अभी जब मैं कौशल पंवार की आत्मकथा ‘बवंडरों के बीच’ का पुनर्पाठ कर रही हूं तो मेरी जेहन में मध्य प्रदेश के एक स्कूल में दलित लड़कियों की पानी की बोतल में पेशाब करने की घटना है। लड़कियां अंग्रेज़ी की कक्षा करने के लिए किसी दूसरे कक्ष में गई हुईं थीं। अभी तथ्य बहुत स्पष्ट नहीं हैं, इस कारण बहुत विश्वसनीय तरीके से कुछ नहीं कहा जा सकता है, लेकिन इस घटना से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि स्कूलों में दलित बच्चों के साथ जो व्यवहार हमें दलित आत्मकथाओं में मिलता है, वह आज भी जारी है।
‘शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो’ का जो आह्वान डॉ. आंबेडकर ने दिया था, उसका असर समाज में दिखने लगा है। जिन्होंने उनके शिक्षित होने के आह्वान को आत्मसात किया, उनमें से कई लोगों ने कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ते हुए दलित मोहल्ले, टोलों की गलियों से निकल कर अपना मुकाम बना लिया है। जाहिर तौर पर संगठित होने और संघर्ष करने का मसला अलग है। लेकिन शिक्षित होकर जिन दलितों ने, ख़ास तौर से औरतों ने एक मुकाम हासिल किया है, वह प्रेरणादायक है। इसकी बानगी है कौशल पंवार की आत्मकथा– ‘बवंडरों के बीच’।
हरियाणा के राजौंद गांव की कौशल पंवार इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में संस्कृत की प्रोफेसर हैं। इसके पहले वह दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरू महाविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर रहीं। देश और दुनिया के कई देशों में उन्होंने अपने शोध पत्रों को प्रस्तुत किया है। निस्संदेह वह बौद्धिक जगत में दलित स्त्री की सक्षम प्रतिनिधि हैं। कौशल अपनी सफ़लता का श्रेय अपने चाचा (पिता) को देती हैं, जिन्होंने उन्हें लगातार सपने देखने का हौसला दिया। साथ ही, वह अपनी मां को भी इसका श्रेय देती हैं, जिन्होंने उन सपनों को पूरा करने के लिए साथ दिया। प्राक्कथन में वह कहती हैं–
“आत्मकथा लिखना इतना आसान नहीं है। उन सारे दुखों, तकलीफों, शोषण और हर दिन की ज़िल्लत को एक बार फिर से जीना होता है। अपने अतीत को एक बार फिर से अपने सामने रखना होता है। पर मुझे मंज़ूर है अगर इससे भारतीय समाज की संरचना ज़रा-सी भी दरकती हो तो?”
अपने पिता को वह चाचा क्यों कहती हैं, इसके बारे में उन्होंने लिखा है– “मेरे दो भाई है, एक का नाम सुबे सिंह और दूसरे का नाम सुरेश, मैं तीसरे नंबर पर सबसे छोटी हूं। हमारा परिवार छोटा ही था, ऐसा नहीं था। कई लड़किया और मेरा सबसे छोटा भाई मर गए थे। चाचा की जिद थी कि एक लड़की भी हो, इसलिए उन्होंने मां का आपरेशन नहीं करवाया था। चाचा जी मेहनत मजदूरी करके परिवार का भरण-पोषण करते थे। पिता जी को हम सब चाचा ही कहा करते थे। सभी दलित आबादी अपने पिता को चाचा, काका, बाबू आदि नामों में पुकारती थी। पिता और पापा शब्द तो पढ़े-लिखे लोग ही बोला करते थे। ऐसा स्थापित हो गया था।”
‘बवंडरों के बीच’ आत्मकथा छोटे-छोटे कुल 43 अध्यायों में बंटी है। हर अध्याय एक-दूसरे से अलग, लेकिन जुड़ी हुई कहानी कहते हैं। भाषा बेहद सरल और सहज है।
जहां एक ओर अन्य महिला दलित आत्मकथाएं अपने साथ पूरे समाज की कहानी समग्रता में कहती हैं। ऐसे में उस कहानी में आत्मकथाकार का अपना जीवन कहीं पीछे छूट जाता है। वहीं कौशल पंवार की आत्मकथा ‘बवंडरों के बीच’ आत्मकेंद्रित है। हालांकि अपनी जुबानी वह अपने वाल्मीकि जाति के परिवारों की दुश्वारियों के बारे में भी बताती चलती हैं। साथ ही गांव समाज की चर्चा भी करती हैं। उनके आख्यान से समझा जा सकता है कि वह इन परिवारों की जितनी तकलीफें बयान कर रही हैं, उससे कहीं ज़्यादा वे लोग झेलते होंगे।
कौशल पंवार का जन्म हरियाणा के कैथल जिले के राजौंद गांव में हुआ था। लगभग चालीस हज़ार की आबादी वाला यह एक बड़ा गांव था, जिसमें अनेक जातियों के लोग रहते हैं। आत्मकथा में पंवार बताती हैं कि पूरे गांव के वाल्मीकि समुदाय के टोले में केवल उनके घर के लोग ही पढ़े-लिखे थे। इनके समुदाय के अन्य लोग तब सवर्णों के घरों में मैला उठाते थे। सवर्णों की ठसक और दलितों से दुर्व्यवहार इनके गांव में भी आम था।
गांव की जोहड़ी पर स्थित एक बाबा की झोपड़ी में निस्संतान सवर्ण औरतें आशीर्वाद लेने जाया करती थीं। कौशल जैसे तमाम दलित बच्चे प्रसाद की चाहत में दूर से ही उन्हें देखते रहते। उनकी झोपड़ी में तो छुआछूत तो होता ही था। साथ ही गांव के मंदिरों में भी इनको प्रवेश की अनुमति नहीं थी। कौशल लिखती हैं–
“बाबा के प्रति विश्वास सामान्य वर्ग की महिलाओं में कुछ ज़्यादा ही था। वे सोने के पिंजरे जैसे घर में कैद भी तो रहती थीं। उनका घर से बाहर निकलना उनकी मर्यादा के ख़िलाफ़ माना जाता। मेरे समाज की औरतें तो दिहाड़ी-मजदूरी, खेत खलिहान के कारण घर से बाहर निकल कर काम करती थीं। ….वे पुरुष के बराबर ही काम करतीं थीं। तो उन्हें अधिकार तो स्वतः ही मिल जाते। परंतु इन सवर्ण महिलाओं को तो सिवाय मंदिर की पूजा-पाठ के अलावा घर से बाहर जाना ही नहीं होता था। वे तो अपनी निजता भी घरों में ही रह कर निपटाती थीं। तभी तो हमारे समाज की महिलाएं इस मल और गंध को अपने सिर पर ढोकर, उनके घरों को साफ़ करके कुरडी पर फेंककर आती थीं।”
यह आत्मकथा मासूमियत से इस ‘सभ्य’ समाज पर एक करारा प्रहार करती है। यह इसके बावजूद कि इसमें तारतम्यता का अभाव है। मतलब यह कि एक घटना को बताते-बताते कौशल पंवार सहसा किसी दूसरी घटना का ज़िक्र करने लगती हैं। जब तक वह बात समझ में आती है तो किसी और घटना को बताने लगती हैं। लेकिन वह सब बहुत सहज लगता है। ऐसा लगता है कि एक बिलकुल आम घर में घट रही घटना हो। समूची आत्मकथा में कौशल अपने जीवन में हुए उतार-चढ़ाव, संघर्षों, स्कूल की मुश्किलें, छुआछूत का व्यवहार, सारा कुछ एक सांस में कहती जाती हैं।
कौशल पंवार अपने चाचा (पिता) की बेहद दुलारी और लाडली बेटी थीं। वह बताती हैं कि उनके चाचा उन्हें एक पल के लिए अपनी आंखों से ओझल नहीं होने देते थे। अगर वह कहीं चली जातीं तो वह बेचैन हो जाते। एक बार किसी शादी में कौशल गुम हो गईं। उनके चाचा ने उन्हें खोजने के लिए ज़मीन-आसमान एक कर दिया। पूरी आत्मकथा में कौशल के चाचा उनके साथ एक अंतर्धारा की तरह चलते हैं। जीते जी भी और मरने के बाद भी। उनकी आंखों में एक ही सपना था– वह अपनी चाँद (कौशल पंवार) को बहुत पढ़ा-लिखा कर ‘मैडम जी’ बनाना चाहते थे। लेकिन यह दुखद रहा कि कौशल के ‘मैडम जी’ बनने के बहुत पहले ही टीबी के कारण उनके चाचा की मौत हो गई। कौशल अपने चाचा में बाबा साहेब को देखती हैं। कौशल लिखती हैं–
“मैं हर वक्त चाचा के पीछे-पीछे रहती थी। सभी जगह, जहां पर जाते थे, मुझे साथ-साथ रखते थे। सभी मुझे जयपाल (पिता) का छोटा बेटा कहते थे। चाचा जी ही मेरी देखभाल करते थे। मुझे कब भूख लगती है, कब प्यास लगती है, बस उन्हें ही पता था। ऐसा नहीं था कि मां मेरा ख्याल नहीं रखती थी। पर चाचा को तसल्ली तभी मिलती जब वे मुझे अपने हाथों से कुछ खिला देते।”
कौशल के चाचा मरते दम तक कौशल की ढाल बने रहे। कौशल की पढ़ाई को लेकर उन्होंने कभी भी कोई समझौता नहीं किया। वह खुद निरक्षर थे, लेकिन उन्हें पढ़ने-लिखने का मोल पता था। उनकी मां भी कभी-कभी सामाजिक दबाव में आकर उनकी पढ़ाई के ख़िलाफ़ हो जाती, लेकिन चाचा चट्टान की तरह उनके साथ खड़े रहे।
कौशल के चाचा ने अपनी पत्नी यानि कौशल की मां और बेटी से कभी अपने समाज का पारंपरिक काम यानि सिर पर मैला ढुलाना नहीं कराया। इसके बदले वे दोनों दिहाड़ी मजदूरी करने जाते। कौशल उनकी अनुपस्थिति में घर का कामकाज देखतीं, जिनमें घर के पशुओं यथा– बकरी, मुर्गे-मुर्गियों और सुअरों की देखभाल की जिम्मेदारी शामिल थी। इसके साथ ही वह नियमित स्कूल जाती।
अपनी आत्मकथा में कौशल बताती हैं कि उनके चाचा ने अंधविश्वास के चलते कौशल के पैदा होते ही उसकी शादी अपने किसी दोस्त के होने वाले बेटे से तय कर दी। लेकिन शर्त यह थी कि अगर कोई बच्चा पढ़ेगा नहीं तो शादी नहीं होगी। उसके होने वाले ‘पति’ ने फेल होने के बाद पढ़ाई रोक दी और जानवर चराने लगा। कौशल के चाचा ने शादी तोड़ दी। तब लड़के के परिजनों ने बीस गांवों की पंचायत बुला ली। अंततः फैसला कौशल के पक्ष में हुआ। इसके बाद कौशल के चाचा ने उसकी शादी का कभी नाम नहीं लिया। कौशल के कोमल मन पर इस घटना का बहुत प्रभाव पड़ा था। उसने तय कर लिया था कि वह कभी भी शादी नहीं करेगी।
स्कूल में दलित बच्चों के साथ छुआछूत का व्यवहार कोई नई परिघटना नहीं है। कौशल को भी स्कूल में यह सब झेलना पड़ा। जितना उनके साथ भेदभाव होता, वह उतनी ही मजबूत होती गईं। संस्कृत विषय में उच्च शिक्षा हासिल करनी है, इसका प्रण भी कौशल ने तभी लिया जब उनके संस्कृत के अध्यापक ने दलित होने के कारण उन्हें दुत्कारा कि संस्कृत पढ़ना तुम्हारे वश का नहीं है। कौशल बताती हैं–
“मैं आठवीं में संस्कृत विषय लेकर पढ़ना चाहती थी। इसलिए मैंने मास्टर सुरेन्द्र शास्त्री की कक्षा में जाना चाहा, जो संस्कृत पढ़ाते थे। तो मेरे मास्टर जी ने मुझसे कहा– ‘संस्कृत तुम्हारे वश की नहीं है और वैसे भी तुम्हें तो घरों का गोबर एवं कूड़ा-कचरा ही तो उठाना है, जितना पढ़ रही है, उतना बहुत है। मैं तेरे बाप से बात करूंगा।’ मैंने ठान लिया था कि एक दिन मैंने भी संस्कृत में सबसे ऊंची डिग्री न ली तो …”
कौशल बताती हैं कि उसी मास्टर ने उन्हें संस्कृत पढ़ने के लिए थप्पड़ मारा और अपमानित किया। इतना अपमान झेलने के बाद भी कौशल लगातार आगे बढ़ती रहीं। तमाम आर्थिक अभावों के बावजूद हरेक संघर्ष पार करते हुए कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. किया। एम.ए. के दौरान ही वह आंबेडकरवादी आंदोलन से जुड़ गईं। (उनके अनुसार इसका विवरण वह अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग में करेंगीं) यहीं उनकी मुलाकात उनके जीवन साथी मुकेश से हुई।
इसी दौरान टीबी से उनके चाचा की मौत हो गई। कौशल तो जैसे बिलकुल बेसहारा हो गई। लेकिन इसके बाद उनकी मां ने चाचा की जगह ले ली और मजबूती से पढ़ाई पूरी होने तक उनका साथ दिया। एम.ए. के बाद कौशल ने बी.एड. किया। इसके बाद उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से एमफ़िल में दाखिला ले लिया और फिर पीएचडी करने के लिए जेएनयू आ गईं।
जेएनयू जैसे संस्थान में भी उन्हें जाति का दंश झेलना पड़ा। गोदावरी हॉस्टल में उनकी रूम मेट ने दलित होने के कारण उनका बहुत अपमान किया। कौशल लिखती हैं–
“मैं जेएनयू ढेर सारे सपने लेकर आई थी कि कम-से-कम इस क्रूरता का दंश मुझे यहां नहीं भोगना पड़ेगा। पर यह तो गांव-देहात से भी बदतर था। वहां सीधे-सीधे और यहां चाशनी के साथ जातिवादी मानसिकता पसरी थी।”
बताते चलें कि कौशल ने जाति-व्यवस्था के ऊपर किये गए अभिनेता आमिर खान के कार्यक्रम ‘सत्यमेव जयते’ के एक एपिसोड में भी हिस्सा लिया था।
आज कौशल अपने आपको एक सफ़ल व्यक्ति मानती हैं। निश्चित रूप से यह सफ़लता उनको किसी ने थाली में परोस कर नहीं दी। एक तथाकथित ‘उपेक्षित’ जाति में जन्म लेकर इस ऊंचाई तक पहुंचना कोई सामान्य बात नहीं है। आज भी सवर्ण अहंकार से बजबजाते भारतीय समाज में न जाने कितनी कौशल पंवार पिछड़ेपन की घेरेबंदियों को तोड़ने को छटपटा रही होंगी। सभी कहां कौशल पंवार बन पाती हैं। पर इतना तय है कि कौशल की इस आत्मकथा को पढ़ने के बाद अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत तमाम लड़कियों को प्रेरणा ज़रूर मिलेगी।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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