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उत्तर प्रदेश : क्या कामयाब होगी बसपा को हाशिये पर ढकेलने की भाजपा की रणनीति?

यह भी सच है कि भारतीय लोकतंत्र में वोट एक गणित की तरह काम नहीं करता है। इस वोट की गणित की रणनीति पर कांशीराम ने काफी काम किया, लेकिन उन्हें इसके परिणाम उस स्तर पर हासिल नहीं हुए, जितना उन्होंने कलम की नोक के आधार पर बताया था। भाजपा के संदर्भ में यही बात लागू होती है। बता रहे हैं अंजनी कुमार

उत्तर प्रदेश में दलित आबादी लगभग 22 प्रतिशत है। प्रदेश की कुल 80 लोकसभा सीटों में 14 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। वर्ष 2019 के चुनाव में भाजपा ने इन सारी सीटों पर जीत हासिल किया था। इससे इतना तो जाहिर है कि भाजपा की दलित वोटों पर काफी पकड़ है। फिर भी भाजपा अभी से दलित वोट की गणित को ठीक करने के लिए अभियान में लग गई है। 

यदि हम सीएसडीएस के आंकड़ों को देखें, तब हम लोकसभा और फिर विधान सभा चुनावों में बसपा के गिरते वोट प्रतिशत, खासकर दलित वोटों में गिरावट को देखा जा सकता है। वहीं सीएसडीएस के आंकड़ों में बसपा के जाटव समुदाय के आधार वोट में घुसपैठ और प्रभाव को देखा जा सकता है। विधान सभा चुनाव 2012 में जाटव वोट भाजपा के पक्ष में 5 प्रतिशत पड़ा था, वह 2022 में 21 प्रतिशत हो गया। उपरोक्त समय में गैर-जाटव दलित वोट 11 प्रतिशत से बढ़कर 41 प्रतिशत हो गया। 

ऐसे में, यही लगता है कि भाजपा का दलित अभियान बसपा की वोट की आधारभूमि ही खिसका देने के लिए ही हो रहा है।

यह अनायास ही नहीं रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रविदास मंदिर जाकर वहां भजन कीर्तन करते हुए और दलितों का पांव पखारते हुए दिखे। लेकिन, अब आगामी चुनाव के मद्देनजर यह काम अब एक पूरी रणनीति के साथ किया जा रहा है। अक्टूबर, 2023 के मध्य से क्षेत्रवार दलित सम्मेलनों का सिलसिला शुरू करने की घोषणा लखनऊ में किया गया। इस अभियान के तहत 6 संगठन क्षेत्र घोषित किए गए, जिनमें प्रदेश के सभी जिले शामिल हैं। इसमें प्रत्येक विधानसभा से दो हजार दलित प्रतिनिधियों को तैयार करना है। इन प्रतिनिधियों में दलित वर्ग के डाक्टर, प्रोफेसर, इंजीनियर, वकील व शिक्षाविद सहित प्रबुद्ध वर्गों पर जोर देना है और सम्मेलनों में भागीदारी के लिए आमंत्रित करना है। 

डॉ. भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा पर माल्यार्पण करते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ

वहीं 17 अक्टूबर, 2023 को हापुड़ में दलित महासम्मेलन को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने संबोधित किया और कहा कि मोदी ने ही दलित समुदाय का असल में भला किया है। उन्होंने दावा किया कि दलितों के आदर्श भीमराव आंबेडकर के जीवन से जुड़े पांच स्थानों को पंचतीर्थ की तरह विकसित किया। फिर 19 अक्टूबर को अलीगढ़ में आयोजन हुआ। आनेवाले दिनों में ये सम्मेलन 3 नवंबर तक अलीगढ़, कानपुर, प्रयागराज, लखनऊ और गोरखपुर में आयोजित होंगे। इसके बाद ‘भीम सम्मेलन’ करने की खबर भी है। गांव और बस्ती के स्तर पर संपर्क अभियान चलाकर भाजपा अपने समर्थन का आधार मजबूत करने में लगी है।

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ऐसा नहीं है कि कांग्रेस और सपा इस काम में पीछे हैं। दोनों ही पार्टियां दलित समुदाय में अपना आधार निर्माण में लगी हुई हैं। लेकिन भाजपा नेतृत्व इस मामले में आगे आया है। इसके लिए वह पौराणिक कथानकों तक का प्रयोग कर रही है। जनवरी, 2024 को राम मंदिर को दर्शनार्थ खोल दिया जाएगा। शायद यही कारण है कि इस माहौल में, दलित समुदाय को भाजपा से जोड़ने के लिए जमीनी स्तर पर काम हो रहा है और साथ ही पौराणिक आख्यानों से जोड़ते हुए कथित सांस्कृतिकरण की प्रक्रिया में हिंदू वोटों में बदल देने का भी काम चल रहा है। यह इस कारण भी कि उत्तर प्रदेश की आगामी लोकसभा चुनाव में भूमिका एक बार फिर निर्णायक होगी। 

‘‘भारत दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव-तंत्र है। यह केवल गौणतः दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है।’’ आशीष नंदी। (सत्ता के गलियारों से : संजय बारू की पुस्तक से उद्धृत; पृष्ठ : 126) 

हालांकि अक्सर यह दावा किया जाता है कि भारत सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यदि वोट की गणित के हिसाब से देखा जाए, तब भारत के लोकतंत्र के शीर्ष पर ओबीसी और दलित समुदाय का हक पहले बनता है। यदि लोकतंत्र के मूल्य की बात की जाय तब भारत की 80 प्रतिशत जनता का वोट निर्णायक होना चाहिए। लेकिन, सच्चाई यही है कि इन वोटों के लिए कांग्रेस सहित सभी पार्टियां लोकप्रिय नारा उछालने में लगी हैं। 

इन सबके बीच बिहार में हुए जाति आधारित गणना और उसके प्रकाशित कुछ आंकड़ों ने पूरे देश को चौंका दिया है। भाजपा को छोड़कर ज्यादातर पार्टियां देश स्तर पर जाति जनगणना की मांग कर रही है। निश्चित ही यह एक राजनीतिक मांग है और आने वाले समय में इसका भारतीय समाज और राजनीति में बदलाव लाने के संदर्भ में काफी असर पड़ेगा। भाजपा की नीति स्पष्ट-सी लग रही है। उसके नेता हिंदुत्व और संभवतः सनातन धर्म की संरचना में भारतीय समाज को देख रहे हैं और सावरकर की हिंदुत्व राष्ट्रवाद की अवधारणा में अन्य धर्मों की भूमिका को देख रहे हैं। 

भाजपा की उसकी भारत की अवधारणा में यह पुरातनता और आधुनिकता का दायरा है। इस दायरे के शीर्ष पर कारपोरेट, व्यवसायी, कारोबारी और बैंकर हैं। साथ ही, मंदिरों और मठों के संत और मठाधीश हैं। इनके अलावा इनके साथ लोकतंत्र की परंपरा निबाहने वाले नेतागण हैं और सबसे नीचे श्रमिक, किसान और मंदिरों में मत्था टेकते आस्थावान लोग हैं। यही भाजपा का उभरता हुआ भारत दिख रहा है। ऐसे में, भाजपा के लिए अन्य पार्टियों की भूमिका महज सहयोगी से अधिक की बनती नहीं दिखती है। परिणामत: भाजपा का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ अब धीरे-धीरे अन्य पार्टियों से भी मुक्त भारत की तरफ बढ़ता दिख रहा है। भाजपा इस बार बसपा को उत्तर प्रदेश से विदा करने के अभियान में लग गई है।

लेकिन, यह भी सच है कि भारतीय लोकतंत्र में वोट एक गणित की तरह काम नहीं करता है। इस वोट की गणित की रणनीति पर कांशीराम ने काफी काम किया, लेकिन उन्हें इसके परिणाम उस स्तर पर हासिल नहीं हुए, जितना उन्होंने कलम की नोक के आधार पर बताया था। भाजपा के संदर्भ में यही बात लागू होती है। यदि सत्ता का चरित्र मूलतः ब्राह्मणवादी वर्चस्व के साथ जुड़ा रहता है और एकाधिकारी व्यवस्था की तरह काम करता है, तब इसका टिके रहना बेहद मुश्किल होगा। प्रशासनिक व्यवस्था एक सीमा तक राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने में सहयोग कर सकता है, लेकिन सत्ता की राजनीति को बनाए नहीं रख सकता। राजनीति ही अंतिम निर्णायक तत्व है। दलित राजनीति में बदलाव इस पूरी गणित को पलट सकता है। उत्तर प्रदेश में इस बदलाव की उम्मीद किया जा सकता है। यहां दलित राजनीति में हो रही सुगबुगाहट को देखा जा सकता है। भूमिहीनों के इस राज्य में मुफ्त अनाज का वितरण न तो अस्मिता के सवाल को हल कर सकता है और न ही बेहतर जिंदगी की आकांक्षा को पूरा कर सकता है। ये आकांक्षाएं ही नई जमीन तैयार करने में लगी हुई हैं।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अंजनी कुमार

श्रम-समाज अध्ययन, राजनीति, इतिहास और संस्कृति के विषय पर सतत लिखने वाले अंजनी कुमार लंबे समय से स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं

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