ओबीसी विमर्शकार प्रो. राजेंद्र प्रसाद सिंह पालि भाषा के प्राख्यात विद्वान हैं। बिहार में जाति आधारित सर्वेक्षण को लेकर ‘सम्राट अशोक’ का उपयोग एक प्रतीक के रूप में किया जा रहा है। इसी संदर्भ में फारवर्ड प्रेस ने उनसे दूरभाष पर बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश
सम्राट अशोक को सामाजिक न्याय से जोड़ा जा रहा है। तो क्या आप इससे सहमत हैं? यदि हां तो इसके आधार क्या हैं?
काल और देश के हिसाब से परिभाषाएं बदलती रहती हैं। सामाजिक न्याय जिस अर्थ में हमारे संविधान में है, या संविधान के उन अंशों को जो प्रयोग में लाया गया या मंडल कमीशन के रिपोर्ट में जो सामाजिक न्याय है, तो इन अर्थों में आपको प्राचीन भारत में इसकी परिभाषा कुछ भिन्न मिलेगी। चूंकि उस समय सामाजिक न्याय जैसी संवैधानिक परिभाषा नहीं थीं, बावजूद इसके आपको समानताएं मिलेंगीं। जैसे कि आज जिन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) कहा जाता है, वे लोग थे, लेकिन उस समय उन्हें ऐसे नहीं कहा जाता था, जैसे अब आज हमलोग हैं या सामाजिक न्याय जिसके ऊपर आधारित है कि इन-इन जातियों के लोग पिछड़े हैं और इनके साथ अन्याय हो रहा है।
अशोक के जमाने में जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था नहीं, गण व्यवस्था थी। तो सम्राट अशोक ने जो समानता की बात की, उसे वर्ग के रूप में समझा जाना चाहिए जैसे शासक-शासित वर्गीय सामाजिक व्यवस्था। शासक तो था और वह राजा था तथा राजा के मातहत बहुत सारे कर्मचारी थे और प्रशासनिक अफसर थे।
सम्राट अशोक ने अपने शिलालेखों में जो बात लिखवाई है कि छोटे और बड़े के बीच कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। अब मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) के अहरौरा में जो शिलालेख है, उसमें यह बात लिखी हुई है। हमारे यहां सासाराम (बिहार) में जो शिलालेख है, उसमें यह बात लिखी हुई है कि छोटे और बड़े के बीच में शासन कोई भेदभाव नहीं करेगा। तो इस अर्थ में यह सामाजिक न्याय हुआ। जाति आधारित नहीं बल्कि वर्ग आधारित।
दूसरी बात यह कि सामाजिक न्याय की मौलिक मान्यता क्या है। मान लीजिए कि नौकर तबके के लोग हैं, उनके साथ भी आप नौकर की तरह आचरण मत कीजिए। आप मालिक हैं तो हुआ करें। यह भी सम्राट अशोक के शिलालेखों में लिखित है कि नौकरों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। जो अफसर होते थे, उस समय अफसर नियुक्त होते थे, राजुक होते थे, धर्म महंथ होते थे, तो इन लोगों को ये निर्देश था कि आप प्रत्येक पांच वर्ष पर समाज में जाइए और जनता की समस्या को खुद सुनिए। शिलालेखों में यह लिखित है। यह एक तरीके का सेवा संहिता (सर्विस कोड) था और सम्राट अशोक खुद इस तरह जनता की समस्याओं को सुनने के लिए पटना से निकलते थे। उस समय की भाषा में हमलोग उसको धम्म यात्रा कहते हैं। वह 256 दिन की वो यात्रा हुई थी। मकसद यही कि जनता की क्या तकलीफ है, उसको सुना जाए और उसको कैसे दूर किया जाए।
एक और बात कि जैसे आजकल हम लोग देखते हैं कि एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय से उलझा हुआ है। तो संप्रदाय तो उस समय भी था। जैसे आजीवक संप्रदाय तो उस समय भी था। उस समय की प्राकृत भाषा में संप्रदाय को पाखंड कहा जाता था। आज इसको हम लोग सेक्ट (पंथ) कहते हैं। सम्राट का उसके शिलालेखों में सीधा निर्देश है कि एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय के प्रति गलत या खराब भाषा का इस्तेमाल न करे। उसको बदनाम न करे, आदर करे। आदर करने से उस संप्रदाय की भी उन्नति होगी और दूसरे संप्रदाय की भी उन्नति होगी। एक शिलालेख में मिलता है कि हमारे देश की जनता को धर्म या किसी अन्य आधार पर कहीं भी बसने से रोका नहीं जा सकता। हमारे राज्य का प्रत्येक नागरिक हमारे राज्य में कहीं भी बस सकता है। उसको लिंग या किसी आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता।
अब मैं सामाजिक न्याय को उस परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित कर रहा हूं। असली बात यह है कि आज भी यही चीज है कि कहीं भी आप उद्योग कर सकते हैं। बस सकते हैं। बिहार का आदमी गुजरात में, गुजरात का आदमी महाराष्ट्र में। यह बात उस समय आज से 22 सौ साल पहले सम्राट अशोक ने अपना विधान दिया था।
आज देखिए महिलाओं की उन्नति की बात हो रही है। महिलाओं का जो सेक्शन है, वह पिछड़ा हुआ है। समाज द्वारा यह वर्ग दबाया गया है तो महिला आरक्षण की बात हो रही है। सम्राट अशोक का एक विभाग ही था महिलाओं के लिए और उसमें बाकायदा कैबिनेट रैंक के मिनिस्टर हुआ करते थे, ताकि महिलाओं का कोई दमन न हो। इसके लिए पूरा विभाग था।
बिहार में उपेंद्र कुशवाहा ने एक बयान दिया है, जिसमें उन्होंने कहा है कि जो समाजिक न्याय के सम्राट लोग हैं, उन्होंने सम्राट अशोक की उपेक्षा की है। जाहिर तौर पर उनका इशारा नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की तरफ है, तो क्या आपको लगता है कि अब जो विमर्श इस तरफ चल निकला है, वो सिर्फ सत्ता की राजनीति है या इसके पीछे कोई सामाजिक निहितार्थ है?
देखिए, मैंने कहा है कि सम्राट अशोक के समय में जाति-व्यवस्था नहीं थी और मैं यह भी कह रहा हूं कि तमाम जाति के पूर्वज लोग किसी दूसरे रूप में सम्राट अशोक के समय में मौजूद थे। आज कुशवाहा समाज के लोग मौर्य लिखते हैं। यूपी में जाइए तो बहुत सारे दलित लोग मौर्य लिखते हैं और बुद्ध की शादी हुई थी कोरी वंश में, बहुत सारे दलित समाज के लोग कोरी भी लिखते हैं महाराष्ट्र में। यूपी में भी है कोरी जाति। मेरे कहने का मतलब है कि आज की तारीख में यह नहीं कहा जा सकता कि आज के जो कुशवाहा हैं, बस केवल वे ही सम्राट अशोक के वंशज हैं। अन्य जातियों के लोग भी उसी वंश से निकले हैं। अब इस पर रिसर्च करने से बातें सामने आएंगीं। लेकिन ऐसा नहीं है कि सम्राट अशोक पर केवल इसी जाति का कब्जा है। अगर इस उद्देश्य से वे [उपेंद्र कुशवाहा] बोलें हैं तो मैं यह कह सकता हूं कि केवल कुशवाहा समाज का संबंध ही सम्राट अशोक से है तो यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि आपको एक बात बता देते हैं कि पटना के भिखना पहाड़ी पर जो अशोक के बेटे की भिखना कुंवर के नाम से होती थी। यह बात है उन्नीसवीं शताब्दी के अंत की 1896 या 1894 की जब कोई अंग्रेज यह देखने के लिए जो सम्राट अशोक के बेटे का वो मंदिर था, उसके मुख्य पुजारी दुसाध (पासवान) जाति के थे। यह बात उसने अपनी किताब में लिखा है। और उनकी पूजा करने वाले लोग सबसे ज्यादा ग्वाल/अहीर थे। और इतिहास में जब यह जगजाहिर है। खुद ह्वेन सांग ने अपनी डायरी में लिखा है कि जो सुजाता थी, वह ग्वाल की कन्या थी। अगर सुजाता नहीं होती तो बुद्ध भी नहीं होते। उनका तो प्राणांत हो गया होता। फिर सम्राट अशोक की चर्चा नहीं होती तो वे सम्राट द ग्रेट नहीं कहे जाते। कहने का मतबल यह है कि सम्राट अशोक की सत्ता को चलाने में समाज के विभिन्न तबको का योगदान था। किसी एक जाति का नहीं था। अब एक उदाहरण तो मैंने दे दिया पटना का। उसमें तो थेर (बौद्ध धम्म स्वीकार करनेवाले पुरुष) महेंद्र की पूजा करने वाले जाति में कुशवाहा की चर्चा भी नहीं है।
तो आप इससे सहमत हैं कि अभी जो राजनीति सम्राट अशोक के नाम पर की जा रही है, उनकी पूरी वैचारिकी को एक जाति के साथ जोड़कर देखा जा रहा है, यह गलत है?
एक जाति के तो सम्राट अशोक नहीं थे, इसको हम बता चुके हैं कि उनके मूल से बहुत सारी जातियां भारत में निकली हैं। जैसे-जैसे हमलोग इतिहास में पीछे चलते जाएंगे, वैसे-वैसे जातियों की संख्या घटती जाएगी। और एक बिंदु ऐसा भी आएगा, जहां पता चलेगा कि ये पिछड़े समाज की जातियां हैं और सभी एक मूल से हैं। सब एक जड़ से निकली हैं, साबित हो जाएंगी। यह विभाजन बहुत बाद का है। अब कोइरी शब्द है, और यादव शब्द है। कोरी शब्द है, ये कहां किसी शिलालेख में मिला है? प्राचीन शिलालेख में तो दुसाध और चमार ये सब जातियां कहीं मिलती नहीं हैं। बाद में जातियां विकसित हुई हैं।
अभी जिस दिशा में, चूंकि सम्राट अशोक और बौद्ध धर्म को जितनी गहनता से आपने अध्ययन किया है और लोगों के सामने प्रस्तुत किया है, उसके आधार पर यह जानना चाहता हूं कि बौद्ध धर्म का जो पूरा विमर्श है, उसके बाद अशोक और पूरी वैचारिकी है, उसे अब आने वाले समय में किस दिशा की ओर जाते हुए आप देख पा रहे हैं?
देखिए, एक दिन भारत आज नहीं तो कुछ समय जरूर लगेगा, लेकिन बुद्ध के मार्ग पर लौटेगा। अब तो बहुत सारे लोग कहते हैं कि हम हिंदू नहीं हैं। पूछा जाता है तब क्या मुसलमान हैं, कहते हैं कि नहीं। फिर पूछा जाता है कि ईसाई हैं, फिर कहते हैं नहीं। तो क्या हैं? आखिर बौद्ध ही तो हैं। हमारे इतिहास में कोई ऐसी तिथि नहीं मिलती है जब बड़े पैमाने पर लोगों ने बौद्ध धर्म छोड़ा हो। ऐसा हमें कोई बता दे। जब प्राचीन काल में भारत बौद्धमय था तो जाहिर है कि वे लोग बौद्ध ही रहे। जब छोड़े ही नहीं, तब फिर से स्वीकार करने की बात ही नहीं हो सकती।
आप किसी आदमी से पूछिए कि भाई क्या चोरी करना पसंद करेंगे? जवाब मिलेगा– नहीं। शराब पीना पसंद करेंगे? नहीं। हत्या करना पसंद करेंगे? नहीं। सही राह पर चलेंगे। सबके साथ प्रेम रखेंगे, करुणा रखेंगे, यही तो लोग बोलते हैं। तो भीतर से बगैर चीवर पहने हर आदमी चाहता है कि हम बौद्ध मार्ग पर ही चलें। वह अच्छा मार्ग है। शांति का मार्ग है और प्रेम का मार्ग है। सब लोग यही चाहते हैं। भीतर से कहीं न कहीं वो बुद्ध की ही विचारधारा को रखता है। भले ही चीवर न पहने, उससे क्या फर्क पड़ता है।
(संपादन : राजन/अनिल)
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