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समान नागरिक संहिता का मसविदा कहां है?

इस तर्क में कोई दम नहीं है कि यूसीसी से राष्ट्रीय एकता मज़बूत होगी। हम अमरीका से सीख सकते हैं जहां के 50 राज्यों में अलग-अलग कानून लागू हैं। बता रहे हैं राम पुनियानी

बाइसवें विधि आयोग की अधिसूचना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उसे लागू करने की जबरदस्त वकालत के चलते सामान नागरिक संहिता (यूसीसी) एक बार फिर चर्चा में है। चुनाव-दर-चुनाव, यूसीसी भाजपा के घोषणापत्रों का हिस्सा रही है। सन 1996 के घोषणापत्र में यूसीसी को ‘नारी शक्ति’ खंड में शामिल किया गया था। तब से लेकर आज तक भाजपा यूसीसी का मसविदा तैयार नहीं कर सकी है। हमें आज तक यह पता नहीं है कि यूसीसी के लागू होने के बाद; विवाह, तलाक, गुज़ारा भत्ता, संपत्ति के उत्तराधिकार और बच्चों के संरक्षण के संबंध में क्या नियम और कानून होंगे। 

अब तक ऑल मुस्लिम लॉ बोर्ड और कुछ मुस्लिम संगठन इसके खिलाफ आवाज़ उठा चुके हैं। इस बार, आदिवासियों और सिक्ख संगठन भी इसका विरोध कर रहे हैं।

केंद्रीय सरना समिति के एक पदाधिकारी संतोष तिर्की ने कहा, “वह (यूसीसी) विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और भूमि के हस्तांतरण के संबंध में हमारे प्रथागत कानूनों पर अतिक्रमण करेगी….”। झारखंड के ही एक अन्य नेता रतन तिर्की ने कहा, “अपना विरोध दर्ज करने के लिए हम विधि आयोग को ईमेल भेजेंगे। हम ज़मीनी स्तर पर भी विरोध करेंगे। हम अपनी रणनीति तैयार करने के लिए बैठकें कर रहे हैं। यूसीसी  से संविधान की पांचवीं और छठवीं अनुसूची के प्रावधान कमज़ोर हो जाएंगे।”

राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के एक घटक दल और पूर्वोत्तर के एक भाजपा नेता ने कहा कि वे इसका विरोध करेंगे। भाजपा के राज्यसभा सांसद सुशील मोदी, जो संसद की विधि एवं न्याय स्थायी समिति के अध्यक्ष हैं, ने पूर्वोत्तर राज्यों सहित आदिवासी इलाकों में यूसीसी लागू करने की व्यवहार्यता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। (इंडियन एक्सप्रेस, 4 जुलाई, 2023)

पंजाब के शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) ने भी यूसीसी का विरोध किया है। वही इसके युवा नेता गुरजीत सिंह तलवंडी ने अपने व्यक्तिगत बयान में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (एसजीपीसी) से कहा कि वह यूसीसी को सिरे से ख़ारिज न करे बल्कि विधि आयोग के साथ परामर्श करे। “इंडियन मुस्लिम्स फॉर सेक्युलर डेमोक्रेसी” जैसे प्रगतिशील मुस्लिम संगठनों ने ऐसे वैयक्तिक कानून (पर्सनल लॉ) बनाने की मांग की है, जिनका किसी धर्म से सरोकार नहीं हो।

न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) ऋतुराज अवस्थी, अध्यक्ष, बाइसवां विधि आयोग

गौर तलब है कि व्यक्तिगत और पारिवारिक कानून, दीवानी और फौजदारी कानूनों से अलग होते हैं। दीवानी और फौजदारी कानून सभी धर्मों के लोगों पर समान रूप से लागू होते हैं। व्यक्तिगत कानूनों को ब्रिटिश सरकार ने संबंधित धर्मों के पुरोहित वर्गों के परामर्श से तैयार किया था। हिंदुओं के व्यक्तिगत कानूनों में बहुत विभिन्नता थी। मुख्यतः मिताक्षरा और दायभाग कानून लागू थे। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, हिंदू पर्सनल लॉ के लैंगिक दृष्टि से अन्यायपूर्ण होने से चिंतित थे और इसलिए उन्होंने आंबेडकर से हिंदू कोड में सुधार प्रस्तावित करने के लिए कहा था। उस समय मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार की बात सरकार की ओर से इसलिए नहीं की गई, क्योंकि विभाजन के दौर में हुए दंगों के जख्म ताज़ा थे और सरकार नहीं चाहती थी कि ऐसा लगे कि मुसलमानों पर कोई कानून उनकी मर्ज़ी के खिलाफ लादा जा रहा है। बाद में मुस्लिम लॉ को कुछ हद तक संहिताबद्ध किया गया और तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किया गया। तीन तलाक को भी अपराध इसलिए घोषित किया गया ताकि समाज को हिंदू-मुस्लिम के आधार पर ध्रुवीकृत किया जा सके और मुसलमानों को कानून तोड़ने वालों के रूप में प्रस्तुत किया जा सके।

आंबेडकर न्याय और समानता के जबरदस्त पक्षधर थे और वे स्पष्ट देख सकते थे कि हिंदू पर्सनल लॉ, महिलाओं को पराधीन रखने और उनके ऊपर ज़ुल्म करने के हथियार हैं। आंबेडकर ने लैंगिक समानता पर आधारित हिंदू कोड बिल तैयार किया लेकिन इसका इतना जबरदस्त विरोध हुआ कि सरकार को उसके कई प्रावधानों को हटाना पड़ा और उसे कई चरणों में लागू करने का निर्णय लेना पड़ा। हिंदुओं के पुरातनपंथी तबके, जिसे हिंदू राष्ट्रवादियों का पूरा समर्थन हासिल था, ने आंबेडकर के त्यागपत्र की मांग की। आंबेडकर स्वयं भी हिंदू कोड बिल पर प्रतिक्रिया से मर्माहत थे और उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। हिंदू कोड बिल के विरोध में गीता प्रेस की ‘कल्याण’ पत्रिका सबसे आगे थी। गीता प्रेस को वर्तमान सरकार द्वारा गांधी शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया है। कल्याण ने लिखा, “अब तक तो हिंदू जनता उनकी बातों को गंभीरता से ले रही थी। परंतु अब यह साफ़ है कि आंबेकर द्वारा प्रस्तावित हिंदू कोड बिल, हिंदू धर्म को नष्ट करने के उनके षड्यंत्र का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। अगर उनके जैसा व्यक्ति देश का विधिमंत्री बना रहता है तो हिंदुओं के लिए यह घोर अपमान और शर्म की बात होगी और यह हिंदू धर्म पर एक धब्बा होगा।”

यूसीसी की मांग उभरते हुए नारीवादी आंदोलन की ओर से ज़रूर की गई थी। वर्ष 1970 के दशक की शुरुआत में, मथुरा बलात्कार कांड के बाद इस मांग ने जोर पकड़ा। उस समय यह मान्यता थी कि एकरूपता से महिलाओं को न्याय मिलेगा। आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर ने के.आर. मलकानी को दिए एक साक्षात्कार में यूसीसी का विरोध करते हुए कहा था कि “भारत में विविधताओं के चलते यूसीसी लागू नहीं किया जा सकता।” (द आर्गेनाइजर, 23 अगस्त 1972) 

अतः इस तर्क में कोई दम नहीं है कि यूसीसी से राष्ट्रीय एकता मज़बूत होगी। हम अमरीका से सीख सकते हैं जहां के 50 राज्यों में अलग-अलग कानून लागू हैं। अब अधिकांश महिला संगठन भी यूसीसी की बजाय लैंगिक न्याय पर जोर देने लगे हैं। क्या तलाक, उत्तराधिकार और बच्चों के संरक्षण से संबंधित नियमों को लोगों पर लादने से लैंगिक न्याय स्थापित हो जाएगा?  

क्या यूसीसी को ज़बरदस्ती लागू करना ठीक होगा? क्या यूसीसी लाद देने से, प्रथागत परंपराएं और प्रथाएं ख़त्म हो जाएंगी? ये सवाल महत्वपूर्ण हैं। आज जरूरत इस बात की है कि विभिन्न धार्मिक समुदायों के अंदर से सुधार की प्रक्रिया शुरू हो और लैंगिक न्याय सुनिश्चित किया जा सके। यह सही है कि विभिन्न समुदायों का प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले व्यक्तियों के बारे में हम यह नहीं कह सकते कि वे अपने पूरे समुदाय और विशेषकर अपने समुदाय की महिलाओें की राय का पूर्णतः प्रतिनिधित्व करते हैं। कई मामलों में पुरुष स्वयं को अपने समुदाय का नेता घोषित कर देते हैं। उनके दावों पर निश्चित रूप से प्रश्नचिह्न लगाए जाने चाहिए और अलग-अलग समुदायों की महिलाओं की राय को महत्व दिया जाना चाहिए और उनकी राय ही वर्तमान कानूनों में सुधार और परिवर्तन का आधार होनी चाहिए।

भाजपा का यह दावा खोखला है कि यूसीसी लागू करने मात्र से महिलाओं का सशक्तिकरण हो जाएगा। अपने नौ साल के कार्यकाल में सरकार बहुत आसानी से समुदायों के भीतर से सुधार की प्रक्रिया की शुरूआत सुनिश्चित कर सकती थी। अलग-अलग समुदायों की महिलाएं समय-समय पर अलग-अलग मुद्दे उठाती रही हैं परंतु उनपर कोई ध्यान नहीं दिया गया। इसके साथ ही अल्पसंख्यकों में बढ़ते असुरक्षा भाव के कारण उनके कट्टरपंथी तबके की समुदाय पर पकड़ और मजबूत हुई है।

भाजपा का एकमात्र लक्ष्य है धार्मिक आधार पर समाज को ध्रुवीकृत करना और यूसीसी भी इसी उद्धेश्य के लिए उठाया गया कदम है। समुदायों के अंदर से सुधार को प्रोत्साहित करना और यह सुनिश्चित करना कि यूसीसी पर किसी भी चर्चा के केंद्र में लैंगिक न्याय हो सबसे जरूरी है। यूसीसी को हां या न कहने की बजाए जरूरी यह है कि यह मांग की जाए कि सरकार सबसे पहले यह साफ करे कि यूसीसी में आखिर होगा क्या? अर्थात यूसीसी का मसविदा बहस और चर्चा के लिए सार्वजनिक किया जाए। हम केवल यह उम्मीद कर सकते हैं कि सभी समुदायों और विशेषकर मुसलमानों के परिपक्व और समझदार प्रतिनिधि यूसीसी का विरोध करने की बजाए यह मांग करेंगे कि यूसीसी का मसविदा तैयार हो।

भाजपा की जो सरकार गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार प्रदान कर सकती है वह महिलाओं के सशक्तिकरण में गहरी रूचि रखती है यह मानना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल होगा। भाजपा का खेल सिर्फ इतना है कि मुस्लिम कट्टरपंथी व्यक्ति और संगठन यूसीसी के विरोध में खड़े हो जाएं और इससे समाज का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और बढ़े और भाजपा की झोली में और वोट आएं। इस षड्यंत्र को असफल करने के लिए यह जरूरी है कि सभी राजनैतिक दल और सामाजिक संगठन यह मांग करें कि पहले यूसीसी का मसविदा तैयार किया जाए और उसके बाद ही वे यह तय करेंगे कि वे उसके खिलाफ हैं या समर्थन में। 

(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

राम पुनियानी

राम पुनियानी लेखक आई.आई.टी बंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।

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