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उत्तर प्रदेश में बसपा : राजनीतिक फलक पर दलित प्रतिनिधित्व की वैचारिक भूमि (पांचवां भाग)

2022 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव तक आते-आते बहुजन से सर्वजन तक पहुंचने की राजनीति एक ऐसे जगह पहुंच चुकी थी, जहां से बसपा को मुड़कर देखने पर पीछे लगभग 40 वर्षों का इतिहास था और उसके पास सिर्फ एक सीट रह गई थी। पढ़ें, अंजनी कुमार के आलेख शृंखला का पांचवां भाग

[भारतीय राजनीति में उत्तर प्रदेश की अहम भूमिका रही है। यदि दलित-बहुजन राजनीति के हिसाब से भी बात करें तो इस प्रदेश को यह श्रेय जाता है कि यहां दलित राजनीति न केवल साकार हुई, बल्कि सत्ता तक हासिल करने में कामयाब हुई। यह मुमकिन हुआ कांशीराम (15 मार्च, 1934 – 9 अक्टूबर, 2006) के कारण। यह आलेख शृंखला इसके विभिन्न आयामों व मौजूदा दौर की दलित राजनीति को भी सामने लाती है। पढ़ें, इसका पांचवा भाग]

चौथे भाग से आगे

वर्ष 2009 में लोकसभा चुनाव में बसपा को उत्तर प्रदेश में महज 20 सीटें मिलीं। जबकि उसे लगभग 45 सीटों की उम्मीद थी। उम्मीद से कम सीटें मिलने के पीछे कई कारण थे। एक तो यही कि दलित-ब्राह्मण गठजोड़ का असर अन्य जातीय समीकरण पर पड़ा। कई सारे ऐसे कार्यक्रम चलाए गए, जिससे लोगों में यह अवधारणा बनने लगी कि सरकारी पैसा गरीबों में जाने की बजाय शान-ओ-शौकत में अधिक खर्च हो रहा है। भ्रष्टाचार के बड़े मामले निकलकर सामने आने लगे। इसमें से एक 2,500 करोड़ रुपए का ग्रामीण स्वास्थ्य अभियान से जुड़ा घपला था। राजनीतिज्ञों और प्रशासकों की मिलीभगत से होने वाली अनियमितताओं और घपलों की आए दिन आनेवाली खबरों ने मायावती सरकार की गरिमा को नीचे लाने में ज्यादा समय नहीं लगाया। साथ ही, व्यक्तिगत तौर पर मायावती द्वारा सम्मान कार्यक्रमों, समारोहों और यहां तक कि जन्मदिन जैसे कार्यक्रमों में जिस तरह से तोहफे ग्रहण करने की संस्कृति को आगे बढ़ाया गया, उससे दलित सम्मान कितना बढ़ा यह तो अभी पृथक बहस का विषय है; लेकिन इससे उनके राजनीतिक कद पर गहरा आघात पहुंचा और पहुंचाया गया।

इस अवधि तक बसपा को अस्तित्व में आए लगभग 25 साल गुजर चुके थे। बसपा की रणनीति और कार्यनीति दोनों में एक आमूलचूल बदलाव दिख रहा था। बसपा जिस जमीन पर खड़ी हुई थी, उस जमीन पर एक नई पौध उग आई थी, जिनकी उम्र 20 या इससे ऊपर थी। इन 25 सालों में उनकी आर्थिक हालात में कम या अधिक, बदलाव हो रहे थे और उनमें राजनीतिक आकांक्षाएं उसी अनुसार निर्मित हो रही थीं। सामाजिक विभेदीकरण की प्रक्रिया हमेशा ही जीवन को या तो बेहतर या बदतर बनाने की ओर ले जाती है। यह ऊपर से जितना स्थिर दिखता है, अंदर से उतनी ही राजनीतिक बेचैनी लिए हुए होता है। बसपा इन स्थितियों में जिस सांस्कृतिक और धार्मिक विकल्प को लेकर आई थी, वह बहुत पहले ही पीछे छूट गया था। बौद्ध धर्म और उसकी जाति विरोधी चेतना अब एजेंडे में नहीं थे। खुद नेतृत्व के व्यवहारों में हिंदू धर्म की परंपराएं ज्यादा परिलक्षित होते हुए दीख रही थीं। 

ऐसे में ब्राह्मणीकरण की प्रक्रिया एक विकल्प धारण कर रहा था। बसपा की सांगठनिक संरचना, व्यवहार और राजनीति में ब्राह्मण जाति के प्रति जिस तरह का रुख अपनाई जा रही थी, उससे नई पीढ़ी में ब्राह्मणवादी संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को बल मिलना ही था। ऐसे में, मुसलमान, जिसे राजनीति से बाहर करने की प्रक्रिया हरेक पार्टी में दिख रही थी, वह बसपा में आकर भी इसके साथ खुद को आश्वस्त करने की स्थिति में नहीं आ पा रहा था। यही वह समय था जब बसपा को चरम सफलता मिली और आगे वैचारिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संकट में फंसती चली गई। इस समय तक कांशीराम और मायावती के बीच के मतभेद स्पष्ट तौर पर सामने आ चुके थे, जिसके चलते कांशीराम खुद को नेपथ्य में रखना बेहतर समझ रहे थे। हालांकि, उस समय तक वह बसपा की विचारधारा और संगठन बनाने के काम में लगे हुए थे और इसके लिए वह जूझ भी रहे थे। लेकिन, स्थितियां बड़ी तेजी से उनके हाथ से निकल रही थीं। दलित समाज में आ रही नई पीढ़ी जाति उत्थान समिति से आगे बढ़कर जाति आधारित पार्टी बनाने की ओर बढ़ रहे थे। वे बहुजन की अवधारणा से बाहर जा रहे थे। मध्य और अति पिछड़ी जातियों की पार्टीयां अस्तित्व में आ रही थीं। राजभर, निषाद और अन्य जातियां भी अपनी-अपनी पार्टियां बनाने की ओर बढ़ चली थीं और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी को सुनिश्चित कर लेने के लिए वोट का गणित लगाने लगी थीं।

वोट का गणित और ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की राजनीति का वर्चस्व

वर्ष 2012 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में बसपा की 126 सीटें कम हो गईं। महज 5 प्रतिशत से भी कम वोट की कमी से 80 सीटों पर लुढ़क गई। जबकि लगभग 4 प्रतिशत वोट की बढ़ोत्तरी ने समाजवादी पार्टी को 127 सीटों की बढ़त दिला दी। सपा को 222 सीटें हासिल हुई थीं। इस बार सपा ने उसी रणनीति को अख्तियार किया, जिसे बसपा पिछले चुनाव में आजमा चुकी थी। सपा के जीते प्रत्याशियों में सर्वाधिक सवर्ण जातियों के उम्मीदवार थे। यहां सपा के जीते प्रत्याशियों में सर्वजन की अवधारणा को जातीय समीकरणों में देख लेना प्रासंगिक होगा-

जाति/वर्ग के आधार पर प्रत्याशियों की संख्या व कुल प्रत्याशियों में हिस्सेदारी

जातियां/वर्ग199319962002200720122017
सवर्ण19 (17.4)24 (21.8)33 (23.1)30 (30.9)61 (27.5)10 (21.3)
ओबीसी55 (50.5)42 (38.2)50 (35.0)34 (35.1)58 (26.1)13 (27.7)
अनुसूचित जाति23 (21.1)20 (18.2)38 (26.6)12 (12.4)58 (26.1)7 (14.9)
मुसलमान12 (11.0)22 (20.0)22 (15.4)21 (21.6)43 (19.4)17 (36.2)
अचिह्नित02 (1.8)002(0.9)0

स्रोतः कन्जरवेटिव इन प्रैक्टिस – द ट्रांसफरमेशन ऑफ द समाजवादी पार्टी इन उत्तर प्रदेशः गिलेस वर्नियर्रस; स्टडीज इन इंडियन पाॅलिटिक्स – 2018, लोकनीति, सेज द्वारा प्रकाशित

उपरोक्त आंकड़े स्पष्ट तौर पर बता रहे हैं कि समाजवादी पार्टी बसपा की तरह ऊपरी और मध्यम जातियों के प्रत्याशियों पर जोर दे रही थी। उनके जीते हुए प्रतिनिधियों में सवर्णों की संख्या में हुआ इजाफा यह भी दिखा रहा है कि सपा के मध्यवर्ती जातियों के वोट इन प्रत्याशियों को मिले थे। उपरोक्त सारणी में संदर्भित आलेख में लेखक द्वारा चुने गये विधायकों को आर्थिक प्रवर्गों में बांट कर एक विश्लेषण पेश किया गया है। इसमें बसपा के कुल जीते विधायकों में से 66.25 प्रतिशत ऐसे प्रतिनिधि हैं जो विविध व्यवसाय करने वाले समूह में से आते हैं। यह अन्य सभी पार्टियों के जीते प्रतिनिधियों में से ऐसे प्रवर्ग में सर्वाधिक है। इस मामले में सपा भाजपा के बाद है। लेकिन, खेतिहर समुदाय के प्रतिनिधित्व के मामले में सपा सबसे आगे है और कांग्रेस दूसरे स्थान पर। औद्योगिक घरानों से आने वाले प्रतिनिधियों की संख्या में भी बसपा सबसे आगे है। बसपा को जीत भले ही न मिली हो, लेकिन इसके विधायकों का आर्थिक आधार गांव से खिसककर शहर की ओर जाता हुआ दिखता है, खासकर व्यापारी और औद्योगिक घराने की ओर। यदि हम सपा और बसपा में सवर्ण वोट का प्रतिशत देखें, तब यह अधिकतम 11 प्रतिशत से अधिक जाता हुआ नहीं दिखता है, जबकि दलित और मध्यवर्ती वोट का प्रतिशत 80 प्रतिशत तक पहुंचता हुआ दिखता है। यह आंकड़ा दिखाता है कि सवर्ण वोट कांग्रेस और भाजपा के बीच ही मुख्यतः विभाजित होता रहा। ऐसे में भाजपा के सामने मुख्य चुनौती मध्यवर्ती और दलित वोट के हिस्से को अपने पक्ष में करना था। बहुजन राजनीति में जाति आधारित पार्टियों के उभार भाजपा के लिए एक अनुकूल परिस्थिति का निर्माण कर रही थी।

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बसपा को जबरदस्त धक्का लगा। उसे एक भी सीट नहीं मिली। भाजपा को 80 से में 73 सीटें हासिल हुई थीं। इसे आंकड़ों में देखना अधिक उपयुक्त होगा 

पार्टी प्रत्याशीजीत2009 से फर्कवोट-प्रतिशत2009 से फर्क
यूपीए782-248.4-13.3
कांग्रेस672-197.4-10.8
आएलडी80-50.8-2.4
महान दल3000.1-0.1
एनडीए8073+6343.3+24.9
भाजपा7871+6142.3+24.8
अपना दल22+21.0+0.2
सपा785-1822.2-1.1
बसपा800-2019.6-7.8
नोटा80000.7+0.7
अन्य9720-15.8-3.6

स्रोत : इलेक्टोरल पाॅलिटिक्स इन इंडिया, द रीसर्जेंस ऑफ द भारतीय जनता पार्टीः संपादन- सुहास पालिस्कर, संजय कुमार और संजय लोधा; सीएसडीएस का आंकड़ा; राउटलेज द्वारा प्रकाशित।

यदि हम बसपा और सपा के भी कुल वोटों में आई कमी को देखें, तब हमें बहुजन वोट में बदलाव से अधिक ऊपरी जातियों के वोट में बदलाव की संभावना ज्यादा दिखती है। 2014 का सीएसडीएस का आंकड़ा दिखाता है कि सवर्ण वोट का 70 प्रतिशत से अधिक हिस्सा भाजपा के पक्ष में गया। इसके बाद मध्यम जातियों का वोट है, जिसका औसतन 50 प्रतिशत हिस्सा भाजपा के पक्ष में गया। बसपा का मुख्य आधार दलित, ओबीसी और गरीब समुदाय था। हालांकि भाजपा इस वोट का एक हिस्सा अपने पक्ष में ले जा रही थी। वोट की यह प्रवृत्ति आगामी 2017 में हुए विधान सभा चुनाव में भी बनी रही। भाजपा का वोट आधार सवर्ण, मध्यवर्ती जातियों में था और अन्य दलित समुदायों में पहले से बढ़कर सामने आ रहा था। वहीं बसपा अब अपने मूल वोट आधार की ओर वापस आ रही थी। यही स्थिति सपा की भी थी। 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में बसपा को सिर्फ 19 सीटें मिलीं। यहां उत्तर प्रदेश विधान-सभा चुनाव का 2017 और 2022 का आंकड़ा देख लेना उपयुक्त होगा– 

पार्टी2017- सीट2017- मतों में हिस्सेदारी2022-सीट2022-मतों में हिस्सेदारी
भाजपा31239.6725541.29
कांग्रेस76.2522.23
सपा4721.8211232.06
बसपा1922.23112.9
आरएलडी11.7882.85
अपना दल90.98121.62
स्वतंत्र32.5701.11

स्रोतः माया, मोदी, आजाद : दलित पाॅलिटिक्स इन द टाईम्स ऑफ हिंदुत्व – सुधा पाई और सज्जन कुमार, आंकड़ा संख्या-1 का हिस्सा, हार्पर कोलिंस से प्रकाशित।

इस आंकड़े में बसपा और कांग्रेस के वोट प्रतिशत में भारी गिरावट देखते हैं जबकि सपा और भाजपा के वोट प्रतिशत में बढ़ोत्तरी देखते हैं। सपा के वोट में बढ़ोत्तरी में मुख्य पक्ष अन्य पिछड़ी जातियां और उभरकर आए अन्य दलित वोट हैं। जबकि भाजपा के वोटों में बढ़ोत्तरी सवर्ण वोटों का पुनगर्ठन में बढ़ोत्तरी और मध्यम जातियों का वोट है। शहरी जनसंख्या में, खासकर उच्च, मध्य में भाजपा की ओर रूझान तेजी से बढ़ा। दलित वोट का एक बड़ा हिस्सा भाजपा की ओर बढ़ गया। 2022 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव तक आते-आते बहुजन से सर्वजन तक पहुंचने की राजनीति एक ऐसे जगह पहुंच चुकी थी, जहां से बसपा को मुड़कर देखने पर पीछे लगभग 40 वर्षों का इतिहास था और उसके पास सिर्फ एक सीट रह गई थी। सत्ता की कुंजी हासिल करने में जिस गणित को लगाया गया था, उस गणित के सूत्र को हल करने में बहुजन राजनीति सर्वजन में बदल गई और बसपा की संरचना में सवर्ण समुदाय की हिस्सेदारी एक प्रभावशाली भूमिका में आ गई थी। इस दौरान बसपा के बहुजन में दूसरी पीढ़ी का आगमन हो चुका था। बसपा ने जिस राजनीति और संस्कृति को आधार बनाकर अपनी शुरुआत की और जब भी मौका मिला, सरकार बनाकर दलित समुदाय का भला करने वाले कार्यक्रम चलाये, उससे एक ऐसे युवाओं का समूह भी बनकर उभर रहा था, जो बसपा के साथ था, लेकिन उसे आलोचनात्मक दृष्टि से भी देख रहा था। वह संगठन में पारदर्शिता, जनवाद और राजनीति विचारधारा में स्पष्टता की मांग करते हुए दलित मुक्ति को नए संदर्भाें में परिभाषित करने की मांग कर रहा था। यह बेचैनी पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में खूब दिख रही थी। इसी बेचैनी से एक युवा का उभार हुआ, जिसके पीछे युवाओं का हुजूम चल पड़ा। यह नया नेतृत्व चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में बेचैनी से भरा हुआ है और दमन व उत्पीड़न के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर बनकर उभरा है तथा राजनीतिक विकल्प की बेचैनी लिए हुए दमित समुदाय में अपनी जमीन तलाश रहा है। और, यह जमीन कई सारे स्वरों को लेकर सामने आ रही है। (माया, मोदी, आजाद :  दलित पाॅलिटिक्स इन द टाइम ऑफ हिंदुत्व – सुधा पाई और सज्जन कुमार; आजाद, भीम आर्मी एण्ड अदर आंबेडकराईट फ्रैंगमेंट्स)

क्रमश: जारी

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अंजनी कुमार

श्रम-समाज अध्ययन, राजनीति, इतिहास और संस्कृति के विषय पर सतत लिखने वाले अंजनी कुमार लंबे समय से स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं

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