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आरएसएस और जाति के विनाश की राहें

खाद्य संस्कृति का लोकतांत्रिकरण और उसे व्यक्तिगत पसंद-नापसंद पर आधारित बनाना, जाति के उन्मूलन से जुड़ा हुआ मुद्दा है। संघ के नेताओं ने कभी यह नहीं कहा कि व्यक्ति या परिवार अपनी पसंद का भोजन करने के लिए स्वतंत्र हैं। पढ़ें, प्रो. कांचा आइलैय्या शेपर्ड का यह आलेख

पिछले कुछ समय से शूद्र/ओबीसी लगातार यह मांग करते आ रहे हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना होनी चाहिए। जाहिर तौर पर वे अपने संख्याबल के महत्व के साथ-साथ द्विज वर्चस्व वाले समाज में अपनी स्थिति के प्रति भी जागरूक हो गए हैं। इसके समानांतर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अचानक सार्वजनिक मंचों से जाति के विनाश की बातें करने लगा है। मैंने ‘द वायर’ (20 अक्टूबर, 2023) में प्रकाशित अपने लेख में लिखा है– “दत्तात्रेय होसबोले और संघ के अन्य नेता दलितों/शूद्रों को मंदिरों में प्रवेश करने और सार्वजनिक जल स्रोत से पानी लेने का अधिकार देकर जाति का उन्मूलन करना चाहते हैं! ऐसा लगता है कि वे बहुत पुराने समय में जी रहे हैं। ये दोनों मुद्दे न केवल आउटडेटिड हैं, वरन् इनसे सामाजिक भेदभाव दूर होने वाला नहीं है।” 

उपरोक्त लेख में मैंने उन सभी जातियों, जिन्हें आरएसएस हिंदू मानता है, के सदस्यों को पुरोहितगीरी करने का अधिकार देने की बात कही है। मैंने यह भी कहा है कि हमें श्रम के श्रेणीबद्ध असम्मान के खिलाफ भी संघर्ष करना चाहिए, क्योंकि इसी से श्रेणीबद्ध असमानता पर आधारित जाति प्रथा जन्मी है। ये दोनों कदम जाति प्रथा के उन्मूलन के लिए महत्वपूर्ण हैं। 

इस लेख में मैं अंतरजातीय विवाह पर बात करना चाहता हूं, जिन्हें आरएसएस प्रोत्साहित नहीं करता। आरएसएस मांसाहारियों और शाकाहारियों के बीच समाज और विशेषकर उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में भेदभाव को भी बढ़ावा दे रहा है। मांसाहार बनाम शाकाहार द्वंद्व से जाति का उन्मूलन नहीं होगा, बल्कि इससे समाज और विश्वविद्यालयों जैसी सार्वजनिक संस्थाओं में ब्राह्मणवाद को बढ़ावा मिलेगा व भोजन पर आधारित सांस्कृतिक टकराव शुरू होगा। दरअसल अलग-अलग जातियों की खाद्य संस्कृति अलग-अलग है और यह भी अंतरजातीय विवाह में बाधक हैं। कैसे? आइए, हम देखें। 

दो सामाजिक हथियार

अंतरजातीय विवाह एवं सामूहिक सहभोज ये दो ऐसे हथियार हैं, जिनका उपयोग जाति के उन्मूलन के लिए किया जा सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि विवाह और खाद्य संस्कृति सामाजिक समूहों को एक-दूसरे से जोड़ने या अलग करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। जाति के अंदर विवाह करने की अनिवार्यता और खाद्य संस्कृति व परंपरा के आधार पर सामाजिक समूहों के विभाजन ने हजारों वर्षों तक जाति-प्रथा को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जाति-केंद्रित विवाह का उद्देश्य अलग-अलग जातियों के लोगों का डीएनए अलग-अलग रखना था। 

आरएसएस को अस्तित्व में आए करीब 100 साल पूरे हो चुके हैं। इस अवधि में इस संगठन के नेताओं द्वारा अपने लेखन या भाषणों में अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहित करनेवाली कोई बात कही गई हो, इसका कोई प्रमाण नहीं है। डॉ. आंबेडकर का कहना था कि अंतरजातीय विवाह से अलग-अलग व्यवसाय में रत दो एकदम पृथक समुदायों के बीच रक्त संबंध स्थापित हो सकेंगे। इस तरह के विवाह से उत्पन्न संतान न केवल शारीरिक और मानसिक दृष्टि से बेहतर होगी, बल्कि दोनों पक्षों की अपनी-अपनी जातियों के प्रति वफ़ादारी आधारित शिकंजे को भी कमज़ोर करेगी। शायद इसी बात को साबित करने के लिए डॉ. आंबेडकर ने सविता से विवाह किया। सविता ब्राह्मण थीं। हमें नहीं पता कि पश्चिमी संस्कृति से बाबस्ता हो चुके एक दलित पुरुष, जो मांसाहारी था, और शुद्ध भारतीय वातावरण में पली-बढ़ी एक ब्राह्मण महिला का वैवाहिक जीवन कैसा रहा होगा। या तो सविता अथवा आंबेडकर शुद्ध शाकाहारी या मांसाहारी, या दोनों बन गए होंगे या शायद दोनों ने एक-दूसरे की खानपान संबंधी पसंद का सम्मान किया होगा। 

एक पुस्तक के लोकार्पण के मौके पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत

जाति-प्रथा के अधीन अंतरजातीय विवाह 

सभी जातियों के युवा भारतीय उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं। इससे अंतरजातीय विवाह की संभावना बढ़ी है और ऐसे विवाह हो भी रहे हैं। मगर जाति से जुड़े सांस्कृतिक नियमों के चलते, अधिकांश मामलों में अभिवावक अंतरजातीय विवाहों को स्वीकार नहीं करते, क्योंकि उससे उनके समुदाय में उनके सम्मान पर आंच आती है। कई मामलों में, विशेषकर जब एक पक्ष दलित और दूसरा गैर-दलित हो, प्रेमी युगल की हत्या की घटनाएं बहुत आम हैं। देश के सबसे बड़े सामाजिक संगठन और सत्ताधारी भाजपा के मार्गदर्शक आरएसएस के इस मुद्दे से निपटने की क्या योजना है, इसके बारे में हम कुछ नहीं जानते। 

आरएसएस के नेता सनातन धर्म या हिंदू परंपरा को बनाए रखने की बात करते हैं? क्या अंतरजातीय विवाह सनातन धर्म या हिंदू परंपरा का हिस्सा हैं? आरएसएस को देश को यह साफ़ करना चाहिए। भारत में लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए जाति का उन्मूलन महत्वपूर्ण है। यह अच्छी बात है कि आरएसएस अब जाति के उन्मूलन की बात कर रहा है। मगर वह यह कैसे करेगा, यह भी उसे स्पष्ट करना चाहिए। 

अंतरजातीय सहभोज, मांस और शुद्ध शाकाहारी

जाति-प्रथा ने भारत में लोगों का एक साथ बैठ कर भोजन करना नामुमकिन बना दिया था। सदियों तक अलग-अलग जातियों के लोग एक साथ बैठ कर भोजन नहीं कर सकते थे। आधुनिक रेस्टोरेंटों और होटलों ने शहरों में साथ बैठकर खाने से जुड़े जातिगत निषेधों को अप्रासंगिक बना दिया है। मगर ग्रामीण क्षेत्रों में यह अब भी समस्या है। कई स्कूलों में दलित रसोईये द्वारा पकाया व परोसा गया खाना गैर-दलित बच्चे नहीं खाते। यह भी परंपरागत समस्या है। आरएसएस ने इस परंपरा का विरोध नहीं किया है।

शाकाहार बनाम मांसाहार कई आईआईटी और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में गंभीर समस्या बन गया है। कुछ केंद्रीय मंत्री आरएसएस की शाकाहार संस्कृति का हिस्सा रहे हैं और वे अपने अधीन संस्थाओं को शुद्ध शाकाहारी मेन्यु अपनाने का निर्देश देते रहे हैं। स्मृति ईरानी पहली केंद्रीय शिक्षा मंत्री रहीं, जिन्होंने बाकायदा सर्कुलर जारी कर केंद्रीय विश्वविद्यालयों और संस्थानों को यह आदेश देने की तैयारी कर ली कि वहां केवल शाकाहारी भोजन ही परोसा जाय। कुछ आईआईटी के प्रमुखों; जिनमें आईआईटी, मुंबई शामिल है; ने शाकाहारी और मांसाहारी विद्यार्थियों के बैठने की अलग-अलग व्यवस्था करने के आदेश जारी कर दिए हैं। और यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि आरएसएस की शाकाहारी भोजन परंपरा में विचारधारात्मक आस्था है और सनातन धर्म, शाकाहारवाद का पैरोकार है।

मुसलमानों और ईसाईयों को तो छोड़िए, भारत में शूद्र, दलित और आदिवासी भी उपलब्धतानुसार शाकाहारी या मांसाहारी भोजन करते हैं, लेकिन किसी भी त्योहार या उत्सव के अवसर पर मांसाहारी व्यंजन उनकी पहली पसंद होती हैं। खाद्य सांस्कृतिक परंपरा में जाति-वर्ण विभाजन स्पष्ट है। क्या आरएसएस अपने संगठन की शुद्ध शाकाहारी परंपरा को त्यागने के लिए तैयार है या नहीं? सभी लोग सार्वजानिक स्थानों पर और अपने घरों में भी अपनी पसंद का भोजन कर सकते हैं, इस बारे में संघ का क्या कहना है? हिंदू धर्म या हिंदुत्व की खाद्य संस्कृति क्या है? क्या वह शुद्ध शाकाहार है या संबंधित व्यक्ति की पसंद के आधार पर मिश्रित (मांसाहारी एवं शाकाहारी) है?

खाद्य संस्कृति का लोकतांत्रिकरण और उसे व्यक्तिगत पसंद-नापसंद पर आधारित बनाना, जाति के उन्मूलन से जुड़ा हुआ मुद्दा है। संघ के नेताओं ने कभी यह नहीं कहा कि व्यक्ति या परिवार अपनी पसंद का भोजन करने के लिए स्वतंत्र हैं। जो लोग शुद्ध शाकाहारी हैं, जिन लोगों के भोजन में शाकाहार और मांसाहार दोनों रहते हैं, उन्हें जाति भी विभाजित करती है। जैसे दक्षिण भारत में शूद्र, दलित और आदिवासी मांस तथा सब्जी-भाजी दोनों खाते हैं जबकि ब्राह्मण और बनिए शुद्ध शाकाहारी हैं। इन जातियों के बच्चों को भी अपनी परिवार की परंपरा के अनुसार भोजन करना सिखाया जाता है। 

इस स्थिति को बदले बिना, आरएसएस जाति के उन्मूलन की बात कैसे कर सकता है?

इस लेख में मैंने ऐसे चार सामाजिक क़दमों की बात की है, जो कदम-दर-कदम हमें जाति के उन्मूलन की ओर ले जा सकते हैं और जिनके बारे में आरएसएस चुप है। (1) जिन भी जातियों को आरएसएस हिंदू मानता है, उन सभी को हिंदू मंदिरों में पुरोहित बनने का अधिकार। इसके लिए धार्मिक शिक्षा देने वाले कॉलेज एवं स्कूल खोले जाने होंगे और इनमें दलितों, आदिवासियों और शूद्रों सहित सभी जतियों के लोगों को प्रवेश लेने का अधिकार होगा। (2) श्रम की गरिमा के बारे में शैक्षणिक सामग्री बड़े पैमाने पर प्रसारित की जाय, ताकि लोगों को यह समझाया जा सके कि चाहे चमड़े का काम हो या मटके बनाना, चाहे वह हजामत बनाना हो या खेत जोतना या स्कूल अथवा कॉलेज में पढ़ाना, कोई काम छोटा या बड़ा नहीं है। (3) अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहित करना और लोगों को यह समझाना कि वे राष्ट्र, समाज, परिवार और व्यक्ति सभी के हित में है और (4) एक साथ बैठ कर भोजन करने को प्रोत्साहित करना, जिसमें व्यक्ति अपनी पसंद के अनुसार भोजन कर सके और जिसमें सभी की पसंद को, चाहे वह मांसाहार हो या शाकाहार, समान सम्मान दिया जाय। 

यह प्रचार, जो कि दिल्ली में हाल में हुई जी-20 शिखर बैठक में भी किया गया, को बंद किया जाए कि शाकाहार हिंदू या भारतीय खाद्य संस्कृति है। 

अगर संघ जाति के उन्मूलन अथवा विनाश अथवा निवारण के प्रति गंभीर है तो उसे इन मुद्दों पर अपनी राय को स्पष्ट करना चाहिए। 

(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कांचा आइलैय्या शेपर्ड

राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

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