[भारतीय राजनीति में उत्तर प्रदेश की अहम भूमिका रही है। यदि दलित-बहुजन राजनीति के हिसाब से भी बात करें तो इस प्रदेश को यह श्रेय जाता है कि यहां दलित राजनीति न केवल साकार हुई, बल्कि सत्ता तक हासिल करने में कामयाब हुई। यह मुमकिन हुआ कांशीराम (15 मार्च, 1934 – 9 अक्टूबर, 2006) के कारण। यह आलेख शृंखला इसके विभिन्न आयामों व मौजूदा दौर की दलित राजनीति को भी सामने लाती है। पढ़ें, इसका चौथा भाग]
तीसरे भाग से आगे
1993, उत्तर-प्रदेश विधान सभा चुनाव में कांशीराम का चला जादू
नवंबर, 1993 में हुए विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा) व बहुजन समाज पार्टी (बसपा) गठजोड़ ने कांग्रेस और भाजपा को पीछे धकेल दिया। इस गठजोड़ को 36 प्रतिशत दलित वोट और 33 प्रतिशत ओबीसी वोट हासिल हुए।
उत्तर-प्रदेश की विधानसभा चुनाव में सवर्ण मतदाताओं का मन-मिजाज भाजपा की ओर अब जाना शुरू हो चुका था। दलित और पिछड़ी जातियों का वोट सपा-बसपा की ओर जा रहा था। प्रभावशाली जातियों का वोट या तो प्रत्याशियों के अनुसार था या इसका बहुलांश भाजपा, कांग्रेस और जनता दल के बीच विभाजित था, लेकिन मुख्य हिस्सा भाजपा की ओर बढ़ रहा था। 1996 के लोकसभा चुनाव में सीएसडीएस के चुनावी सर्वेक्षण में देखा गया कि बसपा को मिले वोट का 62.70 प्रतिशत अशिक्षित और गरीब लोगों का था। 1999 के सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश में लोकसभा के चुनाव के दौरान अनुसूचित जाति का वोट 74 प्रतिशत था, 17 प्रतिशत ओबीसी और 8 प्रतिशत सवर्ण वोट बसपा को मिले थे। (स्रोतः सीएसडीएस डेटा यूनिट, इंडिया टूडे, 31 अगस्त, 1996; उद्धृतः इंडियाज साईलेंट रिवोल्यूशनः क्रिस्टोफर जैफरलो)
वर्ष 1993 में मुलायम सिंह यादव जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे, उस समय सपा के कार्यकर्ता जिस गीत को गा रहे थे, उसमें एक पद था– ‘वीर मुलायम चहुं दिस ओर/कांशीराम का लग गया जोर’। यह कांशीराम की सत्ता की कुंजी की वह खोज थी, जिसके बल पर मुलायम सिंह यादव सत्ता में आए। सत्ता की कुंजी को जातियों की गणना उसकी वोट संख्या से जोड़ने और उसे बसपा के साथ जोड़ लेने का सरल समीकरण तक सीमित करना और उसे सामाजिक और राजनैतिक आंदोलन से न जोड़ना एक घातक स्थिति भी बना सकती थी। इसे राजनीतिक संरचना में आगे ले जाना भी एक चुनौती थी। सपा के नेतृत्व में ओबीसी समूह, जिसका बड़ा हिस्सा मध्यम और निम्न-मध्यम किसानों का था, राजनीतिक चेतना से लैस दलित समुदाय के श्रमिकों पर अपनी गिरफ्त बनाए रखने के लिए हिंसक हो रहा था। सवर्ण समूह से आने वाली जातियों के बड़े और जमींदार किसान इस स्थिति का फायदा उठाने में पीछे नहीं थे। इसी दौरान पीएसी के 3000 हजार पदों पर नियुक्ति के समय 2,500 का चुनाव यादव, लोध, कोइरी, कुर्मी जैसी मध्यवर्ती जातियों के सदस्यों का हुआ। समाज में हिंसा की घटनाएं और उसका प्रतिरोध भी सामने आने लगा था। बसपा के लिए यह स्थिति एक चुनौती लेकर आई। मुलायम सिंह यादव ने बसपा के विधायकों को तोड़कर अपने साथ मिलाने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया था। इसके 25 विधायकों ने बसपा (राज बहादुर) के रूप में एक नई पार्टी की घोषणा भी कर दी। मायावती ने इस स्थिति से निबटने के लिए भाजपा के समर्थन से एक अल्पसंख्यक सरकार बनाने का निर्णय लिया। सपा ने इसे बेहद शर्मनाक और हिंसक तरीके से रोकने का प्रयास किया। 2 जून, 1995 को गेस्ट हाउस कांड अंजाम दिया गया, जिसमें मायावती और बसपा के सात विधायकों को बंधक बना लिया और उनके साथ मारपीट की गई। इस घटना ने ‘बहुजन’ राजनीति और उसके चिंतन को गहरे प्रभावित किया और सत्ता की कुंजी की सोशल इंजीनियरिंग में एक बड़ी सेंध लग गई। यह वह चुनौती थी, जिसे हल करने के लिए कांशीराम ने नया प्रयोग नहीं किया। उनकी ईजाद की गई सामाजिक गणित के सूत्र सत्ता के गलियारों में बने रहने के जोर पर अटक गये। हालांकि, जब मायावती पर हमला हो रहा था, उस समय तक बसपा अपना आधार मजबूत कर चुकी थी। इस सामाजिक आधार को छीन पाना फिलहाल तो उस समय नामुमकिन था।
बहुजन संरचना का पुनर्निर्माण और सर्वजन का प्रथम प्रयास
भाजपा मुलायम सिंह यादव और उनकी नेतृत्व वाली पार्टी पर हमला कर ओबीसी में आधार मजबूत करने की दूरगामी रणनीति को अख्तियार किया और बसपा को समर्थन देते हुए दावा किया कि ‘हमने एक दलित महिला को मुख्यमंत्री बनाया है’। मायावती की भाषा में बदलाव आया। उन्हीं के शब्दों में, ‘हम मनु के नहीं, मनुवादियों के विरोधी है’। कुल साढ़े चार महीने की मायावती सरकार ने प्रशासन को अपने नियंत्रण में ले लिया। लगभग डेढ़ लाख असामाजिक तत्वों की गिरफ्तारी हुई। लेकिन, सबसे महत्वपूर्ण निर्णय आंबेडकर गांव योजना थी, जिसमें 37 प्रकार की विकास योजनाओं को लागू करना था। इन गांवों को सड़क और स्कूलों से जोड़ा गया। लगभग ढाई लाख दलित परिवारों को जमीन वितरित किया गया और जिस जमीन पर काम कर रहे थे उसे पक्का किया गया। यह कुल जमीन 60 हजार एकड़ से अधिक थी। बड़े पैमाने पर नामांतरण कार्यक्रम चलाया गया। इस दौरान पटेल-कुर्मी समुदाय ने मायावती सरकार के निर्णयों के खिलाफ अभियान चलाना शुरू किया और एक विशाल रैली कर बहुजन की अवधारणा को चुनौती दी।
दरअसल, भाजपा पिछड़ा और अति पिछड़ा समुदाय में अपना आधार बनाने की ओर बढ़ रही थी, वहीं दलित समुदाय की सहानुभूति हासिल करते हुए उसमें घुसपैठ भी कर रही थी। 1996 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को वोट प्रतिशत 33.40 प्रतिशत हो गया और सीटों की संख्या 52 पहुंच गई। बसपा और सपा को लगभग बराबर 20 प्रतिशत से थोड़ा ऊपर वोट मिला, लेकिन सपा को 16 और बसपा को 7 सीटें मिलीं।
क्रिस्टोफर जैफरलो ने अपनी किताब ‘इंडियाज साइलेंट रिवोल्यूशन’ में विभिन्न स्रोतों के आधार पर बसपा की पदाधिकारियों और चुने गये विधायकों की सूची (1996-2000) को शामिल किया है। वे उद्धृत करते हैं कि सवर्ण जातियों में ब्राह्मण को ज्यादा तरजीह दी गई। जबकि पिछड़ी जातियों में पटेल नदारद हैं। उनके विश्लेषण से बसपा के बारे में कुछ बातें स्पष्ट होती हैं–
- बसपा की संरचना में सर्वजन की नीति का असर स्पष्ट है
- ओबीसी और अति पिछड़ा समुदाय की पकड़ बढ़ी है
- मुसलमानों पर प्रभाव कम हुआ है
- दलित समुदाय में चमार, जाटव और ढोर की पकड़ कम हुई जबकि अन्य दलित समुदाय को जगह दी गई
- संख्या के अनुपात में मुसलमान और दलित उम्मीदवारों की सफलता का प्रतिशत अन्य से ज्यादा है
- इस संदर्भ में ओबीसी और अति पिछड़ी जातियों की सफलता भी संतोषजनक है
- सवर्ण समुदाय का जीतना एक प्रयोगधर्मी सफलता जैसा ही है
यदि हम 1998-99 के लोकसभा चुनाव में बसपा के प्रत्याशियों का आंकड़ा देखें तब हमें दलित प्रत्याशियों की संख्या में 25 प्रतिशत की गिरावट दिखती है। जबकि कुल प्रत्याशियों की संख्या का 66 प्रतिशत ओबीसी जातियों से आने वाले लोग थे।
1996 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में बसपा को मिले वोट की जातीय संरचना निम्न थी– ऊपरी जाति-14.9 प्रतिशत, मध्यम-1.49, पिछड़ा-37.30 और अनुसूचित जाति-29.84 प्रतिशत। भाजपा का वोट प्रतिशत पिछड़ा और अनुसूचित जाति में क्रमशः 21.51 और 22.08 प्रतिशत था। कांग्रेस का कुल वोट प्रतिशत 8.4 रह गया और सीटें 33। वहीं भाजपा ने 32.5 प्रतिशत वोट हासिल किया ओर 177 सीट जीतकर सबसे आगे थी। बसपा को 11.2 प्रतिशत वोट मिले और सीटें 67 हो गईं। वहीं सपा का वोट प्रतिशत गिरकर 19.7 प्रतिशत हो गया और सीटें 109 रहीं।(बीहाईंड द बीएसपी विक्ट्रीः विवेक कुमार, ईपीडब्ल्यू, 16 जून, 2007)
इस चुनाव में 100 ऐसी सीटें थीं, जिस पर बसपा बेहद कम वोटों से हार गई थी। उस समय मायावती ने यही निष्कर्ष निकाला कि यदि सवर्ण वोटों की हिस्सेदारी बसपा के पक्ष में आ जाय तब इन सीटों को जीता जा सकता है। इसी चुनाव में पासी और चमार समुदाय के लोगों को भाजपा ने बड़े पैमाने पर प्रत्याशी बनाकर उतारा। इस चुनाव के नतीजे अभी यही बता रहे थे कि कांग्रेस के पास सवर्ण जातियों के वोट पर पकड़ बनी हुई हैं। बसपा वोट का आधार बढ़ाने के लिए कांग्रेस के साथ गठजोड़ बनाना चाह रही थी, जबकि सरकार बनाने के लिए भाजपा का होना जरूरी था। बसपा पर सरकार बनाने की चाह अधिक हावी थी और 6 महीने के रोटेशन पर बसपा और भाजपा के मुख्यमंत्री बनने के निर्णय के साथ ही एक बार मायावती उत्तर प्रदेश में बसपा नेतृत्व की सरकार बनाने में सफल रहीं। अक्टूबर, 1997 के मध्य तक आते-आते इस सरकार और गठबंधन का जाना तय हो गया। ऐसा नहीं था कि कांशीराम और मायावती को भाजपा द्वारा बहुजन वोट में सेंधमारी नहीं दिख रही थी। इसीलिए उन्होंने आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को लक्ष्य बनाकर उसके खिलाफ चुनाव अभियान चलाया। उत्तर प्रदेश में भाजपा में सांगठनिक संकट और ओबीसी वोट के बंट जाने से बहुत तेजी से नीचे आई। लेकिन, इससे उसे यह सीख मिल गई थी कि सवर्ण वोट के साथ-साथ दलित और ओबीसी के वोट के बिना लोकसभा की सीटें वह खो देगा और उत्तर प्रदेश में उसकी सरकार बनाने की स्थिति नहीं रहेगी।
सर्वजन, एक आमूल बदलाव की एक नई राह पर चलने का निर्णय
वर्ष 2002 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव हुआ। बसपा ने स्पष्ट तौर पर सर्वजन का नारा दिया। एक समय था जब बसपा की ओर नारा दिया जाता था– ‘तिलक, तराजू और तलवार/इनको मारो जूते चार’। अब यह नारा इस शक्ल में आ गया– ‘तिलक, तराजू और तलवार/ सब हों हाथी पर सवार’। एक दूसरा नारा था– ‘हाथी नहीं गणेश है/ब्रम्हा, विष्णु, महेश है’। एक वैकल्पिक संस्कृति का लक्ष्य लेकर चलने वाली पार्टी अब हिंदू धर्म के उन प्रतिमानों की ओर लौट रही थी, जिनके भीतर जाति और वर्ण व्यवस्था एक धार्मिक आस्था के रूप में बैठी है और परंपरा और आदर्श के रूप में यह दलित समुदाय को अछूत बनाकर रखे हुए है।
राजनीति में रणनीति और कार्यनीति एक ऐसी शब्दावली है, जिसका निर्णय संगठन की ऊपरी संरचना में होता है। किसी पार्टी का काडर उन निर्णयों की आलोचना एक बेहद सीमित स्तर पर ही कर पाता है जबकि उन निर्णयों को लागू करने का सारा भार उसी के कंधों पर होता है। बसपा की संरचना बेहद जटिल रही है, जिसमें निर्णय का अधिकार कांशीराम और मायावती के हाथों में था। हम ऊपर देख चुके हैं कि 1999 तक बसपा की सांगठनिक संरचना में ही नहीं, चुनाव के उम्मीदवारों में सर्वजन की अवधारणा तेजी से पकड़ बना रही थी। 2002 के चुनाव में बसपा के निर्णयों में सबसे बड़ा बदलाव मुस्लिम समुदाय से आने वाले प्रत्याशियों की संख्या में वृद्धि थी। इसका एक ही कारण था, सपा के वोट आधार में हिस्सेदारी कर जीत को सुनिश्चित करना। इस विधान सभा चुनाव के नतीजे निम्न थेः
पार्टी | सीटें | वोट प्रतिशत |
---|---|---|
कांग्रेस | 25 | 9.00 |
भाजपा | 88 | 20.12 |
सपा | 143 | 25.43 |
बसपा | 98 | 23.20 |
स्रोतः बीहाईंड द बीएसपी विक्ट्री, विवेक कुमार, ईपीडब्ल्यू, 16 जून, 2007
बसपा की जीती हुई सीटों का समीकरण इस तरह थाः 32-ऊपरी जातियां, 16-मुसलमान, 27-दलित और 23 ओबीसी। वोटों का समीकरण इस तरह थाः 69 प्रतिशत दलित, 10 प्रतिशत मुसलमान, 7 प्रतिशत ओबीसी और 5 प्रतिशत ब्राम्हण और ऊपरी जाति।[पोलिटिक्स एज सोशल टेक्स्ट इन इंडिया: बहुजन समाज पार्टी इन उत्तर प्रदेश, जयब्रत सरकार (अध्याय: रीमेकिंग दी कास्ट कैलकुलस] बसपा दलित समुदाय का वोट सवर्ण जातियों से आये अपने प्रतिनिधियों की ओर केंद्रित कर रही थी और एक सीमित रूप में ही सही इन जातियों का वोट इनके साथ मिलकर सीट जिताने की ओर ले जा रहा था। लेकिन, सवर्ण वोट का हिस्सा दलित या मुस्लिम उम्मीदवारों की ओर मुड़ता नहीं दिखता है, जिसकी वजह से बसपा में जीते हुए सवर्ण प्रत्याशियों की संख्या अन्य समुदायों की अपेक्षा बढ़ी हुई दिखती है। इसका राजनीतिक असर हम बसपा के राजनीतिक निर्णय में उस समय देखते हैं जब गुजरात में 2002 के दंगों में मुस्लिम समुदाय के नरसंहार और उन पर की गई ज्यादतियों के खिलाफ तेलुगु देशम पार्टी ने केंद्र की भाजपा नेतृत्व वाली राष्ट्रीय गठबंधन की सरकार से समर्थन वापस खींच लिया। उस समय बसपा ने अपने 13 सांसदों के साथ एनडीए को समर्थन दिया। इसके बदले में भाजपा ने बसपा को उत्तर प्रदेश में सरकर बनाने का मौका दिया। भाजपा की राज्य इकाई मायावती द्वारा सरकार बनाने को लेकर तैयार नहीं थी। लेकिन, ऐसा माना जाता है कि आरएसएस ने पहलकदमी कर उन्हें इस बात पर राजी कर ले गई कि बसपा को अब ब्राह्मणवाद से कोई खास दिक्कत नहीं रह गई है।(हिंदुस्तान टाइम्स, आउटलुक और फ्रंटलाईन की सुर्खिया; मई, 2002 और सितम्बर, 2003)
मायावती के सामने सत्ता हासिल करना मुख्य उद्देश्य था और इसी के सहारे दलित समुदाय के हितों को सुनिश्चत करने वाले कार्यक्रमों को लागू करने की रणनीति थी। आंबेडकर ग्राम योजना, जमीनों का वितरण, आरक्षण की सुनिश्चितता, नामांतरण और आंबेडकर के नाम से विभिन्न पार्कों और संस्थानों का निर्माण और आवास योजनाएं वे मुख्य काम हैं, जिनसे ग्रामीण और शहरी दलित वर्ग को लाभ पहुंचाने का कार्य किया गया। इसी दौरान कई विशाल परियोजनाओं को भी लागू करने का निर्णय लिया गया, जिसमें से एक ताज कोरिडोर भी है, जो मुख्यतः हाइवे के निर्माण के साथ अन्य परियोजनाओं को जोड़ते हुए आया था। लेकिन यह विवाद का कारण बन गया और वह सीबीआई की जांच के दायरे में आ गया। इसका नतीजा बसपा और भाजपा के गठबंधन में टूट में बदलना था। ठीक इसी समय सपा ने बसपा को एक बार फिर से तोड़ दिया और 37 विधायक सपा के समर्थन में चले गए।
सर्वजन की इस राजनीति में मुस्लिम समुदाय मायावती के साथ आ तो रहा था, लेकिन मायावती का भाजपा के साथ संबंध ऐसा था जिससे उनके ऊपर भरोसा बन नहीं पा रहा था। वहीं सवर्ण समुदाय प्रत्याशी के तौर पर जीतने के लिए बसपा के साथ तो जुड़ रहा था, लेकिन उसे वहां भविष्य नहीं दिख रहा था। लेकिन, मायावती वोट का गणित और समीकरण का अनुमान लगा चुकी थीं। यह साफ था कि 85 बनाम 15 का गणित जितना सरल दिख रहा था, उतना था नहीं। वह वोट के ध्रुवीकरण में 15 के निर्णायक होने और एक पार्टी के बतौर सरकार चलाने के लिए एक अनिवार्य शर्त के तौर पर देख रही थीं। अब उनके लिए इससे पीछे हटने का प्रश्न ही नहीं था। उन्होंने ब्राह्मणों को अपने पक्ष में करने के लिए सतीश चंद्र मिश्रा को बसपा में ले आईं और उन्हें ‘ब्राह्मण जोड़ो अभियान’ में उतार दिया।
अब बसपा की संरचना में बदलाव एक ठोस जमीन ले रहा था। पहले नारा था– ‘जिसकी जितनी संख्या भारी/ उसकी उतनी भागीदारी’। अब यह नारा बदल गया था– ‘जिसकी जितनी तैयारी/ उसकी उतनी भागीदारी’। 9 जून, 2005 को लखनऊ के आंबेडकर मैदान में बसपा का ब्राह्मण महासम्मेलन आयोजित किया गया था। वहां मायावती का स्वागत वैदिक ऋचाओं के उच्चारण के साथ तिलक लगाकर किया गया। उन्हें परशुराम का फरसा भेंट दिया गया। कथाओं में परशुराम ने फरसे से क्षत्रियों का विनाश किया था। इस घटना की कई व्याख्या हैं। बहुजन राजनीति से जुड़े अधिकांश लोगों के लिए यह मायावती का ब्राह्मणों पर जीत थी। उनका मानना है कि जो ब्राह्मण दलितों को छूते नहीं थे, वही अब उसकी पूजा कर रहे हैं और उन्हें अपना नेता मान रहे हैं। एक दूसरी व्याख्या भी है, जिसमें माना जाता है कि मायावती ने बहुजन राजनीति की आत्मा को मार दिया। किसी भी घटना की व्याख्या आगामी नतीजों के संदर्भ में किया जाना चाहिए। मायावती ने जिस रणनीति को अख्तियार किया था, उसमें वोट का ध्रुवीकरण मुख्य उद्देश्य था। लेकिन, यहां बसपा का एक घोषित राजनीतिक और सांस्कृतिक मिशन था, जो एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। भारत में वोट देने वाला एक राजनीतिक, सांस्कृतिक प्रतिनिधि के साथ-साथ एक उत्पादन की व्यवस्था में हिस्सेदार होता है, जिससे उसकी आर्थिक हैसियत बनती है। इन तीन प्रवर्गों के बीच घनिष्ठ संबंध होता है और इनके आपसी संबंध बदलते रहते हैं। कई बार सांस्कृतिक चेतना राजनीति और आर्थिकी को बदलती है, लेकिन, यदि लंबे समय तक आर्थिक बदलाव की प्रक्रिया चलती रहे तब यह राजनीति और संस्कृति को भी बदलने की ओर ले जाती है। इसमें निर्णायक तत्व राजनीति ही होती है और राजनीति को आर्थिक और संस्कृति के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए भी रखना होता है। बसपा का प्रयोग जिन वोटरों के ध्रुवीकरण पर था, उसमें उसकी सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पक्ष बेहद कमजोर और कई बार नहीं के बराबर था। इस तरह के वोटों का राजनीतिक ध्रुवीकरण आसानी से राजनीतिक अवसरवाद में बदल जाने की जमीन प्रदान करता था। बसपा में हो रहे टूट के पीछे यह एक बड़ा कारण था। लेकिन, मायावती इन सवालों को सत्ता की कुंजी हासिल करने के लक्ष्य के सामने गौण मानती थीं, और वह कई बार सिद्धांत की जगह व्यवहारिक होने पर जोर देती हुई दिखती थीं। उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा क्षेत्रों में ‘भाईचारा बनाओ समिति’ और ‘ब्राह्मण समाज’ का निर्माण किया गया, जिसमें 400 सदस्य होते थे, इनमें 300 ब्राह्मण और 100 दलित सदस्य तय किए गए। 2007 के विधान सभा चुनाव में पहली बार बसपा को 206 सीटें मिली। यह अब तक की सबसे बड़ी जीत थी।
इस आंकड़े से एक बात स्पष्ट है कि मायावती जिस रणनीति पर चल रही थीं, उसका नतीजा उनके अनुमान के अनुरूप ही निकला। 1991 के बाद उत्तर प्रदेश में 2007 में पहली बार किसी एक पार्टी का बहुमत मिला। यह बसपा की सबसे बड़ी जीत थी। कांग्रेस के वोट में लगी सेंध जातीय संरचना में टूटते हुए अंततः बसपा के पक्ष में आ गिरा। इस तक पहुंचने में बसपा को गुणात्मक तौर पर खुद को बदलना भी पड़ा। लगभग 7 प्रतिशत वोट की बढ़ोत्तरी ने बसपा को 108 सीटों की बढ़त दिला दिया और यह संख्या 206 पर पहुंच गई। सपा के वोटों का प्रतिशत बराबर ही बना रहा, लेकिन वोट का विभाजन सीटों के नुकसान में बदल गया। भाजपा के वोट प्रतिशत में गिरावट तो है, लेकिन सवर्ण वोट का हिस्सा कांग्रेस से भाजपा की ओर जाने का क्रम भी अब साफ दिखने लगा था। बसपा की मुठभेड़ वोट के मोर्चे पर अब सपा और भाजपा के साथ हो गई थी। लेकिन, अभी भी बसपा की जीत में दलित समुदाय का वोट प्रतिशत में बढ़ोत्तरी थी, जो अब 72 प्रतिशत हो चुकी थी। इस चुनाव में जीत के बाद मायावती सरकार ने जो नारा दिया वह उसमें बहुजन की जगह सर्वजन आ गया– ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’। मायावती ने समतामूलक समाज का नारा दिया और बसपा कार्यकर्ताओं को ब्राह्मण के प्रति शिष्टाचार बरतने का निर्देश दिया। सरकार की संरचना भी इसी निर्णय और नारे के तहत बनाया गया। इस सरकार में मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व न तो चुने गए बसपा के विधायकों के अनुपात था और न ही उनकी जनसंख्या के अनुपात में। यदि हम वोट के आंकड़ों में देखें तब बसपा की जीत में मुसलमानों का वोट बेहद निर्णायक रहा था। इस समय की सबसे बड़ी ग्रामीण विकास योजना डॉ. आंबेडकर समग्र ग्रामीण विकास योजना थी, जिसे 17,000 हजार ग्राम सभाओं में लागू किया गया। दूसरी, गंगा एक्सप्रेस-वे योजना थी। यह योजना भी हाइवे के निर्माण के साथ जुड़कर आई थी। और, यह यमुना एक्सप्रेस-वे के एक हिस्से के बतौर भी थी, जिसका निर्माण अभी हाल ही के वर्षों में जाकर पूरा हुआ। बसपा एक तरफर अपने आर्थिक कार्यक्रमों को तो दूसरी तरफ दलित समुदाय के लिए विभिन्न परियोजनाओं को बनाने व लागू करने में लगी हुई थी। वहीं केंद्र की कांग्रेस सरकार की आर्थिक नीतियों के तहत लाए कार्यक्रमों और उसके अनुरूप राज्य स्तर पर कार्यक्रम बनाने में भी लगी हुई थी। चाहे वह नये शहरों के विकास का मसला हो या उद्योगों से जुड़ी योजनाएं हों, बसपा का कांग्रेस की नीतियों से कोई विरोध नहीं था। मायावती ने स्पष्ट तौर पर कहा भी था कि भूमंडलीकरण और उदारीकरण दलितों के पक्ष में है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)