इस साल जैसे ही गर्मी की धमक शुरू हुई, झारखंड के सरायकेला जिला अंतर्गत खरसावां प्रखंड के बिटापुर पंचायत स्थित बरजुडीह गांव के ऊपरटोला में पेयजल संकट गहराने लगा। जब गांव के आदिवासी प्यास से हलकान होने लगे तब गांव की महिलाओं ने देगची व बाल्टी आदि के साथ प्रदर्शन किया। ग्रामीणों के मुताबिक कई बार स्थानीय प्रशासन का ध्यान आकृष्ट कराने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की गई।
खरसावां प्रखंड मुख्यालय से केवल आठ किलामीटर दूर बरजुडीह गांव के लोग पीने के पानी को लेकर काफी परेशानी झेल रहे हैं। गांव में कहने को तीन चापाकल हैं, लेकिन तीनों बंद पड़े हैं। वहीं सौर ऊर्जा द्वारा संचालित जलमीनार केवल दिखावा बन कर रह गया है। करीब साठ घरों वाले इस आदिवासी गांव में इसी वर्ष नल-जल योजना के तहत जलमीनार बनाया गया है। जलमीनार पास बोरिंग भी की गई है, लेकिन ग्रामीणें के अनुसार ठीक ढंग से बोरिंग नहीं कराए जाने के कारण समुचित पानी नहीं मिल रहा है। सप्ताह में दो-तीन दिन ही आधे घंटे के लिए पानी मिल पाता है। ग्रामीण कमीशनखोरी का आरोप भी लगाते हैं। गांव में दो सरकारी एवं एक निजी कुआं हैं, लेकिन वे सब भी सूख गए हैं।
ग्रामीणों के मुताबिक स्थिति यह है कि कोंदाडीह स्थित नाला किनारे खेत में बनी पुरानी दांड़ी से ही गांव की प्यास बुझती है। इसके लिए ग्रामीणों को डेढ़ किलोमीटर दूर जाना पड़ता है।
कोल्हान इलाके के ही पूर्वी सिंहभूम जिला अंतर्गत डुमरिया प्रखंड के पलाशबनी पंचायत का बाकड़ाकोचा गांव भी ‘हो’ जनजातीय बहुल गांव है। इस गांव के लोग भी भीषण पानी के संकट से जूझ रहे हैं। इस गांव में भी मुख्यमंत्री नल-जल योजना के तहत जलमीनार का निर्माण कराया गया था। लेकिन इसका मोटर बंद पड़ा है। ऐसे में इस भीषण गर्मी में लोग दो किलोमीटर दूर बोंगा डुंगरी के जुड़िया नाला से पीने का पानी लाते हैं।
इस बारे में ग्राम प्रधान खेला सोरेन ने बताते है कि जलमीनार का मोटर महीनों से खराब पड़ा है। इसकी सूचना जनप्रतिनिधियों एवं पेयजल स्वच्छता विभाग के अधिकारियों को भी दी गई है। लेकिन अभी तक इस जलमीनार के मोटर को बनाने का प्रयास नहीं किया गया है।
बता दें कि इसी इलाके के बड़ाडहर गांव के ग्रामीण भी सालों-भर पेयजल संकट से परेशान रहते हैँ। लगभग 200 की आबादी वाले इस गांव में कुल 20 परिवार रहते हैं। गांव में पानी की भी काफी समस्या गंभीर है। वैसे एक सरकारी चापाकल से लगा जलमीनार तो है, जो स्थानीय मुखिया द्वारा 4 साल पहले सोलर संचालित बनाया गया था। लेकिन अब चापाकल में लगा मोटर मिट्टी के अंदर धंस गया है।
पेयजल संकट का एक दृश्य पश्चिमी सिंहभूम जिला के ही जंतालबेड़ा गांव में दिखता है, जहां ‘हो’ जनजातीय समुदाय के 300 परिवार रहते हैं। इस गांव में तमाम बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है। गांव में मात्र दो चापाकल सही सलामत हैं। मतलब मात्र दो चापाकल तीन सौ ग्रामीणों की प्यास बुझा रहा है। पेयजल संकट की यह तस्वीर अपने-आप में कितनी तकलीफदेह है, स्वतः समझा जा सकता है।
गांव के साधु बोदरा कहते है कि जंतालबेड़ा में पानी की समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। पानी के लिए लोगों को कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। सुबह से लेकर देर रात तक लोग पानी लेने के लिए कतार में लगे रहते हैं। रानी देवी का कहना है कि जनप्रतिनिधि व सरकारी पदाधिकारी गांव में कभी नहीं आते। जनप्रतिनिधि पांच साल में एक बार दिखाई पड़ते हैं। गांव में सुविधा के नाम पर कुछ भी नहीं है। वे मांग करती हैं कि विभाग गांव की खराब पड़ी जलमीनार व चापाकलों को दुरस्त करे। एक और ग्रामीण विभीषण नायक कहते हैं कि गांव में सबसे बड़ी समस्या पानी की है। पानी के लिए सुबह से ही हमें चिंता सताने लगती है। भीषण गर्मी, ऊपर से पानी की किल्लत, हमलोग दोहरी मार झेलने को मजबूर हैं। गांव की पेयजल संकट जल्द दूर हो, यह हमारी मांग है।
बहरहाल, खनिज संपदाओं से समृद्ध झारखंड में सबसे बड़ी कोई समस्या है तो वह पेयजल का अभाव है। परंपरागत रूप से लोग दांड़ी और चुंआ पर निर्भर रहते आए हैं। दांड़ी, जो खेतों, तालाबों और जोरिया (नदियों से निकला नाला) के बगल में बनाया जाता है और चुंआ वह जिसे नदी के बालू को हटाकर बनाया जाता है। कुछ सालों पहले तक इस तरह के जल की उपलब्धता काफी आसान था। लेकिन आज इस पर ग्रहण लगता दिख रहा है। केंद्र सरकार के भूगर्भीय जल निदेशालय की रिपोर्ट के अनुसार पिछले बीस साल में भूगर्भीय जलस्तर 2 से 6 मीटर तक नीचे जा चुका है। आनेवाले दिनों में यह संकट और भी गहराएगा। झारखंड में आज भी 75 प्रतिशत आबादी पेयजल के लिए चापाकल, कुआं, नदी का चुंआ, खेतों में बने दांड़ी और तालाबों पर ही निर्भर है।
(संपादन : नवल/अनिल)