बिहार का बोध गया विश्व भर के बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए सबसे प्रतिष्ठित तीर्थ स्थल है। यहां बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। यहां का महाबोधि मंदिर बिहार के प्राचीन मंदिरों में से एक है। इस मंदिर के संचालन के लिए बिहार सरकार ने एक विशेष कानून – महाबोधि मंदिर प्रबंधन अधिनियम-1949 – बना रखा है। इस कानून में संशोधन की मांग लंबे समय से की जा रही है।
इस मांग की दो मुख्य वजहें हैं। पहली वजह यह कि इस अधिनियम के तहत मंदिर के प्रबंधन के लिए एक कमेटी का गठन किया जाता है, जिसमें गया जिले के जिलाधिकारी के अलावा 8 अन्य सदस्य – 4 हिंदू और 4 बौद्ध धर्मावलंबी – होते हैं। कानून में संशोधन करने की मांग करनेवाले यह सवाल उठा रहे हैं कि महाबोधि मंदिर के संचालन में हिंदुओं के होने का औचित्य क्या है। वहीं दूसरी वजह यह है कि सरकार के कानून के मुताबिक महाबोधि मंदिर में पिंडदान कराया जाना निर्धारित है। बौद्ध धर्मावलंबी यह मांग कर रहे हैं कि पिंडदान कर्मकांड है और इसे मंदिर परिसर में बंद कराया जाना चाहिए।
बौद्ध धर्मावलंबियों ने इस संबंध में अनागरिक धम्मपाल (17 सितंबर, 1864 – 29 अप्रैल, 1933) की जयंती के मौके पर इस साल यानी आगामी 17 सितंबर, 2024 को पटना में बड़ी संख्या में जुटान का आह्वान किया है। इस संबंध में एक विशेष बैठक का आयोजन बीते 7 जनवरी, 2024 को दिल्ली के आंबेडकर भवन में अखिल भारतीय बुद्धिस्ट फोरम द्वारा किया गया।
इसके पहले बीते 24 दिसंबर, 2023 को पटना के राजेंद्रनगर में एक बैठक आयोजित की गई थी। इस बैठक का आयोजन अखिल भारतीय बुद्धिस्ट फोरम की बिहार इकाई के पटना शाखा द्वारा किया गया था। बैठक की मेजबानी डॉ. पी.एन.पी. पाल ने की और इसकी अध्यक्षता नालंदा से आए डॉ. भिक्षु प्रज्ञापाल ने की।
इस बैठक में स्वामी शशिकांत, डॉ. मनोज विभाकर, उमेश बौद्ध, राजदेव पासवान, बाबा रामदेव, बौद्धाचार्य एकलव्य, अमरजी, रंजन, राजीव पटेल, नागसेन, पूर्व विधायक एन.के. नंदा व के.डी यादव, बाढ़ के पूर्व सरपंच प्रदीप पासवान, बसंत पासवान, अखिलेश कुमार, इंजीनियर दीपक राज, रेखा देवी और सौरभ कुमार ने अपने विचार रखे।
इस मौके पर अपने संबोधन में स्वामी शशिकांत ने कहा, “बोधगया मंदिर आज पूरी तरह से हिंदुत्ववादी पंडों के कब्जे में है। वहां बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के प्रतिकूल पिंडदान किए जाते हैं। बौद्धधर्म से जुड़े अनुयायियों का भी एक बड़ा हिस्सा भटकाव का शिकार है। ब्रिटिश सरकार ने भी बौद्ध धर्म से जुड़े इन स्थलों के साथ न्याय नहीं किया। रही-सही कसर 1949 में बने कानून महाबोधि मंदिर प्रबंधन अधिनियम ने पूरी कर दी, जिसमें गैर-बौद्धों का प्रवेश सुनिश्ति हो गया। ऐसे में एक ही रास्ता है कि इस पुराने कानून को खत्म किया जाए और इसकी जगह नया कानून बने। इसके लिए एक विराट जन-गोलबंदी ही एकमात्र रास्ता है। जबतक जन दवाब नहीं पड़ेगा, सरकार भी हमारी नहीं सुनेगी। पहले हमें अपने लोगों को जागरूक करना है, सभी जिला इकाइयों को सक्रिय करके ही यह गोलबंदी की जा सकती है।”
इस मुद्दे के बारे में स्वामी शशिकांत ने दूरभाष पर विस्तार से बताते हुए कहा कि अंग्रेजी हुकूमत के समय में भी महाबोधि मंदिर में बौद्धों के प्रवेश पर प्रतिबंध था। वहां पंडों का राज चलता था और किसी भी गैर-हिंदू को प्रवेश करने नहीं दिया जाता था। इस मामले में पहला हस्तक्षेप अनागरिक धम्मपाल ने किया था और उनके प्रयासों के कारण ही अंग्रेज सरकार ने यह प्रावधान किया कि मंदिर के प्रबंधन के लिए एक कमेटी का गठन किया जाएगा, जिसमें बौद्ध धर्मावलंबी भी शामिल होंगे। बाद में यही व्यवस्था देश के आजाद होने के बाद 1949 में लागू कर दी गई, जिसे महाबोधि मंदिर प्रबंधन अधिनियम-1949 कहा जाता है।
स्वामी शशिकांत ने बताया कि इस अधिनियम में दो दोष थे। पहला दोष तो यह कि इसके मुताबिक कमेटी का अध्यक्ष गया का जिलाधिकारी होगा और वह हिंदू होगा। गया के जिलाधिकारी के हिंदू नहीं होने की स्थिति में यह जिम्मेदारी पड़ोसी जिले के जिलाधिकारी को दी जाएगी। इसके अलावा कमेटी में 4-4 सदस्य हिंदू और बौद्ध धर्मावलंबी होंगे। इस तरह कमेटी में हिंदुओं की संख्या अधिक रहती है। दूसरा दोष यह कि इस कानून में ही पिंडदान कराने का प्रावधान है, जो कि बौद्ध धम्म के नियमों के प्रतिकूल है।
स्वामी शशिकांत के मुताबिक, वर्ष 2013 में बिहार सरकार की पहल पर इस कानून में संशोधन किया गया और यह पाबंदी हटा दी गई कि कमेटी का अध्यक्ष बनने के लिए गया जिले के जिलाधिकारी का हिंदू होना अनिवार्य है। उनके अनुसार, यह एक स्वागतयोग्य संशोधन था लेकिन यह मुकम्मल नहीं है। जबतक कमेटी में हिंदू बने रहेंगे, तब तक महाबोधि मंदिर को कर्मकांड से मुक्त नहीं कराया जा सकता है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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