हाल ही में पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के नतीजों को अनापेक्षित कहा जा सकता है। खासकर, हिंदी पट्टी के राज्यों – मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, और राजस्थान – में भाजपा को मिली जीत को उसके बढ़ते आधार की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जा रहा है। वहीं इन राज्यों में पराजित कांग्रेस का वोट या तो स्थिर दिखता है या फिर थोड़ा बढ़ा हुआ दिखता है। यदि कुल वोटों को केंद्र में रखा जाय तो पराजय के बावजूद कांग्रेस बेहतर स्थिति में दिखती है। इसके अलावा क्षेत्रीय स्तर पर काम कर रहे कुछ संगठन और दलों ने भी पहलकदमी की है और उनके भी वोट प्रतिशत बढ़े हैं।
इस पूरे संदर्भ में सबसे चौंकाने वाले नतीजे बसपा और सपा के हिस्से आए। उनके वोट प्रतिशत में औंधे मुंह की गिरावट को देखा जा सकता है। जबकि इन पार्टियों ने अपने बल पर चुनाव लड़ने का फैसला लेते हुए व्यापक तौर पर उम्मीदवारों को चुनाव में उतारा था। जाहिर तौर पर इन पार्टियों के खिसकते वोट प्रतिशत इनकी घटती सामाजिक पहुंच को बताते हैं। खासकर, बसपा का खिसकता जनाधार कांशीराम के ‘मिशन’ के कमजोर होने की ओर इशारा करता है।
इन्हीं घटनाक्रमों के बीच बसपा प्रमुख मायावती ने अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में अपने भतीजे आकाश आनंद का नाम घोषित कर दिया है।
यह तब हुआ है जबकि पिछले एक साल से बसपा प्रमुख मायावती के बारे में लगातार चर्चा बनी रही है कि वह सक्रिय नहीं दिख रही हैं। जबकि भाजपा ने दलित समुदायों में घुसपैठ बनाने के लिए तरह-तरह की योजनाएं बनाकर काम करने में लगी हुई है। इसने ताबड़तोड़ एससी/एसटी महासम्मेलनों का आयोजन विभिन्न शहरों में किया और कांशीराम की मूर्तियों पर माल्यार्पण किया। दलित बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं, युवाओं के माध्यम से मिलन कार्यक्रमों का अभियान चलाया।
इसी तरह, सपा ने ‘समाजवादी आंबेडकर वाहिनी’ शाखा निर्माण का अभियान शुरू किया। कांग्रेस ने भी ‘दलित गौरव संवाद’ शुरू किया और कांशीराम की मूर्तियों पर माल्यार्पण कार्यक्रम चलाने का निर्णय लिया। कांशीराम की पुण्यतीथि पर चल रहे भाजपा के इसी तरह के एक कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सपा पर हमला करते हुए उसे दलित विरोधी बताया। दरअसल वह सपा द्वारा बसपा सुप्रीमो पर किए गए हमले की घटना को कुरेद रहे थे।
यह हैरानी की बात है कि जिन पार्टियों के खिलाफ और उनके साथ राजनीतिक दांव-पेंच कर बसपा की नई राजनीति की स्थापना करने वाले कांशीराम अब उत्तर प्रदेश में एक ऐसे शख्स की तरह दिख रहे हैं जो न सिर्फ दलगत राजनीति से ऊपर हो गए हैं, बल्कि सर्व-स्वीकृत भी हो गए हैं। बसपा को 21वीं सदी की दहलीज पर पहुंचाकर सक्रिय राजनीति से विदा ले लेने वाले कांशीराम की यह सर्व-स्वीकृति निश्चित ही एक व्याख्या और मूल्यांकन की मांग करता है। खासकर इसलिए कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में यह गौरव किसी और पार्टी नेता को नहीं मिला है।
प्रसिद्ध पत्रकार और राजनीतिक चिंतक सबा नकवी ने बीबीसी द्वारा प्रकाशित अपने एक लेख में दस बातों का उल्लेख किया, जिनके कारण कांशीराम दलित राजनीति का चेहरा बन गए। वह बताती हैं कि उन्होंने दलित राजनीति, उसकी वैचारिकी और आंदोलन को न सिर्फ निरंतरता दिया, साथ ही उसे संवैधानिक दायरे में विकसित करते हुए उसे सत्ता हासिल करने वाले आंदोलन में बदल दिया। उन्हीं के शब्दों में– “बहुत कम समय में बसपा ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी एक अलग छाप छोड़ी। उत्तर भारत की राजनीति में गैर-ब्राह्मणवाद की शब्दावली बसपा ही प्रचलन में लाई। हालांकि मंडल के दौर की पार्टियां भी सवर्ण जातियों के वर्चस्व के खिलाफ थीं। दक्षिण भारत में यह पहले ही शुरू हो चुका था। कांशीराम का मानना था कि अपने हक के लिए लड़ना होगा, उसके लिए गिड़गिड़ाने से बात नहीं बनेगी।” (देखें, 15 मार्च, 2016 बीबीसी हिंदी वेब पेज)
जिस समय कांशीराम ने अपना उत्तराधिकार मायावती को सौंपा, उस समय तक वह एक राजनीतिक नेतृत्व के तौर पर स्थापित हो चुकी थीं। वह निश्चित ही सिद्धांतकार नहीं थीं, लेकिन सत्ता के गलियारों में विभिन्न पार्टियों के बीच एक राजनेता के तौर पर उभर चुकी थीं। वह कांशीराम की तरह की संगठनकर्ता नहीं थीं। दरअसल, अब उन्हें यह लगने लगा था कि सत्ता हासिल करने के लिए एक नए तरह की सांगठनिक संरचना की जरूरत है। वह अब चुनावी मशीन को चलाने वाली एक पार्टी और उसके संगठन की जरूरत को महसूस कर रही थीं। उनका पूरा जोर उत्तर प्रदेश पर था। वह अन्य प्रदेशों में पार्टी के विस्तार के नजरिये से देख रही थीं। वह अन्य पार्टियों की तरह ही भव्यता की संस्कृति को अपना रही थीं और इसे दलित नजरिये से देखने का आग्रह कर रही थीं। उनका नेतृत्व बसपा में एक नए नेतृत्व के आग्रह के साथ आया और उसने धीरे-धीरे बसपा को अनेक स्तरों पर बदलना शुरू किया। बसपा में कांशीराम को आदर्श मानने वालों ने इस बदलाव की खुलकर आलोचना की। बहुत से लोगों ने इस नई कार्यशैली और दृष्टिकोण की वजह से बसपा से खुद को अलग कर लिया या निष्क्रिय रहना कबूल किया।
दरअसल, सत्ता का सवाल चुनाव की ऐसी मशीन में जा फंसा है, जहां गठबंधन की राजनीति का नेतृत्व भाजपा और कांग्रेस के हाथों में था। चुनाव की मशीन को चलाने का अर्थ ही था कि उनके तौर-तरीकों में घुसना। यहां सिर्फ वोट और जनाधार का मसला नहीं होता है, बल्कि इन दोनों का प्रबंधन भी एक महत्वपूर्ण पक्ष है और इसे चलाने वाले समूह इन पार्टियों से इतर ऐसे शासक वर्ग हैं, जिनके हाथ में सिर्फ पूंजी और भूमि का संकेंद्रण ही नहीं है, बल्कि उन्हीं के हाथों में मीडिया से लेकर वैचारिक संस्थाएं भी हैं।
मायावती ने निश्चित ही बसपा को इस चुनावी मशीन में उत्तर प्रदेश के स्तर पर एक सफल प्रयोग किया, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने इन चुनावी मशीनों के पीछे काम करने वाली ताकतों के साथ खुलकर समझौता किया। उनके ऊपर भ्रष्टाचार से लेकर भव्य जीवन जीने का आरोप लगा। बाद में, कई पार्टी नेताओं ने चंदा के नाम पर पैसा उगाहने का भी आरोप लगाया। गठबंधन की राजनीति में बसपा के पास जो ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन की धार थी, वह भी तेजी से भोथर हुई।
इस दौरान, मायावती ने कांग्रेस की खुली आलोचना को तो जारी रखा, लेकिन भाजपा के साथ समझौता धीरे-धीरे बसपा और उन्हें अंदर से खोखला करने लगा। भाजपा ने न सिर्फ वोटों का ध्रुवीकरण करना शुरू किया, बल्कि उसने बड़े पैमाने पर ब्राह्मणवादी संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को भी चलाया। यह कथित हिंदूवादीकरण था, जिसकी संरचना में मुसलमान समुदाय नहीं था। इसने उत्तर प्रदेश में न सिर्फ सामाजिक विभाजन को पैदा करने की ओर ले गया, बल्कि नए तरह की हिंदूवादी सांस्कृतिक चेतना को पैदा किया, जिसे अब भाजपा सीधे-सीधे सनातन धर्म का नाम दे रही है।
उत्तर प्रदेश की आधार भूमि जैसे-जैसे बदलती गई है, बसपा का चुनावी ग्राफ बदलता गया। उसके वोट का प्रतिशत ही नहीं, वोट का जनाधार बदलता गया। बसपा कांशीराम के समय अपनाये गये दलित मिशन से दूर होता गया। चुनावी मशीन जब भी चली, उसने बसपा को सत्ता से लगातार दूर फेंका। दिलचस्प यह कि यदि हम बसपा को इस चुनावी मशीन को चलाते रहने के लिए चुनावी बांड के रूप में पैसे की आमद देखें, तो वहां इसमें कोई कमी नहीं दिखाई देती है। उसे पर्याप्त चंदा हासिल हुआ है। लेकिन, वोट के मद्देनजर उसका अस्तित्व भाजपा और कांग्रेस से अब काफी पिछड़ चुका है।
सुधा पाई और सज्जन कुमार की अभी हाल ही में आई पुस्तक ‘माया, मोदी, आजादः दलित पोलिटिक्स इन द टाइम्स ऑफ हिंदूत्व’ दलित राजनीति की पड़ताल करते हुए 2024 के लोकसभा चुनाव में इसकी भूमिका और इसकी चुनौतियों को खंगालती है। वह पुस्तक के अंत में उत्तर प्रदेश में बसपा से हो रहे मोहभंग और नये युवा नेतृत्व के उभार को रेखांकित करती हैं। वह सहारनपुर से उभरकर आये चंद्रशेखर आजाद, पूर्वांचल में श्रवण कुमार निराला और बुंदेलखंड के दद्दू प्रसाद (बहुजन मुक्ति पार्टी) के बारे में और उनके नेतृत्व में उभरकर आई पार्टियों को चिह्नित करते हुए दलित राजनीति में आ रहे बदलाव और बसपा की कमजोरियों को चिह्नित करती हैं। इसमें से चंद्रशेखर आजाद के बारे में अब बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन, अभी हाल ही में पूर्वांचल में उभर कर आये दलित नेता श्रवण कुमार निराला ने प्रत्येक दलित परिवार को एक एकड़ जमीन की मांग को लेकर जो आंदोलन चलाया है, उसक असर बढ़ रहा है और अभी हाल ही में उन्हें उनके साथियों के साथ गोरखपुर की जेल में डाल दिया गया। सुधा पाई और सज्जन कुमार ने अपनी इस पुस्तक में यह भी चिह्नित किया है कि बसपा ने अपनी कमजोरियों से जो खुला रास्ता छोड़ा है, उस पर सबसे अधिक तेजी से भाजपा ही कब्जा कर रही है।
दूसरी तरफ दलित राजनीति में उभरकर आए चंद्रशेखर आजाद जैसे युवाओं ने नेतृत्व निश्चय ही मायावती के नेतृत्व की कमजोरियों को न सिर्फ उजागर किया, बल्कि इनके नेतृत्व में चल रहे आंदोलनों ने बसपा के कांशीराम के नेतृत्व वाले मिशन से भटक जाने को भी चिह्नित किया है। मायावती के सामने चुनौती सिर्फ पार्टी और उसके जनाधारों से ही नहीं, दलित राजनीति के आंदोलन वाली विचारधारा से भी है। ऐसे में, जबकि उन्होंने एक उत्तराधिकार का चुनाव करने की दिशा में काम करना शुरू किया तब उन्हें अपने ही परिवार का एक सदस्य मिला, जो युवा है, विदेश से पढ़कर आया है और नई तकनीक का प्रयोग जानता है। हालांकि बसपा के लगभग 40 साल के इतिहास में निश्चय ही युवाओं की दो पीढ़ियों का आगमन हो चुका है, लेकिन यहां युवा नेताओं की भर्ती बेहद कम हुई। वहीं पुरानी पीढ़ी विदा होती गई है। उत्तराधिकार का सवाल सिर्फ एक व्यक्ति के चुनाव का नहीं होता, यह समय की चुनौतियों के संदर्भ में होता है। बसपा जिस तरह से एक चुनावी मशीन का हिस्सा होती गई है और आंदोलन से जितना ही दूर होती गई, उसमें एक टैक्नोक्रेट और परिवार से चुना गया उत्तराधिकारी बहुत उम्मीद नहीं जगाता। राजनीति और समाज के बीच एक द्वंद्वात्मक संबंध होता है। ऐसे में यदि बसपा इस द्वंद्व से उबरने में कामयाब होती है, तभी उसके लिए उम्मीद जैसे शब्द का प्रयोग वाजिब होगा।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, संस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in