कवि नचिकेता नहीं रहे। बिहार के जहानाबाद जिले के मथुरापुर केऊर गांव के एक कुर्मी (ओबीसी) परिवार में 1945 में जन्मे नचिकेता पेशे से मैकेनिकल इंजीनियर थे। करीब 78 वर्ष की आयु में बीते 19 दिसंबर, 2023 को उनका निधन हो गया।
नचिकेता जनकवि के रूप में विख्यात रहे। उनकी प्रकाशित कृतियों में ‘आदमकद खबरें’, ‘सुलगते पसीने’, ‘पसीने के रिश्ते’, ‘लिक्खेंगे इतिहास’, ‘बाइसकोप का गीत’, ‘सोये पलाश दहकेंगें’, ‘नचिकेता के भजन’, ‘रंग मैले नहीं होंगे’, ‘कोई क्षमा नहीं’, ‘मकर चांदनी का उजास’, ‘परदा अभी उठेगा’, ‘तासा बज रहा है’ (सभी गीत संग्रह) और ‘आइना दरका हुआ’ (ग़ज़ल संग्रह) शामिल हैं।
नचिकेता गीत विधा के अग्रणी सृजनकारों में रहे। उनके गीतों में किसान, गरीब, मजदूर केंद्र में होते थे। वे जगदेव प्रसाद के आंदोलन से प्रभावित थे। यह उनकी रचनाओं में सहज ही दिख जाता है। मसलन, ‘बजा हथौड़ा ठन-ठन-ठन’ शीर्षक गीत में वह लिखते हैं–
“हर घर की दीवारों की
सुलगी आज निगाहें हैं
हक़ की बड़ी लड़ाई को
फड़क रही फिर बाहें हैं
दसों दिशाओं में गूंजी
हथियारों की खन-खन-खन !
बजा हथौड़ा ठन-ठन-ठन !
मिटके रहेगा अब शोषण !”
सनद रहे कि नचिकेता द्वारा लिखित यह जनगीत बिहार में वामपंथी आंदोलन का प्रतिनिधि गीत बना। यह उस दौर का गीत है जब भले ही देश में आपातकाल के बाद गैर-कांग्रेसी सरकार थी, लेकिन बिहार में जमीन और मजदूरी के सवाल पर लोग आंदोलित थे। उनकी एक और कविता है– ‘चाहत है चूल्हे पर चढ़े तवे की आंच बनूं’। उन्होंने लिखा–
“चाहत है
चूल्हे पर चढ़े
तवे की आंच बनूं।
अभी पकी रोटी का
जीवन से संवाद बनूं
जांगर की ख़ातिर कुट्टी
चुन्नी की नाद बनूं
तेज़ भूख की बेचैनी का
तीआ-पांच बनूं।
मैं हथिया की
खड़ी फ़सल के लिए
झपास बनूं
कृषक-बहू की आंखों में
झमका उल्लास बनूं”
![](https://www.forwardpress.in/wp-content/uploads/2023/12/Nachiketa.jpg)
नचिकेता की कविताओं और गीतों में किसानों के साथ ही खेतिहर मजदूरों का सवाल भी मुखर होकर सामने आता है, जिनकी वाजिब मजदूरी के लिए जगदेव प्रसाद ने इतिहास में पहली बार खेतिहर मजदूरों को हड़ताल करने का आह्वान यह कहते हुए किया था– ‘अबकी सावन भादो में, गोरी कलाइयां कादो में’। नचिकेता ने इसी आह्वान को नया रूप दिया–
“भूख बंटे
पर, जिजीविषा की प्यास
नहीं बांटूंगा
गर्दन भी काटूंगा
केवल घास नहीं काटूंगा।”
नचिकेता यह मानते थे कि इस देश के दलितों और पिछड़ों के साथ ऐतिहासिक अन्याय किया गया है। यहां तक कि उनके इतिहास को भी लील लिया गया। अपनी कविता ‘करखाही हांडी जैसा’ में उनका विरोध कुछ और करवटें लेता है–
“करखाही हांडी जैसा
हम कोने में धर दिए गए।
सींढ़ लगी कुठिला में
गेहूं का
हर दाना बीझ गया
ज़्यादा मुंह आने के कारण
पूरा तालू
सीझ गया
नामिक ख़तरों के तिलस्म में
गायब हम कर दिए गए।
लहूलुहान सदी के
सिरहाने
फन काढ़े हैं गेहुंअन”
नचिकेता ने एक सुंदर समाज की कल्पना की थी। वे चाहते थे कि कोई भूखा नहीं रहे और सभी के वास्ते सम्मान हो। उनकी कविता ‘मेरा यूटोपिया’ में सहज ही अभिव्यक्त है–
“मुझे विश्वास है
एक दिन बदल जाएगी ये दुनिया
एक दिन बदल जाएगी यह धरती
एक दिन बदल जाएगा आकाश
मुझे विश्वास है
एक दिन पिस्तौलों से निकलेंगे फूल
एक दिन मुरझा जाएंगी हत्यारी तोपें
एक दिन ठंडे पड़ जाएंगे चीथड़े उड़ाते बम
…
मुझे विश्वास है
एक दिन पसीना सूखने से पहले
मिलेगा पारिश्रमिक
एक दिन भूख लगने से पहले
परोसी जाएगी रोटी
एक दिन करवट बदलने से पहले
आ जाएगी नींद”
बहरहाल, कृषक और मजदूर समाज के साहित्यिक प्रतिनिधि नचिकेता अब नहीं हैं। लेकिन उनकी कविताएं और गीत बिहार में भूमि और मजदूरी के लिए हुए संघर्ष के आलोक में हमेशा जोश के साथ गाए जाएंगे।
(संपादन : राजन/अनिल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, संस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in