छत्तीसगढ़ में आदिवासी मुख्यमंत्री और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का श्रेय लेने वाली भाजपा ने छत्तीसगढ़ में सरकार का गठन होते ही मध्य भारत के सबसे सघन और जैव विविधिता से परिपूर्ण हसदेव के जंगलों में एक बार फिर ग्रामसभा और स्थानीय आदिवासी समुदायों के प्रतिरोध को नजर अंदाज कर कटाई शुरू कर दी है। हैरत की बात यह कि पूर्ववर्ती बघेल सरकार ने भाजपा की राह में चलते हुए हिंदुत्ववादी रुख अपना जिस राम वनगमन पथ योजना की शुरुआत की थी, उसकी जद में हसदेव के जंगल भी आते हैं। राम वनगमन मार्ग शोध दल ने कभी यह दावा किया था कि राम के अयोध्या से वनवास पर उत्तर से दक्षिण की ओर जाने वाला मार्ग दक्षिणपथ कहलाया था। उनका कहना था कि छत्तीसगढ़ में राम का पहला पड़ाव मवई नदी के तट पर सीतामढ़ी हरचौका, जनकपुर, भरतपुर तहसील कोरिया में हुआ था। इसके बाद वे वनवास में मवई, रापा, गोपद, नेउर, सोनहद, हसदेव, रेण, महान, मैनपाट के समीप मैनी नदी, माड से होते हुए महानदी के तट पर पहुंचे थे। मगर अब राम की राजनीति करने वाली भाजपा सरकार अदाणी को लाभ पहुंचाने के लिए राम को भी ताक पर रखने पर तुल गई है।
उल्लेखनीय है कि तमाम विरोधों के मध्य हसदेव में अदाणी को कोयला उत्खनन के लिए नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा मंजूरी दिया जाना शुरू से ही विवादों में रहा है। हसदेव जंगल का पूरा क्षेत्र पांचवीं अनुसूची में आता है। ऐसे में वहां खनन के लिए ग्रामसभाओं की मंजूरी जरूरी है। आंदोलन कर रहे लोगों का कहना है कि ग्रामसभाओं ने कभी भी किसी कोयला खदान को मंजूरी नहीं दी है। जानकारों के अनुसार केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान 2010 में राजस्थान सरकार को छत्तीसगढ़ में तीन कोयला खदानों का आवंटन किया गया था। लेकिन वन पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने हसदेव जंगल में खनन प्रतिबंधित रखते हुए इसे ‘नो-गो एरिया’ घोषित कर दिया। इसके बाद वन मंत्रालय की वन सलाहकार समिति ने अपने ही नियम के खिलाफ जाकर वहां परसा ईस्ट और कांता बासन कोयला परियोजना को स्वीकृति दे दी। वर्ष 2012 में पहले चरण की खुदाई के लिए मंजूरी दे दी गई। केंद्र ने पहले चरण के लिए 762 हेक्टेयर में फैले 13.7 करोड़ टन कोयले की खुदाई की मंजूरी दी थी। राज्य की तत्कालीन भाजपा सरकार ने भी पहले चरण की खुदाई के लिए सभी मंजूरी दे दी। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने खनन पर रोक लगाई, लेकिन 2015 में खनन फिर से शुरू हो गया। इस खदान से कोयला निकालने का काम अभी चल रहा है। इसके बाद दूसरे चरण की खुदाई को लेकर विरोध शुरू हो गया। दरअसल परसा ईस्ट और कांता बासन खदान के लिए कुल 1136 हेक्टेयर जंगल काटा जाना है, जिसमें से 137 हेक्टेयर काटा जा चुका है। इसके साथ ही परसा कोल ब्लॉक के 1267 हेक्टेयर जंगल काटा जाएगा। लगभग नौ लाख पेड़ काटे जाएंगे। इससे वन्यजीवों और वनस्पति के साथ हसदेव नदी का जल संग्रहण क्षेत्र भी प्रभावित होगा।
बताते चलें कि दो सरकारी संस्थानों – भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद तथा भारतीय वन्यजीव संस्थान – ने मई, 2019 और फरवरी, 2021 के बीच उत्तरी छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य कोयला क्षेत्र में जैव विविधता अध्ययन किया था। इन दोनों ही अध्ययनों में साफ तौर पर यह रेखांकित किया गया था कि खदान से अपेक्षा से कम मात्रा में उत्खनन किया गया था। ऐसा इसलिए था क्योंकि खदान की सबसे निचली तह की खुदाई नहीं की गई थी। और इसके बावजूद भी, अदाणी समूह को विस्तार की अनुमति दी गई। इसी रिपोर्ट में भारतीय वन्यजीव संस्थान ने क्षेत्र में खनन के पारिस्थितिकीय मूल्य पर भी प्रकाश डाला है। उसके द्वारा यह सिफारिश भी की गई थी कि खनन संचालन की अनुमति केवल ब्लॉक की पहले से चालू खदान में ही दी जाकर विस्तार प्रस्ताव को खारिज कर दिया जाना चाहिए। मगर आरोप है कि फरवरी, 2022 में खदान के विस्तार को मंजूरी देते समय मोदी सरकार ने पारिस्थितिकीय प्रभाव को नजरअंदाज कर दिया था। हालांकि इस विस्तार का स्थानीय आदिवासी समुदाय ने तीखा विरोध किया था, जिसने राज्य सरकार को विस्तार को रोकने के लिए मजबूर कर दिया था।
गौरतलब है कि अदाणी समूह राजस्थान की राज्य बिजली उत्पादन कंपनी राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड, की ओर से 2013 से परसा ईस्ट और कांता बासन खदान से कोयले की खुदाई कर रहा है। यह खदान मूल रूप से राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित की गई है। जानकारों की मानें तो सरकारी कंपनियों द्वारा खनन को निजी फर्मों को आउटसोर्स करना आम बात है, मगर राजस्थान और अदाणी समूह के बीच हुआ समझौता विवादास्पद और नियम के विरुद्ध है। आरोप है कि राजस्थान सरकार ने अदाणी को महज एक खनन ठेकेदार के रूप में अनुबंधित किया था, मगर नियमों के विपरीत जाकर उसने अदाणी समूह के साथ एक संयुक्त उद्यम समझौता कर समूह को 74 प्रतिशत हिस्सेदारी प्रदान कर दी। यह समझौता वर्ष 2007 में उस समय किया गया जब राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी। मगर आश्चर्यजनक यह भी कि राजस्थान की पूर्ववर्ती गहलोत सरकार ने तमाम आरोपों के बावजूद कोई कानूनी कार्यवाही करने से परहेज किया। सितंबर, 2020 में राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को पत्र लिखकर दावा किया कि परसा ईस्ट और कांता बासन खदान – जिन्हें परियोजना के पहले चरण में खनन के लिए मंजूरी दी गई थी – के 762 हेक्टेयर क्षेत्र में कोयला भंडार लगभग समाप्त हो गया है। फरवरी, 2022 में इस दौरान केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने वन संरक्षण अधिनियम-1980 के तहत विस्तार परियोजना के लिए अपनी मंजूरी दे दी थी, लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार ने – हसदेव जंगल की सुरक्षा के लिए खड़े जनांदोलन के चलते – अंतिम मंजूरी को रोक दी थी। वहीं जुलाई, 2023 में छत्तीसगढ़ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर कहा कि हसदेव अरण्य में खनन के लिए किसी भी नए खनन आरक्षित क्षेत्र को आवंटित करने या उपयोग करने की कोई आवश्यकता नहीं है और मौजूदा परसा ईस्ट और कांता बासन खदान में मौजूद 35 करोड़ टन कोयला लगभग 20 वर्षों तक 4340 मेगावाट के जुड़े बिजली संयंत्रों की संपूर्ण कोयले की मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त है। इसी प्रकार 26 जुलाई, 2022 को छत्तीसगढ़ विधानसभा ने एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कर अरण्य क्षेत्र में कोयला ब्लॉकों को रद्द करने का संकल्प लिया था। पूरी विधानसभा हसदेव अरण्य को उसके प्राचीन स्वरूप में बनाए रखने के पक्ष में थी।
उल्लेखनीय है कि तत्कालीन अतिरिक्त मुुख्य प्रधान वन संरक्षक सुनील कुमार मिश्रा की ओर से दायर किए गए इस हलफनामे में अक्टूबर, 2021 में भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद और भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा किए गए अध्ययनों के बाद अक्टूबर, 2021 में प्रकाशित रिपोर्ट का हवाला भी दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि हसदेव के जंगलों में छत्तीसगढ़ राज्य में उपलब्ध कुल कोयले का महज आठ प्रतिशत ही मौजूद है। ऐसे में यह स्पष्ट है कि मध्य भारत का फेफड़ा कहे जाने वाले हसदेव को उजाड़ने से बेहतर इसे बचाकर कोयले की जरूरत को गैर-वन क्षेत्र की खदानों में से प्राप्त करने के प्रयास किए जाएं।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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