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उत्तर प्रदेश में बसपा : राजनीतिक फलक पर दलित प्रतिनिधित्व की वैचारिक भूमि (अंतिम भाग) 

आज बसपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वह बहुजन की अवधारणा में अलग-अलग जातिगत पहचानों को कैसे तोड़े और किस तरह वोट की राजनीति में अपनी अवस्थिति मजबूत कर सकती है, जिससे कि उसका आधार व्यापक हो और सत्ता की कुंजी उसके हाथ में हो। पढ़ें, अंजनी कुमार के आलेख शृंखला का अंतिम भाग

[भारतीय राजनीति में उत्तर प्रदेश की अहम भूमिका रही है। यदि दलित-बहुजन राजनीति के हिसाब से भी बात करें तो इस प्रदेश को यह श्रेय जाता है कि यहां दलित राजनीति न केवल साकार हुई, बल्कि सत्ता तक हासिल करने में कामयाब हुई। यह मुमकिन हुआ कांशीराम (15 मार्च, 1934 – 9 अक्टूबर, 2006) के कारण। यह आलेख शृंखला इसके विभिन्न आयामों व मौजूदा दौर की दलित राजनीति को भी सामने लाती है। पढ़ें, इसका अंतिम भाग]

पांचवें भाग से आगे

दलित राजनीति : चिंतन और भविष्य

भारत में जाति का सवाल एक बड़ा मसला है और लंबे समय से बहस में है। यह राजनीति में, सिद्धांत और व्यवहार, दोनों ही स्तरों पर एक अनिवार्य हिस्से के तौर पर है। इन सिद्धांतों से सहमति, असहमति एक दीगर बात है। मसलन, क्रिस्टोफर जैफरलो (‘इंडियाज साइलेंट रिवोल्यूशन’ में) जिस अवधारणा को लेकर आ रहे थे, उसमें दलित की भूमिका केंद्रीय होने की ओर बढ़ती दिखती है। लेकिन, अपने अंतिम परिणाम में यह भाजपा के ब्राह्मणवादी संस्कृतिकरण में समा जाती है और जाति की संरचना को और भी मजबूत करते हुए ब्राह्मणवाद को ही मजबूत करती हुई दिखती रही है। इसी तरह दलित और राज्य के बीच के संबंधों में सत्ता मिलने के बाद भी दलित जीवन में राज्य अंततः एक निर्णायक हस्तक्षेप करता हुआ नहीं दिखता है। इसे सुधारवादी कहना भी मुश्किल है, क्योंकि आंकड़े इसका समर्थन करते हुए नहीं दिखते हैं। इसी तरह पहचान पर आधारित राजनीति की सांस्कृतिक अवधारणा, जिसे गेल ऑम्वेट ने सांस्कृतिक क्रांति का नाम दिया था; बसपा के आंदोलन में 25 साल गुजरते-गुजरते ब्राह्मणवादी प्रतीकों और चिह्नों की ओर मुड़ता हुआ दिखता है। और, डॉ. आंबेडकर को हिंदू बनाने में दलित चिंतक भी अब आगे आते हुए दिख रहे हैं। यहां मैं उस संकट की ओर ध्यान खींचने की कोशिश रहा हूं, जिसे हल कर लिए जाने का दावा किया जा रहा था।

उत्तर प्रदेश में 2011 की जनगणना के आधार पर लगभग 21 प्रतिशत दलित आबादी है। इसका 80 प्रतिशत से अधिक हिस्सा भूमिहीन है। सरकारी नौकरी में महज 3 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। यहां यह ध्यान रखना होगा कि पिछले दस सालों से सरकारी नियुक्तियों में भारी कमी आई है। गैर-सरकारी नौकरियों में वह महज 2 प्रतिशत है। यहां एक बार फिर नोटबंदी और कोविड के चलते छोटी फैक्ट्रियों के बंद होने से नौकरी खोने वालों में सर्वाधिक दलित समुदाय ही था। लगभग 16 प्रतिशत दलित आबादी के पास खेती की थोड़ी-सी जमीन है, जिसका आधा हिस्सा असिंचित है। छोटी जोत या भूमिहीन दलित खेतिहरों का 70 प्रतिशत हिस्सा बटाई पर खेती करता है। कुल दलित परिवार का 90 प्रतिशत से अधिक हिस्सा मजदूरी पर निर्भर है। उत्तर प्रदेश उन प्रथम राज्यों में है, जहां से मजदूर दूसरे राज्यों में काम करने के लिए जाते हैं। पिछड़ा और अति पिछड़ा समुदाय की स्थिति दलित से थोड़ी बेहतर है। 2011-12 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान (एनएसएसओ) के आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में दलित श्रमिकों का महज 5 प्रतिशत हिस्सा ही नियमित रोजगार पा रहा था। शेष सभी या तो कृषि कार्य के आसरे थे या फिर गैर-कृषि स्वरोजगार के सहारे या दिहाड़ी मजदूर के रूप में गुजर-बसर कर रहे थे। 

वही यह सर्वेक्षण दिखाता है कि शहरों में केवल 30 प्रतिशत दलित आबादी को नियमित रोजगार मिल पाता है। मुसलमान ओबीसी नियमित रोजगार पानेवालों में 17 प्रतिशत और हिंदू ओबीसी में 30 प्रतिशत हैं। इन दोनों समुदायों में अन्य या तो स्वरोजगार में लगे हैं या फिर अनियमित कर्मी हैं।  

यहां इस बात को रखना भी ठीक होगा कि उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की स्थिति राजनीति से लेकर रोजगार सभी क्षेत्रों में बद से बदतर होती गई है और उनमें स्वरोजगार का प्रतिशत भी उतनी ही तेजी से बढ़ा है। ये वे कुछ आर्थिक कारक हैं, जो दलित, ओबीसी और मुसलमान के राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित करते होते हैं।

बसपा के शुरुआती दौर में उसकी पृष्ठभूमि में वह मध्यवर्ग था, जो मुख्यतः सरकारी कर्मचारी था। उसके पास महाराष्ट्र के दलित आंदोलन का अनुभव था। वहीं उत्तर प्रदेश में एक संभावना थी। यदि हम बसपा के शुरुआती वोट प्रतिशत को देखें, तब हम पाते हैं कि यह हिस्सेदारी बेहद कम है। यह उस समय भी कम था, जब बसपा उत्तर प्रदेश के लगभग हर जिले में अपने कार्यालय खोल चुकी थी। हम देखते हैं कि बसपा जैसे-जैसे सत्ता में आने या उसे प्रभावित करने की स्थिति में आती गई है, उसका वोट का प्रतिशत भी बढत़ा गया है। गठबंधन के आधार पर बेहद कम समय के लिए दो बार मुख्यमंत्री बनकर मायावती ने अपना आधार विस्तारित करने का प्रयास किया। इससे दलित वोटरों की संख्या में हम वृद्धि तो देखते हैं, लेकिन शेष बहुजनों के मतों के आधार की सीमाएं टूटती हुई नहीं दिखती हैं। यह टूटती हुए तभी दिखती हैं जब बसपा इस सत्ता में ओबीसी और सवर्ण समुदाय को भागीदारी का ठोस वादा करती है और नारे को पूरी तरह से बदल देने की ओर बढ़ जाती हैं। इस दिशा में उनका पहला प्रयास खुद बसपा की सांगठनिक संरचना में इन समुदायों की बढ़ती भागीदारी में देखा जा सकता है। जिस समय बहुजन से सर्वजन की ओर बढ़ने की दिशा तय हो रही थी, उस समय के अखबारों और सरकारी रपटों को देखें, तब हमें दलित समुदाय पर होने वाले वे अत्याचार दिखाई देंगे, जिसके पीछे दलित के पहचान का आग्रह और अपने श्रम के बदले उचित मजदूरी की मांग थी। दलित, मजदूरों और परिवारों पर झूठे केस लगाकर उन्हें बर्बाद करने वाले ढेरों मुकदमे दिखाई देंगे। इसमें सिर्फ मानसिकता ही नहीं, आर्थिक कारक भी सक्रिय थे, जिससे भू-स्वामियों को ही नहीं, मध्यम जाति के छोटे किसानों को भी एक सस्ता, दास जैसा मजदूर उनके हाथ से निकलता हुआ दिख रहा था। इस संप्रभु वर्ग को दलित समुदाय की सांस्कृतिक चेतना से अपनी वर्चस्ववादी सांस्कृतिक संरचना के टूट जाने का खतरा पैदा हो रहा था। ऐसी सैकड़ों घटनाएं घटित हुईं, जिनमें डॉ. आंबेडकर की मूर्तियों को तोड़ दिया गया और दलितों के विवाह समारोहों पर हमला किया गया। पक्का घर बनाने, शिक्षित होने, साफ कपड़ा पहनने से लेकर यहां तक कि जूता पहनने और ऊंची जातियों के बच्चों के जैसे अपने बच्चों के नाम रखने के कारण भी दलितों पर हमला करने की घटनाएं घट रही थीं। 

कांशीराम (15 मार्च, 1934 – 9 अक्टूबर, 2006)

बसपा ऐसी घटनाओं का हवाला देते हुए अपने राजनीतिक निर्णयों में आए बदलाव को एक रणनीति की तरह पेश कर रही थी। लेकिन, आंकड़े और इन निष्कर्षों से आए बदलाव दिखाते हैं कि अपने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने तक दलित आंदोलन वाले बदलाव की राजनीति से बहुत दूर जा चुके थे। बसपा सत्ता की कुंजी से बहुजन का हित साधने का प्रयास करते हुए दिख तो रही थी, लेकिन जिन मानदंडों पर वह इसे अंजाम दे रही थीं, उससे उसकी दलित पहचान मजबूत होने की बजाय क्षरित ज्यादा होते हुए दिखता है। इस तरह के माॅडल का दावा अन्य पार्टियां भी कर सकती थीं। ये वे मानदंड ही थे, जिसके बल पर अलग-अलग जाति समूह अपने हितों के लिए पार्टी बनाकर सत्ता में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए सामने आने लगे। दलित और ओबीसी की वे जातियां, जो बसपा और सपा में अपने हितों को पूरा होते हुए नहीं देख पा रही थीं, अपनी-अपनी पार्टियां बनाने की ओर बढ़ गए। मायावती के नेतृत्व में बसपा ने सत्ता मिलने पर जिन राजनीतिक निहितार्थों का बनाना शुरू किया, उसका अर्थ बहुजन की अवधारणा, उसकी सांस्कृतिक चेतना और बदलाव की राजनीति को कमतर बनाते जाना था। 

बहुजन की अवधारणा के क्षरण का अर्थ ही था– जातिगत चेतना का निर्माण। जैसे-जैसे जाति, चाहे वह कोई भी हो; मजबूत होती है वह ब्राह्मणवादी संरचना में अपनी जगह लेता जाता है। और, यह जगह उस जाति के खुद के निर्णय से नहीं, इसका निर्णय ब्राह्मणवादी वर्चस्ववादी समूह ही करता है। यह अपनी आर्थिकी में जजमानी प्रथा है और अपनी संस्कृति में ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था है। इसका अंतिम पिलर वह श्रमिक समुदाय है, जिसकी पीठ पर यह वर्चस्ववादी व्यवस्था चलती है। जब भी यह श्रमिक समुदाय इस व्यवस्था से हटने का प्रयास करता है, उसके खिलाफ इसके ठीक ऊपर वाले हिस्से, जिसमें आमतौर पर ओबीसी कहे जाने वाले समुदाय हैं, से लेकर सर्वोच्च अवस्थिति वाली जातियां तक की संख्या एक हुजूम बनाकर इसके ऊपर हमला करती हैं। यह कार्य सिर्फ श्रम पर कब्जा करने के लिए ही नहीं, सांस्कृतिक वर्चस्व को बनाए रखने के लिए भी किया जाता है। हम पुराणों से लेकर आधुनिक दौर में बिहार, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा आदि जगहों पर ऐसे ही झुंड बनाकर दलितों पर हमला करने, नरसंहार करने, जलाकर मार डालने आदि की घटनाएं देख सकते हैं। (विस्तार के लिए देखें– ‘द अनटचेबिल्स: सबॉर्डिनेशन, प्रोवर्टी एंड दी स्टेट इन माडर्न इंडिया’, ओलिवर मेंडेल्सन और मारिका वीकाॅजी, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस) 

ऐसी कोई घटना नहीं मिलती है, जिसमें मध्यम जातियों के साथ ठीक इसी तरह का सुलूक किया जाता रहा हो। इस समुदाय की श्रम में भागीदारी तो है, लेकिन यह भी दलित समुदाय से हासिल अतिरिक्त श्रम में अपनी भागीदारी सुनिश्चित किए रहता है। इस अवस्थिति की तुलना हम पूंजीवाद और श्रम के बीच के संबंधों में देख सकते हैं, जिसमें श्रम को कब्जे में बनाए रखने के लिए पूंजीवाद सारी सीमाओं को लांघ जाता है। जबकि मध्यवर्ग कई बार अपने हकों के लिए सड़क पर उतरता है तो अपने मुनाफे का एक हिस्सा उसकी ओर फेंक देता है। जब मध्यवर्ग का एक हिस्सा श्रमिकों के साथ खड़ा होने लगता है तब उसका भी पूंजीवाद भयावह तरीके से दमन करता है। लेकिन, आमतौर पर वह मध्यवर्ग को श्रमिकों से दूर रखने और कई बार उनके बीच शत्रुवत संबंधों की ओर भी ले जाता है। खासकर, धनी किसानों और छोटे उद्यमियों का प्रयोग इस तरह के दमन में देखा जा सकता है। फर्क इतना ही है कि इसमें संस्कृति, परंपरा, रिवाज, धर्म और जाति की ब्राह्मणवादी संरचना है। और, इसीलिए यह सामंतवाद के साथ घनिष्ठ तौर पर जुड़ा हुआ है। यह फर्क एक गुणात्मक है, लेकिन भारतीय समाज, अर्थव्यवस्था, राजनीति और संस्कृति में एक खास चरित्र के साथ उपस्थित है।

आज बसपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वह बहुजन की अवधारणा में अलग-अलग जातिगत पहचानों को कैसे तोड़े और किस तरह वोट की राजनीति में अपनी अवस्थिति मजबूत कर सकती है, जिससे कि उसका आधार व्यापक हो और सत्ता की कुंजी उसके हाथ में हो। कांशीराम ने इसके लिए सांस्कृतिक स्तर पर जिस वैकल्पिक अवधारणा को परिकल्पित किया था, उसे आज का बसपा नेतृत्व किस तरह से जीवन दे सकेगा। सामंतवाद के साथ जुड़ी हुई आर्थिक संरचना, जिसकी आधार भूमि गांव है, जिसे डॉ. आंबेडकर ने बार-बार चिह्नित किया था, को तोड़ने के लिए एक नया कार्यक्रम बनाना ही होगा। इसके सामने सबसे बड़ी चुनौती ब्राह्मणवादी राज और जाति व्यवस्था है, जिससे टकराए बिना आगे जाना मुश्किल है। और, अंत में मध्यवर्ती जातियां तभी बसपा के साथ खड़ी हो सकेंगीं, जब उन्हें भूमि और रोजगार मिलने की सुनिश्चतता हो। और, श्रम से हासिल मुनाफे में वर्चस्वशाली समूह की भागीदारी न हो। कोई भी राजनीतिक पार्टी अपनी आधारभूमि से चेतना ग्रहण करती है। बसपा को अपने उन लोगों के बीच जाना होगा; जो भूमिहीन है, जाति के आधार पर उत्पीड़ित हैं, उनके श्रम को लूटा जाता है और जजमानी प्रथा में अब भी बांधकर रखा जाता है, जिन्हें पहचान के आधार पर अपमानित किया जाता है और समाज में एक ऐसे मान्य चेतना के शिकार है, जिसमें इंसान होना अब भी मयस्सर नहीं हैं। जाति की मध्यवर्गीय चेतना अधिकतम जातिगत पहचान तक ही ले जा सकती है और अंततः ब्राह्मणवादी हिंदू जाति व्यवस्था का हिस्सा बन जाने के लिए अभिशप्त रहेगी। बसपा के लिए यह रास्ता आसान नहीं है। 

यहां इस बात को याद रखना होगा कि जब दलित राजनीति का उभार हो रहा था और मंडल आयोग की सिफारिशों की चर्चा शुरू हो चुकी थी तब कांग्रेस के नेता राजीव गांधी ने अयोध्या में शिलान्यास पूजन कर हिंदू संस्कृति बचाने की अपील किया था और उस समय संघ के चिंतक एम.वी. कामथ ने शुद्र उभार को हिंदू संस्कृति को एक खतरा माना था। ऐसी ही सोच का प्रदर्शन सवर्ण समुदाय से आये नेता अपने भाषणों में खूब कर रहे थे। यह वह चुनौती है, जिसे बहुजन राजनीति को ध्यान में रखना होगा। हम आंकड़ों में देख सकते हैं कि बसपा के लिए वोट का ध्रुवीकरण जातियों की संरचना में बेहद सतर्कता लिए हुए है। सवर्ण जातियों की वोट की बहुसंख्या हमेशा कांग्रेस और भाजपा के साथ है। इसी तरह से मध्यवर्ग, खासकर शहरी मध्यवर्ग का वोट भी इन्हीं दोनों के पास है। इन दोनों के वोट एक दूसरे की ओर शिफ्ट होते हुए हम देख सकते हैं। यह समुदाय वोट के मोर्चे पर कांग्रेस और भाजपा, इन दो समूहों के हितों को सर्वोपरि रखता है। यह वोट के ब्राह्मणवादी वर्चस्व का राजनीतिक अर्थशास्त्र है। यह इस माध्यम से भी राज्य को अपने नियंत्रण में रखता है और अपने अनुसार ही अन्य कार्यवाहियों को निर्देशित करता है। ये वे अंतर्निहित दबाव थे, जिसमें ‘स्वभावतः’ मायावती अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार में एक तरफ केंद्र की कांग्रेस सरकार के निर्णयों को उत्तर प्रदेश में लागू कर रही थीं और दूसरी ओर शहरों के विकास पर खूब जोर लगा रही थीं। मायावाती के इन प्रयासों के बावजूद हम अगले चुनाव में इस वर्ग के वोट का ध्रुवीकरण बसपा के पक्ष में होते हुए नहीं देखते हैं। हम देखते हैं कि मायावती बसपा की सांगठनिका संरचना का प्रयोग दलित समुदाय को ब्राह्मणों के प्रति शिष्टाचार पूर्ण व्यवहार करने का अभियान चलाती हैं। लेकिन, जैसे ही भाजपा का उभार तय हो जाता है, यह सारा वोट उस तरफ चला जाता है। वोट की यह प्रवृत्ति दिखाता है कि यह वह समुदाय है जो संप्रभुता को बनाये, बचाए और एकीकृत रखने में विश्वास करता है और हमेशा सत्ता में ही बना रहना चाहता है। वोटों का विश्लेषण यह भी दिखाता है कि बहुजन की अवधारणा में जातियां समाहित नहीं हो पा रही हैं। ऐसी स्थिति में ये वोट एक बेहद छोटे स्तर पर जाति उत्थान समिति या पार्टी या फिर संगठन बनाकर ध्रुवीकृत होते हैं और बहुजन की आवधारणा से बाहर जाकर अपने हितों को पूरा करने का प्रयास करती हैं। बहुजन अवधारणा से बाहर जाने की प्रक्रिया वोट का विभाजन है और ये कांशीराम की गणित का हिस्सा नहीं बने। इसे विभाजित करने वाली ताकतों में एक हिंदू जातिवादी व्यवस्था का सोपान मुख्य भूमिका निभाता है, जिसमें हर जाति एक दूसरे के या तो ऊपर है या नीचे है। इसीलिए बहुजन की सांस्कृतिक या राजनीतिक अवधारणा हिंदूवादी सोपानीकृत जाति व्यवस्था में सेंध नहीं लगा सकी। बल्कि बहुजन की अवधारणा में इसने सेंध लगा दिया और मायावती को एक खास जाति का प्रतिनिधि के रूप में चिह्नित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा। इसका एक बड़ा कारण निश्चय ही इसमें अंतर्निहित आर्थिक हित हैं। जातिगत कल्याणवादी अवधारणा को इससे मिलने वाले आर्थिक हित और सांस्कृतिक-लाभ को हवा देकर बहुजन वोट को निरंतर विभाजित करने का बकायदा अभियान चलाया गया। इस संदर्भ में आरएसएस द्वारा चलाए गये कार्यक्रम और अभियानों को देखना जरूरी है। भाजपा ने इस मोर्चे पर लगातार काम किया और जातिगत सोपानों को स्थिर करते हुए बहुजन की अवधारणा को कमजोर बना दिया। इसने बसपा का नारा – ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ को ही बदलकर ‘सबका साथ, सबका विकास’ में बदल दिया और बसपा के बहुजन वोट के आधार को खिसका दिया। वोट का समीकरण यह भी दिखाता है कि बसपा जब तक अपने सिद्धांतों से बाहर नहीं आ गई, सवर्ण वोटों का हिस्सा बसपा के पक्ष में नहीं गया। उत्तर प्रदेश में लगभग दस सालों तक किसी को बहुमत नहीं मिला। वर्चस्ववादियों का वोट अपने हितों के इंतजार में रही लेकिन बहुजन या सपा की राजनीति के साथ जाना स्वीकार नहीं किया। हम देख चुके हैं कि इस वोट का 10 प्रतिशत से भी कम हिस्सा बसपा के नारों में परिवर्तित और उसकी सांगठनिक संरचना में बदलाव के साथ ही इसके पक्ष में आया। वोटों की यह प्रवृत्ति दिखाती है कि जाति संरचना न तो सम्मिलन की प्रक्रिया में टूटेगी और न ही सांस्कृतिकरण से; यह दोनों ही प्रक्रियाओं में जातिगत सोपानों को ही मजबूत करेगी। वोट के पैटर्न का विश्लेषण यह दिखाता है कि बसपा की राजनीति जाति उन्मूलन के कार्यभार को पूरा नहीं कर सकती। वह अधिकतम दलित समुदाय के अत्यंत छोटे से हिस्से को, जिसे प्रतिशत में निकालने के लिए मशक्कत करनी होगी, को थोड़ा लाभ जरूर पहुंचा सकती है। और इससे बहुजन समाज में प्रभावकारी बदलाव आ जाय, ऐसा ऐतिहासिक तौर पर नहीं दिखता है, और ऐसा होने की कोई संभावना भी नहीं दिखती है। मायावती सरकार के प्रति सपा और भाजपा का व्यवहार यह दिखाता है कि सिर्फ सत्ता में पहुंचना ही काफी नहीं है, सत्ता में बने रहने के लिए जिन प्रशासनिक आधारों की जरूरत होती है और जिस तरह की राजनीतिक-सामाजिक समर्थन की जरूरत होती है, उसका निर्माण भी जरूरी है। ऐसे निर्माण का अर्थ ही उसके भीतर उनकी शर्तों के साथ समा जाना। 

मध्यवर्गीय चेतना चाहे जितनी काल्पनिक उड़ान भर ले, उसे जब जमीन पर उतरना होता है तब उस चेतना को निर्मित करने वालों के बीच जाना ही होता है, जिससे कि उसे रूपाकार मिल सके। यदि इस चेतना को वोट के धरातल पर उतरना हो, तब उसे उस वोट की राजनीति में उतरना होता है। अपने देश में इस वोट के पैटर्न का निर्माण उपनिवेशिक दौर से होते हुए यहां तक आया है। इसकी संरचना ही ऐसी है जिसे पाने के लिए इस संरचना का हिस्सा होना होता है। इसकी संरचना हमारी चेतना से निर्धारित नहीं होती है। इसकी संरचना ही हमारी चेतना और विचारधारा को निर्धारित करती है। इसके संरचना में आने का अर्थ है इसकी उपनिवेशिक विरासत के साथ खड़ा होना और इसकी वर्चस्ववादी राजनीति को आगे बढ़ाना व एक ब्राह्मणवादी राज-व्यवस्था को मजबूत करना। निश्चय ही इस राजनीति और संरचना का प्रतिरोध संभव है लेकिन तभी जब सत्ता का मोह त्याग दिया जाय और बहुजन राजनीति को जनता के बीच ले जाते हुए उसे संगठित करने का रास्ता अख्तियार कर लिया जाय। डॉ. आंबेडकर के शब्दों में, “यदि हमारी चेतना और हमारी इच्छा हमारे संघर्षों में एक हो जाए तब हम अन्याय के सामने डट सकते हैं, लेकिन उसे मिटा नहीं सकते। यदि अन्याय को खत्म करना है तब उस अन्याय के सामने डटकर प्रतिरोध करना होगा। और, जब अन्याय अपनी सामूहिक ताकत के साथ आगे बढ़े तब हमें भी सामूहिक ताकत से मुकाबला करना होगा। यह चाहे साम्राज्यवाद का उत्पीड़न हो या वर्ग का उत्पीड़न हो। एक वर्ग के प्रभुत्व को तभी हटाया जा सकता है जब उसके खिलाफ ताकत का प्रयोग हो। ऐसा होने पर ही एक ताकतवर के दबाव से कमजोर मुक्ति पा सकेगा।”

(समाप्त)

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

अंजनी कुमार

श्रम-समाज अध्ययन, राजनीति, इतिहास और संस्कृति के विषय पर सतत लिखने वाले अंजनी कुमार लंबे समय से स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं

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