहे तो ‘चार्वाक’। “किसी वस्तु को तलवार से काटा जाए तो उसका कुछ नहीं बिगड़ता। तलवार वस्तु के आर-पार जाकर शून्य में लहर जाती है।”’ प्रकृति की अनश्वरता और वैराट्य का सम्मान करने वाले पूरण कस्सप यह कहें तो ‘अकर्मण्यवाद’। गीता जब कहे कि तलवार उसे काट नहीं सकती, अग्नि उसे जला नहीं सकती, तो वह कर्मयोग। इस तरह के कथन चोरी और सीनाजोरी नहीं तो और क्या है?
दक्षिण भारतीय का माकूल जवाब
संस्कृत ग्रंथों में जो दृष्टि कीकट, कलिंग, महिषक जैसे देशों के प्रति रही, उसका सामना धुर दक्षिण के प्रदेशों को भी करना पड़ा था। महाकाव्यों और पुराणों में उन्हें असुर, राक्षस की संतान कहा गया। लेकिन दक्षिण को आयोथि थास, सिंगारवेलर, पेरियार ई.वी. रामासामी जैसे नेता और बुद्धिजीवी मिले। सवर्णों ने जब उन्हें राजनीति और संसाधनों में समुचित हिस्सा देने से इंकार कर दिया तो उन्होंने ब्राह्मणधर्म को ही नकार दिया था। यह कहकर कि हम तो द्रविड़ हैं, हमारी संस्कृति ब्राह्मण धर्म से भी पुरानी है, और वे द्रविड़ संस्कृति के पुनरुत्थान में लग गए। वर्षों तक अपने हक की लड़ाई लड़ी। अंततः ‘ब्राह्मण-राज’ का खात्मा हुआ। आज वहां द्रविड़ संस्कृति फल-फूल रही है; और दक्षिणपंथ को अपनी जमीन तलाशने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है।
ऐसा नहीं है कि उत्तर भारत इन दक्षिण के आंदोलन से अछूता रहा हो। साठ के दशक में ही पेरियार ने उत्तर भारत की कई यात्राएं की थीं। उनका प्रभाव बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश तक नजर आया। उन दिनों ‘बिहार के लेनिन’ कहे जाने वाले जगदेव प्रसाद ने नारा दिया था–
सौ में नब्बे शोषित हैं, नब्बे भाग हमारा है,
दस का शासन नब्बे पर, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा
धन, धरती और राजपाट में, नब्बे भाग हमारा है
इस 90 या 85 प्रतिशत को राजनीति की मुख्यधारा में लाने के लिए लालू प्रसाद यादव ने भी काम किया था। लेकिन अभिजात वर्ग की भाषा और संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले, मीडिया ने उन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया। ये वे लोग हैं जो गुरुकुलों की तारीफ में तो कसीदे गढ़ते हैं, मगर लालू प्रसाद यादव द्वारा खुलवाए गए 354 चरवाहा विद्यालयों पर नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। जबकि यह योजना उन गरीब बच्चों के लिए, जिन्हें घर के कामकाज में हाथ बंटाना पड़ता था, वरदान जैसी थी।
2024 की चुनौतियां
23 तारीख को पटना में गठबंधन के स्वरूप पर विचार होगा। 2020 में हुए विधानसभाचुनावों में भाजपा-गठबंधन को एक-चौथाई से भी कम, मात्र 23 प्रतिशत वोट मिले थे। बाकी 77 प्रतिशत वोट जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस तथा स्थानीय पार्टियों के हिस्से गया। लेकिन इस बार बिहार की राजनीति के दोनों धुंरधरों के अलावा कांग्रेस और वामदल भी साथ होंगे। इससे प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं के आगे असमंजस जैसी कोई स्थिति नहीं होगी। केंद्र सरकार और खासतौर पर नरेंद्र मोदी की छवि भी पहले जैसी नहीं है। पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा को मात्र 17 सीटें मिली थीं। इस बार वह इकाई में सिमट सकती है।
भविष्य की राजनीति तय कर सकता है बिहार
यदि सोच-समझ कर, मनोयोग से और सामाजिक न्याय की वैचारिकी को केंद्र में रखकर गठबंधन की रणनीति तैयार हो तो 23 दिसंबर, 2023 का दिन भविष्य की राजनीति की दिशा तय कर सकता है। इस बार नीतीश कुमार, जो 16 वर्षों से अधिक समय से प्रदेश के मुख्यमंत्री रह हैं, उन्हें प्रदेश का मोह छोड़कर केंद्र की ओर बढ़ना चाहिए। उनके साथ तेजस्वी सहित दूसरे बड़े नेता भी केंद्र में जाने पर विचार कर सकते हैं। बिहार में जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी और उत्तर प्रदेश में अनुप्रिया पटेल, संजय निषाद जैसे नेता हैं, जो अपने परिवार को मिलने वाली एक-दो सीटों के बदले में अपनी-अपनी जाति के वोटों का सौदा करते रहे हैं। अच्छा हो इस बार वे सामाजिक न्याय की वैचारिकी को केंद्र में रखकर अपनी भूमिका तय करें। इससे निश्चय ही उनका आत्मविश्वास बढ़ेगा और वोट-बैंक भी।
लगभग 56 वर्ष पहले बाबू जगदेव प्रसाद ने कहा था– “मैं एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण कर रहा हूं, इसलिए इसमें आने और जाने वालों की कमी नहीं रहेगी, परंतु इसकी धारा रुकेगी नहीं। इसमें पहली पीढ़ी के लोग मारे जाएंगे, दूसरी पीढ़ी के लोग जेल जाएंगे तथा तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे।” तीसरी पीढ़ी राज कर सके, आने वाला समय उसकी डगर तैयार करने का है। अच्छी बात यह है कि इस बार दक्षिण में स्टालिन पेरियार की वैचारिकी को उत्तर भारत तक फैलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। नीतीश कुमार जैसे नेता उनके संपर्क में हैं। जरूरत उनका साथ देने, मनोबल बढ़ाने और भविष्य की न्याय केंद्रित राजनीति की भूमिका गढ़ने की है।
संदर्भ
[1] अकथ कहानी, प्रेमकुमार मणि, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ 148
[2] महावग्ग, विनयपिटक
[3] किं ते कृण्वन्ति कीकटेषु गावो नाशिरं दुह्रे न तपन्ति धर्मम्
आ नो भर प्रमगन्दस्य वेदो नैचाशाखं मघवन् रन्धया नः —ऋग्वेद 3.53.14
[4] कारस्करान्महिषकान्कलिङ्गाकीकटावीन्
कार्कोटकान्वीरकांश्च दुर्धर्मांश्च विवर्जयेत्। महाभारत शल्यपर्व, 8.30.45
[5] शान्तिर्वः श्रेयषीति, कशिकावृत्ति, अष्ठाध्यायी भाष्य, 6.1.154
[6] वैनयिकमतं विनयश्चेतोवाक् कायदानतः कार्यः
सुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराघममातृपितृषु सदा। सुत्तनिपात, 828
(संपादन : नवल/अनिल)