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राजस्थान चुनाव परिणाम से दलित, आदिवासी और ओबीसी सबक लें

अब भी ओबीसी वर्ग में वर्ग-चेतना का अभाव साफ दिख रहा है और वह वर्ग बनने के बजाय वह सिर्फ़ जातियों के रूप में ही दिखाई पड़ रहा है। यह चिंता का विषय है और आत्मघाती भी क्योंकि अपने वर्ग के फ़ायदों को छोड़कर खुद को नुक़सान पहुंचाने वाली राजनीति को मौक़ा देने से भविष्य में हिंदुत्व की राजनीति और मज़बूत होगी और वह पिछड़े वर्ग की राजनीति का स्पेस खा जाएगी। बता रहे हैं भंवर मेघवंशी

राजस्थान में विधानसभा चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले कहे जा सकते हैं। भाजपा जिस तरह के अंतर्कलह में फंसी थी और कई जगहों पर बग़ावत दिख रही थी, उसके बावजूद भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिल जाना आश्चर्यचकित करती है। हालांकि आंकड़ों को देखें तो भाजपा को 41.69 प्रतिशत और कांग्रेस को 39.53 प्रतिशत वोट मिले। दोनों मुख्य दलों के मध्य महज दो प्रतिशत का अंतर राज्य में सत्ता परिवर्तन का कारण बना है। नतीजों को देखें तो राज्य में 200 में से 199 सीटों पर चुनाव हुए। एक सीट प्रत्याशी के निधन की वजह से चुनाव नहीं हो पाया। भाजपा को 115 सीटें मिलीं और कांग्रेस को 69 सीटों पर संतोष करना पड़ा। आठ निर्दलीय जीतने में कामयाब रहे। इसके अलावा नवगठित भारतीय आदिवासी पार्टी को 3, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को 2 और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी व राष्ट्रीय लोक दल को एक-एक सीट मिली।

यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ा गया। धर्म का कार्ड ख़ूब चला। कन्हैया लाल मर्डर मामला हो अथवा राम मंदिर, धारा 370, मुस्लिम तुष्टिकरण आदि बातें ख़ूब हुई। इसके अतिरिक्त भाजपा ने एक भी मुस्लिम प्रत्याशी नहीं उतार कर हिंदुत्व की राजनीति चलाई। कुछ बड़े मठों के महंत और बाबा लोग मैदान में उतारे और अनेक जगहों पर एकदम कट्टर छवि के उम्मीदवार उतारे, जिन्होंने साफ़ कहा कि उनको सिर्फ़ 35 क़ौमों के ही वोट चाहिए।  छत्तीसवीं क़ौम का वोट नहीं चाहिए। भाजपा ने अपनी चिर-परिचित सांप्रदायिक राजनीति की। आरएसएस भी आख़िर तक चुपचाप सक्रिय रहा। वसुंधरा राजे की नाराज़गी को भी समय रहते कम किया गया। इन सबके अलावा मोदी, योगी, शाह, नड्डा सभी सक्रिय रहे। ऐसा लगा कि इस बार दिल्ली चुनाव लड़ रही है।

भाजपा ने निश्चित रूप से बढ़त हासिल की। उसने अपना मत-प्रतिशत भी बढ़ाया, लेकिन कांग्रेस व अन्य पार्टियों ने काफ़ी कुछ खोया है। जैसे कि बसपा पिछली बार 6 सीटें लाई थी। इस बार उसे 2 सीटें ही मिलीं। रालोपा के पास पिछली बार 3 सीटें थीं। इस बार वह काफ़ी सीटों पर जीत के बहुत नज़दीक जाकर हार गई और खुद पार्टी प्रमुख हनुमान बेनीवाल बामुश्किल ही अपनी सीट बचा पाए। उनका आज़ाद समाज पार्टी से गठबंधन भी कोई फ़ायदेमंद साबित नहीं हुआ। सवाल उठता है कि क्या यह बेमेल गठबंधन था, जिसे लोगों ने स्वीकार नहीं किया? चंद्रशेखर आज़ाद की आसपा को एक भी सीट नहीं मिली। हालांकि उसे कुछ सीटों पर अच्छे ख़ासे वोट मिले। लेकिन यह भी सवाल है कि अगली सरकार बनाने का दावा करने वाले इस गठबंधन को पूरे राज्य में उम्मीदवार भी मिल पाए? इसका जवाब निश्चित रूप से नकारात्मक है।

सचिन पायलट और अशोक गहलोत

रालोपा-आसपा अलायंस ने ऐसे ऐसे भी उम्मीदवार राजस्थान विधानसभा में उतारे हैं जो पिछले कईं सालों में सांप्रदायिक राजनीति करते रहे हैं और इस्लामोफोबिक रहे हैं। जो लोग आरएसएस, बजरंगदल और भाजपा में थे, उधर से टिकट नहीं मिलने पर उन्होंने रालोपा-आसपा गठबंधन का दामन थाम लिया और टिकट पा कर उम्मीदवार बन गए। इनका उस विचार या विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं रहा है। हालांकि यह राजनीतिक आवागमन इस बार ख़ूब हुआ। प्रतिबद्ध संघी भी विरोधी विचारधाराओं के साथ जाकर चुनाव लड़ते नज़र आए हैं। इसलिए केवल आज़ाद व बेनीवाल गठबंधन से ही अतिरिक्त वैचारिक शुद्धता की उम्मीद बेमानी ही है। लेकिन इन दोनों के मिलन को राजस्थान के दलित पिछड़ों ने गंभीरता से नहीं लिया। जितनी भीड़ हनुमान बेनीवाल और चंद्रशेखर आजाद की रैलियों में आती रही, वह वोटाें में तब्दील नहीं हो पाई।

अब आते हैं कांग्रेस की हार की तरफ़। आख़िर कहां चूक गई कांग्रेस? कांग्रेस नेतृत्व को सर्वे रिपोर्टस से यह ज़रूर पता चल चुका था कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पार्टी के प्रति नाराज़गी नहीं थी, लेकिन मंत्रियों और विधायकों के प्रति कार्यकर्ताओं में गहरी नाराज़गी थी, जिसे टिकट काटकर कम किया जा सकता था। लेकिन यह हिम्मत क्यों नहीं जुटाई गई, गहलोत केबिनेट के 17 मंत्रियों व अधिकांश विधायकों का हार जाना इस बात की पुष्टि करती है। कार्यकर्ताओं की नाराज़गी बहुत साफ़ दिख रही थी। पार्टी कैडर के बजाय ‘डिज़ायनबॉक्स्ड’ जैसी ज़मीन से कटी कंपनियों पर ज़्यादा भरोसा करना भी गहलोत सरकार को भारी पड़ाा।

कांग्रेस के लिहाज से देखें तो उसकी दूसरी सबसे बड़ी चूक थी– अपने कोर वोटों के बिखराव को नहीं रोक पाना। जबकि अधिकांश दलित, आदिवासी और मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट दिया है। लेकिन इन वर्गों से जुड़े विभिन्न दलों की तरफ़ भी यह वोट गया। इसे आराम से रोका जा सकता था, अगर ‘इंडिया’ गठबंधन की स्पिरिट कहीं नज़र आती और यहां भी अलायंस बनता तो कांग्रेस की सरकार रिपीट हो सकती थी। ख़ास तौर पर भारतीय आदिवासी पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और बसपा के साथ गठबंधन बन जाता एवं रालोपा-आसपा को साथ लाया जाता तो सेक़ुलर वोट नहीं बंटता और भाजपा पचास सीट भी नहीं ला पाती। इंडिया गठबंधन के दल अगर चाहे तो वह लोकसभा चुनाव में इस बात का ख़याल रख सकते हैं। 

निश्चित रूप से गहलोत और पायलट के बीच विवाद भी बहुत सारे कांग्रेस उम्मीदवारों की नाव को डुबो देने में काम आया। सचिन पायलेट और अशोक गहलोत साथ में कहीं नहीं नज़र आए। सिर्फ़ सोशल मीडिया पर तस्वीरें दिखीं। ज़मीन पर दोनों ख़ेमे बहुत स्पष्ट रूप से अलग अलग दिखे। हालांकि यह केवल गुर्जर वोटरों की असंतुष्टि का मामला नहीं था। पायलट युवाओं में लोकप्रिय लीडर के रूप में स्थापित हैं, उनका बेहतर उपयोग होना चाहिए था। अगर ऐसा होता तो कम-से-कम बीस सीटें सुधर सकती थीं। भविष्य में भी अगर यह विवाद कायम रहा तो कांग्रेस अपना ही नुक़सान करती रहेगी।

सबसे बड़ी कमजोरी ओबीसी के बीच जातिगत जनगणना को मुद्दा नहीं बना पाना रही। यह कांग्रेस में सामाजिक न्याय की राजनीति को स्थापित न कर पाने का नतीजा है। सरकार वह सब करती रही, जिसे करने में भाजपा प्रवीण है। गहलोत सरकार ने गायों के लिए तीन हजार करोड़ खर्च किए, लेकिन अपने कोर वोट के विकास पर इस तरह का खर्च नहीं दिखता। विधायक यज्ञ हवन और कांवड़ ढोने और मंदिर-मंदिर पूजा अर्चना करके स्वयं को और अधिक प्रतिबद्ध हिंदू साबित करने में लगे रहे। इस विधानसभा चुनाव के मद्देनजर ख़ासकर पिछड़ों को सामाजिक न्याय के मुद्दों पर लामबद्ध किया जा सकता था, परंतु आचार संहिता के लागू होने के ठीक पहले जाति जनगणना जैसे मुद्दे पर कच्ची तैयारी से बेमन आदेश निकाला गया, जो कि समय रहते  क्रियान्वित किया जा सकता था।

इसके अलावा पूर्वी राजस्थान में नहर परियोजना मुद्दा नहीं बन सका। वहां सरकार विरोधी न सही, पर मंत्रियों व विधायकों को लूट की छूट का बड़ा मुद्दा रहा। मेवाड़ को आदिवासी समाज का असंतोष खा गया। मारवाड़ में गहलोत जातियों को साधने की अपनी परंपरागत रणनीतिक राजनीति को अमलीजामा नहीं पहना पाए।

वैसे भी यह चुनाव मोदी बनाम गहलोत था। धर्म और उग्र हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति और विकास की राजनीति के बीच था। लेकिन राज्य सरकार की बहुत-सी अच्छी योजनाओं के बावजूद उनको आमजनों तक पहुंचाने में कांग्रेस पूरी तरह विफल रही। वह या तो सिविल सोसायटी के काम के भरोसे रही अथवा हायर की गई एजेंसी पर ज़्यादा विश्वास कर लिया गया। पार्टी, कार्यकर्ता और एजेंसियों के बीच समन्वयन में भारी कमी रही। संगठन का ढांचा चुस्त न होना भी कांग्रेस के लिए मारक साबित हुआ।

दलित संगठनों के लिए इस चुनाव में राहत की बात यह रही कि वे बेहतरीन दबाव समूह के रूप में उभर कर सामने आए। उन्होंने अपने मुद्दे राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में शामिल करवाए  और दलित अत्याचार के आरोपी बाड़ी विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहे गिर्राज सिंह मलिंगा का न केवल टिकट कटवाया बल्कि धरातल पर अभियान चलाकर उसे हराने में भी कामयाबी हासिल की। आदिवासी समुदाय ने भारतीय आदिवासी पार्टी के जरिए अपनी मज़बूत उपस्थिति दर्ज करवा दी। लेकिन ओबीसी वर्ग इस चुनाव में भी एक वर्ग बनने के बजाय सिर्फ़ हिंदुत्व की छतरी के नीचे एकत्र होने में लगा रहा। वह अपनी स्वतंत्र राजनीति बना पाने में फिर से विफल साबित हुआ है। अब भी ओबीसी वर्ग में वर्ग-चेतना का अभाव साफ दिख रहा है और वह वर्ग बनने के बजाय वह सिर्फ़ जातियों के रूप में ही दिखाई पड़ रहा है। यह चिंता का विषय है और आत्मघाती भी क्योंकि अपने वर्ग के फ़ायदों को छोड़कर खुद को नुक़सान पहुंचाने वाली राजनीति को मौक़ा देने से भविष्य में हिंदुत्व की राजनीति और मज़बूत होगी और वह पिछड़े वर्ग की राजनीति का स्पेस खा जाएगी।

अब भी वक्त है जबकि राजस्थान के दलित, आदिवासी, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को सामाजिक न्याय के मोर्चे पर एकजुट हो कर अपनी रणनीति बनानी होगी अन्यथा भाजपा की विभाजक और धर्मांध राजनीति उन्हें कहीं का नहीं छोड़ेगी। 

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।

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