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बनारस में जुलाहों के मुहल्ले में कबीर जयंती के आयोजन पर प्रशासनिक रोक, उठ रहे सवाल

जुलाहा समुदाय के फैजुल रहमान अंसारी का कहना है कि “कबीर की जयंती शहर में हर साल मनाई जाती रही है, लेकिन हमेशा कबीर के मठ तक ही सीमित रखा गया है।” पढ़ें, यह खबर

कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ/ जो घर फूंके आपनो, चले हमारे साथ’ कबीर का यह विद्रोही स्वर युगों-युगों से लोगों को परिवर्तन की लड़ाई के लिए प्रेरित करता रहा है। सत्ताधारी वर्गों को कबीर के विचार हमेशा ख़तरनाक लगते हैं। इसका एक उदाहरण अभी हाल ही में देखेने को मिला जब बनारस जिला प्रशासन ने कबीर जयंती के अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम को पूर्व निर्धारित समय से एक घंटा पहले ही स्थगित करा दिया। बताया जा रहा है कि ऐसा जी-20 के प्रतिनिधियों की बैठक को ध्यान में रखकर किया गया।

मामला गत 11 जून का है। कबीर की 625वीं जयंती के मौके पर बनारस के नाटी इमली की बुनकर कॉलोनी में बड़ी संख्या में लोग जुटे थे। इस सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए 24 मई को ही स्थानीय प्रशासन से अनुमति ले ली गई थी और बीच-बीच में आयोजकों व प्रशासन के मध्य संवाद भी जारी था। लेकिन आयोजन के दिन यानी 11 जून को तय समय से एक घंटा पहले प्रशासन ने आयोजन की अनुमति नहीं दी। इसे लेकर बनारस के बुद्धिजीवियों में गहरा आक्रोश व्याप्त है।

बताते चलें कि कबीरचौरा में हर वर्ष कबीर जयंती के अवसर पर बड़ा आयोजन होता है। इसमें लेखकों-बुद्धिजीवियों के अलावा सांसद व विधायक आदि भी भाग लेते हैं। इस साल भी 7 जून से 11 जून तक बनारस के अलग-अलग बुनकर मोहल्लों में ‘ताना-बाना कबीर का’ नाम से एक अभियान चलाया गया।

बताते चलें कि ‘कबीर जन्मोत्सव समिति’ ने पिछले एक सप्ताह भर के अभियान के तहत नाटी इमली में 4 जून को, वरुणा पुल स्थित विश्वज्योति केंद्र में 6 जून को, अमरपुर बठलोहिया में 7 जून को, बाजार दीहा में 8 जून को, पीली कोठी में 9 जून को और भैसासुर घाट में 10 जून को कार्यक्रम का आयोजन किया गया। अंतिम कार्यक्रम नाटी इमली मुहल्ले में होना था।

समिति के सदस्य और जुलाहा समुदाय के फैजुल रहमान अंसारी का कहना है कि “कबीर की जयंती शहर में हर साल मनाई जाती रही है, लेकिन हमेशा कबीर के मठ तक ही सीमित रखा गया है।” इस वर्ष कई सामाजिक कार्यकर्ता आगे आए और विभिन्न बस्तियों में बड़े पैमाने पर कबीर से जुड़े कार्यक्रमों का आयोजन करने का निर्णय लिया। वे कहते हैं कि “हम कबीर के विचारों को समुदाय के भीतर पहुंचाना चाहते थे, जिनमें बहुत-से लोग दृढ़ता से जुड़े हुए हैं। हम समुदायों के बीच नफरत को दूर करने और भाईचारे का माहौल बनाने की उम्मीद करते हैं।”

बनारस के नाटी इमली मोहल्ले में कार्यक्रम स्थगित किये जाने के बाद का दृश्य

वहीं आयोजक समिति के एक और सदस्य मनीष शर्मा का कहना है कि “15 दिन पहले आयोजनों की अनुमति मिल गई थी। हमने एक पुलिस अधिकारी से पूछा तो हमें बताया गया कि उन्हें इस समारोह को रोकने का आदेश उच्च अधिकारियों द्वारा दिया गया था, लेकिन उसने आला अधिकारियों का नाम लेने से इंकार कर दिया। 

फैजुल रहमान अंसारी अपने बयान में आगे कहते हैं कि जुलाहा समुदाय और बुनकर समुदाय एक है। इसे धर्म या जाति के लिए सजातीय समुदाय होने के रूप में कम नहीं किया जा सकता है। किसान की तरह, हमारी सामाजिक और राजनीतिक पहचान हमारे व्यवसाय से आती है। वास्तव में शहर के भीतर बुनकरों में ज्यादातर मुस्लिम हैं, लेकिन बाहरी इलाकों और ग्रामीण इलाकों में बुनकरी करने वाले हिंदू भी बहुतायत में हैं।

वहीं मनीष शर्मा आगे कहते हैं कि कबीर की जयंती के मौके पर आयोजन को रोकना सत्ता की साजिश है। वे बुनकरों की दुर्दशा पर चर्चा नहीं चाहते। यह बुनकरी के पारंपरिक कब्जे पर हमला है। 

उन्होंने यह भी कहा कि “समिति कानूनी तौर पर कार्यक्रम आयोजित करने की उनकी अनुमति को अचानक वापस लेने को चुनौती देने की तैयारी कर रही है। समिति का व्यापक दृष्टिकोण है। जहां हम अधिकारियों को इस तरह के अन्याय से दूर नहीं होने देंगे। वहीं कबीर के सार और विचारों को जन-जन तक पहुंचाने का अभियान जारी रहेगा।” 

नाटी इमली मुहल्ले में आयोजन पर अंतिम समय में रोक लगाए जाने पर अनेक बुद्धिजीवी भी सरकार की आलोचना कर रहे हैं। लेखक व साहित्यकार स्वदेश कुमार सिन्हा का कहना है कि “जहां वर्तमान शासन संत कबीर, रविदास, तुकाराम, बासवन्ना और अन्य भक्ति-सूफी संतों की मूर्तियों पर माल्यार्पण करता है, वहीं इस घटना से पता चलता है कि वह भारत के इन कवियों और संतों की शिक्षाओं पर चर्चा करने से डरता है। वे सवाल उठाते हैं कि जब शहर भर के विभिन्न वर्गों के लोग कबीर जयंती मनाते हैं, तो जुलाहा समाज के लोग क्यों नहीं मना सकते?”  

वहीं ‘गांव के लोग’ पत्रिका के संपादक रामजी यादव ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि “स्थानीय प्रशासन का यह कदम एकदम निंदनीय है। कबीर को यदि बुनकर और जुलाहा समुदाय के लोग याद करना चाहते हैं, तो उनकी जयंती मनाने का अधिकार प्राप्त है। लेकिन प्रशासन ने इस पर प्रतिबंध लगाकर अपने जातिगत भेदभाव वाली छवि को ही पेश किया है। इसमें कोई नई बात नहीं है। साथ ही, यह बेहद निंदनीय है।”

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)

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एफपी डेस्‍क

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