अभी हाल ही में दिल्ली में संसदीय समिति की एक बैठक के बाद चाणक्यपुरी के रास्ते मधु लिमये मार्ग से गुजरा। यह देखकर बहुत खुशी होती है कि जाने-माने समाजवादी नेता के नाम पर लुटियंस जोन में एक सड़क है। लिमये जिस संसदीय क्षेत्र से प्रतिनिधि के बतौर संसद में निर्वाचित होकर आए थे, मुझे उसी संसदीय क्षेत्र बांका, बिहार से लोकसभा का सदस्य बनने का तीन बार मौका मिला है।
अब जब पलटकर वापस देखता हूं तब लगता है कि इस देश में यदि मंडल आयोग की अनुशंसाओं को लागू न किया गया होता तो शायद जनप्रतिनिधित्व का यह मौका मुझ जैसे पिछड़े परिवार में पैदा हुए साधारण इंसान को नहीं मिलता। मेरे पिता भारतीय रेल में एक साधारण कर्मचारी थे। ऐसी स्थिति में राजनीति में अपनी पैठ बनाना तो दूर की कौड़ी ही लगती थी।
राजनीति और समाज को अलग-अलग करके बिल्कुल नहीं देखा जा सकता है। जनता के बीच अपनी बात रखने का साहस भी मैं निश्चित तौर पर 1990 के बाद ही जुटा पाया। आरक्षण के बाद बहुजन समाज शैक्षणिक रूप से तो मजबूत हुआ ही, सामाजिक स्तर पर भी उनकी चेतना में जबरदस्त बदलाव आया। यह बदलाव समय की मांग थी।
मैं अपने जीवन में भी सामाजिक स्तर के इस चेतनागत बदलाव को स्पष्ट रूप से देखता हूं। इसी बदलाव के फलस्वरूप 1996 के लोकसभा चुनाव को भी देखता हूं। 1996 में मैं पहली बार बांका संसदीय क्षेत्र से लोकसभा का सदस्य निर्वाचित हुआ। इसी संसदीय क्षेत्र से 1989 -1991 में जनता दल के ही टिकट से दिवंगत श्री प्रताप सिंह सांसद होते थे, जो भूतपूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह के समधी थे।
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आज 25 जून को वी. पी. सिंह की 92 वीं जयंती है। महज यह केवल संयोग नहीं बल्कि सोची समझी साज़िश के तहत सामाजिक न्याय में उनके योगदान को नजरअंदाज किया गया है। हम यह कैसे भूल सकते हैं कि मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद इस देश के समस्त बहुजन समाज (पिछड़ा वर्ग, दलित वर्ग, आदिवासी समुदाय व अल्पसंख्यक समाज) में अभूतपूर्व सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना आई।
आज देश जाति जनगणना की मांग कर रहा है और अपनी नुमाइंदगी के लिए सत्ता के द्वार पर दस्तक दे रहा है। डॉ. आंबेडकर एवं बी.पी. मंडल के साथ-साथ वी.पी. सिंह के योगदान को बहुजन समाज भुला दे तो यह सिवाय अहसानफरामोशी के और कुछ नहीं होगा।
मैं पिछड़े वर्ग से आनेवाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से आग्रह करता हूं कि पिछड़ों के हक के लिए अपनी कुर्सी छोड़ देने वाले भूतपूर्व प्रधानमंत्री के लिए कोई राष्ट्रीय प्रतिष्ठान की घोषणा करें।
हमने देखा कि वी.पी. सिंह द्वारा लागू किए गए मंडल आयोग की सिफारिश का फायदा पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों को केवल सरकारी नौकरियों में मिला है। यह दुखद है कि पिछड़ी जाति से आनेवाले ज्यादातर युवा क्रीमीलेयर रूपी अवरोधक की वजह से स्पर्धा से ही बाहर हो गए। हमने देखा कि 1992 में सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट के बाद जब नौकरियों में आरक्षण की सुविधा लागू हुई तब उसके डेढ़ दशक बाद भी केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थानों – आईआईटी, आईआईएम, एम्स और केंद्रीय विश्वविद्यालयों जेएनयू, जामिया मिल्लिया, दिल्ली विश्वविद्यालय आदि, – में पिछड़ी जातियों से आनेवाले अभ्यर्थियों के लिए कोई आरक्षण की व्यवस्था नहीं थी। अफसोस की बात है कि तत्कालीन एनडीए सरकार ने इसकी कोई जरूरत नहीं समझी।
वर्ष 2004 में जब डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए-1 की सरकार बनी, उस समय भी मैं बांका लोकसभा संसदीय क्षेत्र से प्रतिनिधि के बतौर चुन कर आया था और सत्तारूढ़ दल का हिस्सा था। इसी दौरान तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की घोषणा की।
इससे दुखद क्या हो सकता है कि अभी 2019 में संसद के पिछले दरवाजे से लाए गए ईडब्लूएस कोटे का सीट भर जाता है और 2006-07 से लागू ओबीसी पदों पर या तो इंटरव्यू नहींं किये जाते और कभी-कभार किये भी गए तो उन्हें नॉट फाउंड सुटेबल करार देकर ऐसी सीटों को रिक्त छोड़ दिया जाता है। इससे बड़ी त्रासदी है कि आरक्षित वर्ग की सीटों को जेनरल केटेगरी में तब्दील कर दिया जाता है। कहने को तो इस देश में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन भी हुआ, लेकिन वही ढाक के तीन पात।
मैं भारत सरकार से आग्रह करता हूं कि निर्धारित समय सीमा के भीतर रोस्टर के अनुसार अब तक खाली रह गए सभी आरक्षित सीटो को भरा जाय। इसके लिए एक नेशनल मॉनिटरिंग सिस्टम का गठन किया जाय। एनएफएस जैसी परंपरा को अतिशीघ्र खत्म किया जाय। इन सारे पदों के लिए होने वाले इंटरव्यू का वीडियो रिकॉर्डिंग किया जाय ताकि आरक्षित वर्ग से आनेवाले अभ्यर्थियों के साथ होनेवाले भेदभाव का एक ब्यौरा रखा जाय तथा इसका एक दस्तावेज तैयार हो। सबसे महत्वपूर्ण जातीय जनगणना की यथाशीघ्र घोषणा की जाय।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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