राजस्थान को भजनलाल शर्मा के रूप में एक नया मुख्यमंत्री और दीया कुमारी और प्रेमचंद बैरवा के रूप में दो नए उपमुख्यमंत्री तथा वासुदेव देवनानी के रूप में नया विधान सभा अध्यक्ष गत 12 दिसंबर, 2023 को भाजपा विधायक दल की बैठक में मिल गए हैं। नदबई (भरतपुर) के निवासी 55 वर्षीय भजनलाल शर्मा का नाम सुन कर हर कोई आश्चर्यचकित था कि यह कैसे हुआ और वे कौन हैं?
जानिए भजनलाल शर्मा का यह इतिहास
भजनलाल शर्मा भले ही भरतपुर जिले के मूलनिवासी और कारोबारी हैं, लेकिन फ़िलहाल वे जयपुर शहर की सांगानेर सीट से विधायक हैं। वे पहली बार विधायक चुने गए हैं। हालांकि उनको चुनाव लड़ने का लंबा अनुभव है। वे महज़ 27 साल की उम्र में अपने गांव अटारी के सरपंच निर्वाचित हो चुके थे और बाद में पंचायत समिति सदस्य भी रहे।
उन्होंने सन् 2003 में भाजपा से बग़ावत करके राजस्थान सामाजिक न्याय मंच नामक नवगठित राजनीतिक दल से चुनाव भी लड़ा और 5969 वोट भी हासिल किया था। यह राजनीतिक मंच ऐसे लोगों ने बनाया था, जिसके मूल में कथित रूप से मूल ओबीसी का संरक्षण करना था और दलित, आदिवासी व पिछड़ों के आरक्षण में मीन-मेख निकालते हुए सामान्य वर्ग के ग़रीबों को आर्थिक आधार पर आरक्षण दिलाना मुख्य मांग थी। इसके साथ ही जाट विरोध इसका एक छिपा हुआ एजेंडा था। दरअसल सामाजिक न्याय के नाम पर कुछ और ही चल रहा था। जैसे समता आंदोलन के नाम पर राजस्थान में विषमता समर्थक व आरक्षण विरोधी लामबंदी चलती है।
भजनलाल शर्मा चूंकि मूलतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध रहे, इसलिए उनकी बग़ावत क्षम्य मानी गई और वे भाजपा की मुख्यधारा में लौट आए। फिर भारतीय जनता युवा मोर्चा से शुरू हुआ उनका संगठनिक सफ़र भाजपा के भरतपुर के ज़िलाध्यक्ष से लेकर प्रदेश महामंत्री तक पहुंचा और अब वे मुख्यमंत्री चुने गए हैं।
भजनलाल शर्मा ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत अखिल भारतीय विध्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के कार्यकर्ता के तौर पर की। एबीवीपी में रहते हुए उन्होंने कई जिम्मेदारियां निभाईं। मसलन, सन् 1990 में कश्मीर सत्याग्रह में शामिल हुए और गिरफ़्तारी दी। ऐसे ही सन् 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाने वाले रामजन्मभूमि आंदोलन का हिस्सा बने और जेल गए। इसके अलावा भी उनका संघ के क्षेत्रीय प्रचारक निंबा राम से बेहतर रिश्ता रहा है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से भी उनके घनिष्ठ संबंध बताए जा रहे हैं।
कहा जा रहा है कि उनकी संघ पृष्ठभूमि और भाजपा के शीर्ष लोगों से अच्छे संबंध इस पद तक पहुंचने में काफ़ी काम आए हैं। निश्चित रूप से उनका ब्राह्मण होना भी बेहद महत्वपूर्ण रहा, लेकिन ब्राह्मण तो और भी कई विधायक हैं। इसके बावजूद पहली बार विधायक बने भजनलाल शर्मा ने सबको पछाड़ते हुए राजस्थान के मुखिया के तौर पर अपनी ताजपोशी करवाने में कामयाबी हासिल कर ली।
संघ के सिर पर ताज
वैसे छत्तीसगढ़ हो या मध्यप्रदेश और अब राजस्थान, इन तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री के नाम सामने आने पर लोग चौंके हैं, लेकिन एक बात सब जगह एक समान दिखलाई पड़ती है और वह है संघ पृष्ठभूमि से आए लोगों को कमान सौंपा जाना। अब यह माना जा सकता है कि ताज भले ही भाजपा के सिर पर है, लेकिन राज तो संघ का ही रहने वाला है। द्विज मीडिया में इसे पीढ़ी परिवर्तन की बात कही जा रही है और सामान्य कार्यकर्ताओं को मौक़ा देने की बात हो रही है। लेकिन सबसे ज़्यादा तो यह कहा जा रहा है कि यह मोदी और शाह की जोड़ी की चाणक्य नीति है।
मुमकिन है कि यही सत्य हो, क्योंकि जिस तरह से दिल्ली से नाम तय होकर आए, वह इसी बात को साबित करते हैं कि विधायक दल की बैठक तो महज़ औपचारिकता ही रही। जैसा कि राजस्थान सहित तीनों राज्यों में हुआ, लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे और जनाधार वाले लोकप्रिय नेताओं को विधायक दल की बैठक में दिल्ली से आए पर्यवेक्षकों ने बंद लिफ़ाफ़ा सौंपा, जिसमें पहले से तय नाम का उनको उच्चारण भर करना था, जिसे नाम प्रस्तावित करना कहा जा रहा है। परिस्थितियां ऐसी निर्मित कर दी गईं कि भाजपा में यदि रहना है तो मोदी-मोदी कहते रहो, जो दिल्ली से निर्देश मिले, उनका पालन करो, वर्ना आप मार्गदर्शक मंडल में पहुंचाए जा सकते हैं, जहां मूकदर्शक जैसी भूमिका हो जाती है। फिर यह कहना भी अतिरेक नहीं कि ईडी, इनकम टैक्स और सीबीआई सिर्फ़ विपक्ष के लिए ही नहीं हैं। पार्टी के भीतर बनने वाले संभावित विपक्ष को भी अपनी भावी दुर्गति से बचने की समझ होती ही है।
विधायकों से राय तक नहीं ली गई
महत्वपूर्ण बात यह है कि सबसे बड़ी पार्टी, जिसमें आंतरिक लोकतंत्र के बड़े दावे किए जाते हैं और चाल, चरित्र व चेहरे की भिन्नता की बात की जाती है, उस पार्टी में अंदरूनी लोकतंत्र का हाल यह है कि राज्य की जनता द्वारा चुने हुए विधायकों को यह तक मालूम नहीं होता है कि उनका नेता कौन होगा। उनकी राय भी नहीं ली जाती है। उन्हें सिर्फ़ बंद लिफ़ाफ़े का मज़मून सुनना होता है। विधायकों की राय नहीं लेना और मनचाहा मुख्यमंत्री थोप देना क्या जनादेश का सम्मान माना जाएगा? यह क्यों नहीं कहा जाए कि यह जनादेश का अपमान है? जिस तरह से अब राज्यों के मामले दिल्ली से तय रहे हैं, वह देश के संघीय ढांचे के लिए ख़तरनाक संकेत है। अगर दिल्ली से ही राज्य चलेंगे तो उनको स्वतंत्र राज्य माना जाए या उनको भी केंद्र-शासित प्रदेश समझ लिया जाय?
अब राजस्थान में राज्यपाल, मुख्यमंत्री से लेकर सभी शीर्ष पदों पर ब्राह्मण
राजस्थान में ब्राह्मण समुदाय इस बात की ख़ुशी मना रहा है कि राज्य के राज्यपाल (कलराज मिश्र), मुख्यमंत्री (भजनलाल शर्मा), मुख्य सचिव (उषा शर्मा), पुलिस महानिदेशक (उमेश मिश्र) और अन्य महत्वपूर्ण पदों पर उनकी जाति के लोग क़ाबिज़ हो चुके हैं। उनके लिए यह बड़े गौरव का दिन है। लेकिन पिछड़े वर्ग का क्या, जिसने इस बार भाजपा की झोली भरने में कोई कमी नहीं की? उस गुर्जर समुदाय का क्या, जिसकी कांग्रेस से यह नाराज़गी रही कि सचिन पायलट को मुख्यमंत्री नहीं बनाया? कांग्रेस ने तो अलबत्ता पायलट को उपमुख्यमंत्री भी बनाया था, लेकिन भाजपा ने गुर्जर समाज के किसी भी विधायक को उपमुख्यमंत्री लायक़ भी नहीं समझा।
जातिगत क्षत्रपों को क्या मिला?
आदिवासी मीणा समुदाय के बड़े नेता डॉ. किरोड़ी लाल मीणा इस उम्र में भी भाग-भाग कर भाजपा को जिताते रहे, लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री या उप मुख्यमंत्री तो छोड़िए, विधानसभा स्पीकर का पद देना भी उचित नहीं समझा गया। यही हाल जाटों का हुआ। केंद्रीय कृषि मंत्री कैलाश चौधरी को लेकर दिन में खबरें उड़ाई गई कि उनके घर के बाहर सुरक्षा बढ़ा दी गई है और विशेष विमान से जयपुर पहुंचने के निर्देश दिए गए। लेकिन क्या हुआ? किसान क़ौम को कुछ तोहफ़ा मिला? दलित कोली समुदाय से आने वाली अजमेर की विधायक अनिता भदेल के पिछले दरवाज़े से प्रवेश को भी चौंकाने वाले निर्णय से जोड़ा गया, लेकिन उनका कहीं कोई नामोंनिशान नहीं था। मुख्यमंत्री की दौड़ में लगे गजेंद्र सिंह शेखावत, राजेंद्र सिंह राठौड़, वसुंधरा राजे जैसे राजपूत नेताओं को भी भाजपा ने उनकी हैसियत दिखाई। राजस्थान में दलित समुदाय की सबसे बड़ी आबादी मेघवालों को भी केंद्रीय क़ानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल का चेहरा दिखा कर भ्रमित किया गया, लेकिन पहली खेप में उनको भी कुछ नहीं मिला।
ब्राह्मणवादी राजनीति हुई और पुख्ता
कुल मिलाकर देखा जाय तो राजस्थान में पिछड़ा वर्ग और आदिवासी समुदाय की शुरुआत में ही उपेक्षा साफ़ नज़र आ रही है। भाजपा ने अपने कोर वोट मूल ओबीसी के हाथ भी फ़िलहाल ख़ाली ही रखे हैं और ब्राह्मण समुदाय को भाजपा ने सत्ता और संगठन में शीर्ष पद देकर अपनी ब्राह्मणवादी राजनीति को और अधिक पुख़्ता करने का ही काम किया है। इसमें चौंकाने वाला नया कुछ भी नहीं है।
(संपादन : नवल/अनिल)