मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा की जीत ने सभी को चौंका दिया है और संसदीय लोकतंत्र के मूल्यों पर उम्मीद करने वालों को चिंता में डाल दिया है। भाजपा की यह जीत उनके लिए भी चिंतनीय है, जो उसके उभार में फासीवाद का आसार देख रहे हैं। वस्तुतः भाजपा की जीत संसदीय राजनीति में अब केवल दलगत सरकार का बदलना भर नहीं रह गया है, बल्कि यह भारतीय राजनीति और समाज में एक गंभीर संकट को दिखा रहा है।
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा की जीत को सिर्फ कांग्रेस और भाजपा के बीच की टक्कर के रूप में देखने से सच्चाई सामने नहीं आ सकेगी। यह देखना भी जरूरी है कि भाजपा की जीत के पीछे के क्या कारण हैं। इसमें भी जीती हुई सीटों का महत्व जरूर है, लेकिन वोटों का प्रतिशत देखना उससे अधिक जरूरी है। सबसे पहले हम देखते हैं कि किसके हिस्से कितने मत पड़े।
चुनाव आयोग द्वारा जारी आंकड़ा बताता है कि छत्तीसगढ़ में भाजपा को 46.27 प्रतिशत तथा कांग्रेस को 42.23 प्रतिशत, व मध्य प्रदेश में भाजपा को 48.55 प्रतिशत तथा कांग्रेस को 40.40 प्रतिशत और बसपा को 3.40 प्रतिशत मत मिले। वहीं राजस्थान में भाजपा को 41.69 प्रतिशत, कांग्रेस को 39.53 प्रतिशत, बसपा को 1.82 प्रतिशत और सपा को 0.01 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। जबकि तेलगांना में भाजपा को 13.90 प्रतिशत, बसपा को 1.37 प्रतिशत, कांग्रेस को 39.40 प्रतिशत और बीआरएस को 37.35 प्रतिशत मत हासिल हुए।
इन्हीं राज्यों में वर्ष 2018 में हासिल हुए वोटों का प्रतिशत भी देख लेना जरूरी है। मसलन छत्तीसगढ़ में भाजपा को 33 प्रतिशत, कांग्रेस को 43 प्रतिशत और बसपा को 3.9 प्रतिशत मत मिले थे। वहीं मध्य प्रदेश में भाजपा को 41 प्रतिशत, कांग्रेस को 40.89 प्रतिशत, बसपा को 5.01 प्रतिशत और सपा को 1.3 प्रतिशत मत प्राप्त हुआ था। पिछली बार राजस्थान में भाजपा को 38.77 प्रतिशत, कांग्रेस को 39.3 प्रतिशत तथा बसपा 4.03 प्रतिशत मत हासिल हुए थे। जबकि तेलगांना में पिछली बार भाजपा को 6.98 प्रतिशत, कांग्रेस को 28.43 प्रतिशत और तेलगांना राष्ट्रीय समिति को 46.87 प्रतिशत मत मिले थे।
वोटों में हिस्सेदारी से संबंधित आंकड़ों में कांग्रेस का वोट प्रतिशत लगभग स्थिर है। और, यदि कुल वोटों की संख्या में देखें, तब यह बढ़ा हुआ दिखेगा। लेकिन, यदि हम बसपा और सपा का वोट प्रतिशत देखें, तब यह घटता हुआ दिखेगा।
मध्य प्रदेश में अनुसूचित जाति का वोट प्रतिशत 16 से 17 प्रतिशत माना जाता है। वहीं अनुसूचित जनजाति का वोट 21 प्रतिशत के करीब है। इस बार के राज्य विधानसभा चुनाव में भारतीय आदिवासी पार्टी के सिर्फ कमलेश्वर डोडियार रतलाम के सैलाना से विजयी हुए हैं। पिछली बार बसपा को यहां 5.01 प्रतिशत वोट मिला था और उसे दो सीटें हासिल हुई थीं। इस बार उसे 3.40 प्रतिशत वोट मिला है। वहीं सपा के हिस्से 0.46 प्रतिशत वोट आया है। जबकि 2018 में यह 1.30 प्रतिशत था और उसे एक सीट पर जीत भी मिली थी।
यदि हम मध्य प्रदेश की अनुसूचित जाति की सीटों पर हुई जीत का आंकड़ा देखें, तब भाजपा की पकड़ लगातार बनी हुई दिखती है। कुल 35 सीटों पर भाजपा 2008 में 25, 2013 में 28, 2018 में 18 और 2023 में 26 सीटें जीती है। दूसरे स्थान पर कांग्रेस है, जो क्रमशः 9,4,17 और 9 है। बसपा को 2013 में 3 सीटें मिली थीं, लेकिन उसके बाद उसे कोई सफलता नहीं मिली है। इस बार की जीत में भाजपा को इन सीटों में 50 प्रतिशत से अधिक वोट मिले हैं। गुना में तो यह 66.6 प्रतिशत है।
इस संदर्भ में, हमें मध्य प्रदेश में ओबीसी वोट प्रतिशत को भी ध्यान में रखें, तो यह लगभग 54 प्रतिशत के आसपास है। यदि हम ओपिनियन पोल का सहारा लें, तो इंडिया टीवी-सीएनएक्स और अन्य कई ओपिनियन पोल में ओबीसी वोट का प्रतिशत भाजपा के पक्ष में जाता हुआ दिख रहा था। यह संख्या 55 प्रतिशत के आसपास थी।
मध्य प्रदेश एक बड़ा राज्य है और यह भौगोलिक और सामाजिक आधार पर कई हिस्सों में बंटा हुआ है। उत्तर प्रदेश से सटा हुआ इलाका दलित, ओबीसी बहुल रहा है। इन्हीं हिस्सों में एक ओर कांशीराम के नेतृत्व में बसपा का उभार हो रहा था और उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा का। हालांकि बाद में मायावती के नेतृत्व में यहां उभर कर आए बसपा नेतृत्व को किनारे धकेल दिया गया और नए नेतृत्व के लिए जमीन पर जरूरत भर का काम भी नहीं हुआ। इसकी वजह से बसपा धीरे-धीरे विलुप्त होती गई। इसी खाली जगह को कांग्रेस के नेतृत्व ने दलित और आदिवासी समुदाय के लिए चरागाह जमीनों पर हकदारी और जमीन वितरण का कार्यक्रम चलाया। इससे कांग्रेस जरूर मजबूत हुई लेकिन ओबीसी समुदाय के लिए कार्य नहीं हुआ। सवर्णों के बीच आधार बनाकर चलने वाली भाजपा ने इसका फायदा उठाया और ओबीसी का हिंदुत्वकरण करने के प्रयास में जुट गई। बाद में नेतृत्वविहीन छोड़ दिए गए दलित समुदाय को भी भाजपा ने अपने पक्ष में करने में सफलता हासिल की। (देखें– ‘मध्य प्रदेश में चाहे बीजेपी हारे या कांग्रेस, संघ की जीत तय’, हरतोष सिंह बल, कारवां)
वोट का ध्रुवीकरण या हिंदुत्व सांस्कृतिकरण
भाजपा का यह मॉडल ब्राह्मणवादी संरचना को केंद्र में रखते हुए हिंदुत्वकरण की गति को तेज करने पर आधारित है। इस मसले पर वह कोई समझौता करते हुए नहीं दिखती है। मसलन, उत्तर प्रदेश में संघ-भाजपा ने एक बार बसपा को सशर्त समर्थन अवश्य दिया था, लेकिन एक बार बहुमत की सरकार बनाने के बाद संघ ने बसपा के उस आधार को ही खिसका दिया, जिसके कारण वह सरकार बनाने में सफल हुई थी। बसपा ने अपने विचारों में बदलाव करते हुए ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु महेश है’ का नारा अवश्य दिया, लेकिन भाजपा ने कभी बहुजन राजनीति का समर्थन नहीं किया और वह आज भी नहीं कर रही है। आज वह खुलकर जाति जनगणना का विरोध कर रही है।
दूसरी ओर बहुजन राजनीति में ब्राह्मणवादी पकड़ संख्या के आधार पर नहीं, राजनीति के आधार पर है। बहुजन की राजनीति की असफलता असल में बहुजन राजनीति नहीं किए जाने में ही छुपी हुई है। यह राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी देखा जा सकता है।
कांग्रेस में भले ही राहुल गांधी ने जाति जनगणना पर जोर दिया हो, लेकिन कांग्रेस का राज्यों का नेतृत्व इस मसले पर चुप रहा है और इस मसले को नीचे तक नहीं ले गया। इस जाति जनगणना की जरूरत को आम लोगों तक ले जाना और साथ ही दलित और ओबीसी नेतृत्व को सामने लाने के लिए कांग्रेस को जितनी मेहनत करनी थी, वह इस बार के चुनाव प्रचार में नहीं दिखा। इससे भी अधिक, भाजपा द्वारा समाज के ब्राह्मणीकरण की प्रक्रिया पर जितना हमलावार होना चाहिए था, वह तो दूर, उसने इस प्रतिक्रियावादी सांस्कृतिकरण पर बात करना भी जरूरी नहीं समझा। राहुल गांधी और उनका अन्य नेतृत्व एक ऐसे नरम हिंदुत्व का मॉडल पेश कर रहा था, जो इसकी संरचना तो मानेगा, बस दंगाई नहीं होगा।
नरम बनाम गरम हिंदुत्व का मॉडल निश्चित ही बहुजन राजनीति का हिस्सा नहीं हो सकता। दरअसल, ये दोनों एक ही हैं और इस मामले में अब इसका अविवादित उत्तराधिकारी भाजपा हो चुकी है। इसमें नरम या गरम का मामला खत्म हो चुका है। सनातन होने का अर्थ एक ही हो सकता है। यही वह कारण है जिसकी वजह से कांग्रेस बहुजन राजनीति से जुड़े वोटों को अपनी तरफ करने में असफल रही है।
आगामी समय में, लोकसभा चुनाव के समय भी यही स्थिति रहेगी। बहुजन राजनीति को जन्म देने वाली पार्टियों को निश्चित ही अपनी राजनीतिक अवस्थिति और वैचारिकी पर काम करना होगा। कांग्रेस पिछले दो लोकसभा चुनावों में 20 प्रतिशत वोट के आसपास स्थिर है। जीत के लिए कम से कम उसे 15 प्रतिशत अधिक वोटों की दरकार होगी। यह वोट राहुल बनाम मोदी की हवा बनाने से नहीं मिलनेवाला है। यह सिर्फ बहुजन राजनीति, जो गठबंधन से अधिक वैचारिक एकजुटता और व्यवहार पर निर्भर करेगा, से ही हासिल हो सकता है।
जनपक्षधरता ठोस रास्ते की मांग करती है
पिछले 20 सालों में भाजपा का उभार सिर्फ एक संसदीय राजनीतिक दल का उभार भर नहीं है। इसे यहीं तक सीमित कर देखना उस सच्चाई से आंख मूंदना होगा, जो असल में एक फासीवादी संरचना को जन्म दे रही है। यह ब्राह्मणवादी विचारधारा को केंद्र में रखते हुए देश की बहुसंख्यक आबादी को हिंदुत्व की संरचना में ढाल देने के लिए प्रतिबद्ध है। वह धार्मिक उन्माद से लेकर जातिवादी चेतना के माध्यम से न सिर्फ जाति संरचना को मजबूत कर रही है, बल्कि वह वर्णवादी व्यवस्था को वैज्ञानिक बना देने का भी दावा कर रही है। यह यूं ही नहीं है कि एक ओर आधुनिक मेडिकल व्यवस्था का आयुर्वेद के सहारे चुनौती दी जा रही है, वहीं आधुनिक शिक्षा व्यवस्था को ही गर्त में धकेलने के लिए सारे प्रयास हो रहे हैं। कॉडर आधारित विशाल पार्टी संरचना सिर्फ बूथ पर वोट दिलाने का ही काम नहीं करती। वह सांस्कृतिकरण की प्रक्रिया में लगी रहती है। कॉडर आधारित पार्टी सिर्फ एक अकेली संरचना भी नहीं है, यह कई अन्य संरचनाओं के साथ मिलकर, जुड़कर, गठजोड़ और संयोजन बनाते हुए काम करती है। इसलिए यह एक ऐसी पार्टी का उभार है, जिसकी कार्यशैली सिर्फ चुनावों तक सीमित नहीं है। यह उससे अधिक बड़े दायरे में काम कर रही है।
ऐसे में, इस चुनौती से जूझने के लिए कॉडर आधारित पार्टी की ही जरूरत है। बिना संरचना वाली पार्टी, जिसमें सिर्फ आदेश पारित होते हों, इसके सामने नहीं टिक सकती। अनुशासन से बंधी हुई कॉडर आधारित पार्टी ही इस चुनौती से जूझ सकती है। इसलिए जरूरी है ऐसी पार्टी की जिसके कॉडर अनुशासित हों और नेतृत्व का इसके साथ घनिष्ठ और वैचारिक नाता हो और कार्य के स्तर पर एकजुटता हो।
आज के समय में भाजपा राजसत्ता का प्रयोग कर अन्य पार्टियों का और भी नुकसान करने में लगी हुई है। ऐसे में, एक ही रास्ता है और वह है– जनता के बीच जाना और हिंदुत्व के सांस्कृतिकरण की प्रक्रिया के बदले स्वतंत्रता, समानता और बंधुता को स्थापित करना तथा शासन, शिक्षा और अर्थतंत्र में ब्राह्मणवादी एकाधिकार का भंडाफोड़ करना। यहीं वे रास्ते हैं, जिनसे हम बढ़ते फासीवादी खतरे से निपट सकते हैं।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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