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फुले पर आधारित फिल्म बनाने में सबसे बड़ी चुनौती भाषा और उस कालखंड को दर्शाने की थी : नीलेश जलमकर

महात्मा फुले का इतना बड़ा काम है कि उसे दो या तीन घंटे की फिल्म के जरिए नहीं बताया जा सकता है। लेकिन फिर भी हमने बहुत कुछ शामिल किया है। उनके विचारों को बताया है और अलग-अलग प्रसंगों के माध्यम से हमने यह भी दिखाया है कि यदि समाज में कुरीति और कुप्रथा है तो फुले के विचारों के अनुसार उसका समाधान है। पढ़ें, यह साक्षात्कार

‘सत्यशोधक : दी पाथ ऑफ विजडम’ एक मराठी फिल्म है, जिसे हाल ही में महाराष्ट्र के थियेटरों में रिलीज किया गया। इस फिल्म के पटकथा लेखक और निर्देशक नीलेश जलमकर हैं। उन्होंने इसके पहले संत गाडगे पर आधारित ‘डेबू’, वसंतराव देशमुख के जीवन पर आधारित ‘महानायक’, कॉमेडी फिल्म ‘नागपुर अधिवेशन’ और कृषक समाज के मुद्दों पर आधारित ‘असुड’ फिल्म का निर्देशन किया है। ‘समता फिल्म्स’ के बैनर तले बनी फिल्म ‘सत्यशोधक : दी पाथ ऑफ विजडम’ में जोतीराव फुले की भूमिका संदीप कुलकर्णी ने निभाई है, जिन्होंने इससे पहले ‘श्वास’ (2004), ‘डोंबीवली फास्ट’ (2006), हिंदी फिल्म ‘ट्रैफिक सिग्नल’ (2007) में दर्शकों पर अमिट छाप छोड़ी। वहीं सावित्रीबाई फुले की भूमिका का निर्वहन राजश्री देशपांडे ने किया है, जो जानी-मानी थियेटर कलाकार रही हैं। इसके अलावा उनके अभिनय को ‘कुछ तो लोग कहेंगे’ (2011), ‘फाॅर हायर’ (2012), ‘तलाश’ (2012), मलयालम फिल्म ‘हरम’ (2015) के अलावा वर्ष 2018 में आई फिल्म हिंदी फिल्म ‘मंटो’ में सराहा गया है। 

पढ़ें ‘सत्यशोधक : दी पाथ ऑफ विजडम’ के निर्देशक नीलेश जलमकर से हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार की बातचीत का संपादित अंश

नीलेश जी, आपको यह फिल्म बनाने की प्रेरणा कहां से मिली?

वास्तव में मैं जिस कार्यक्षेत्र और विषय से संबद्ध हूं, उससे पहले से ही मैं जुड़ा रहा हूं। मैंने उसे इंज्वॉय किया है। मैंने बायोपिक फिल्में बनाई। एक तो बाबा संत गाडगे जी के जीवन पर आधारित बायोपिक जिसका नाम ‘डेबू’ था। उसके बाद मैंने वसंत राव नाइक के जीवन पर आधारित बायोपिक ‘महानायक’ नाम से बनाई थी। तो मैं पहले से ही इन सब विषयों से जुड़ा रहा हूं। समाज से जुड़े पात्र, नायकों और संत-महात्माओं से प्रेरित रहा हूं और महात्मा फुले को मैं हमेशा पढ़ता था। और इसलिए मुझे हमेशा लगता था कि यदि अवसर मिला तो इस विषय पर एक फिल्म जरूर बनाऊंगा। फिर जब प्रोड्यूसर और अन्य सब जुट गए जो वैचारिक तौर पर जुड़े रहे तो फिल्म बन गई।

चूंकि फिल्म का निर्देशन और पटकथा लेखन, दोनों आपने किया है तो आपकी जेहन में फुले दंपत्ति को लेकर सबसे खास बात क्या रही? 

देखिए, जब मैं इन चरित्रों को पढ़ता था तो पाता था कि वे चाहे डॉ. भीमराव आंबेडकर हों, या डॉ. पंजाबराव देशमुख हों या बाबा गाडगे हों, ये सभी महात्मा फुले से प्रेरित होकर ही समाज में अपना काम कर रहे थे। तो महात्मा फुले से आकर्षण पहले से था ही और फिर जैसे ही फिल्म बनने की संभावना बनी तो काम हो गया। 

मेरा सवाल था कि फिल्म में आपने जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले के किसी खास पक्ष को लिया है? जैसे कि शिक्षा आदि के संबंध में किया गया उनका या … 

जी हां बिल्कुल। महात्मा फुले का इतना बड़ा काम है कि उसे दो या तीन घंटे की फिल्म के जरिए नहीं बताया जा सकता है। लेकिन फिर भी हमने बहुत कुछ शामिल किया है। उनके विचारों को बताया है और अलग-अलग प्रसंगों के माध्यम से हमने यह भी दिखाया है कि यदि समाज में कुरीति और कुप्रथा है तो फुले के विचारों के अनुसार उसका समाधान है। हालांकि बहुत सारी बातें शेष रह गई हैं, जिसका मुझे दुख भी है। लेकिन फिल्म की अपनी भाषा और अपनी सीमाएं होती हैं। यह भी सत्य है कि फिल्में इन सभी सीमाओं को ध्यान में रखते हुए लोगों को बताने का एक साधन है।

इस फिल्म के निर्माण में आपको किस तरह की चुनौतियां आईं?

सबसे पहली चुनौती तो भाषा की थी, क्योंकि यह जिस कालखंड की बात है उस समय जो मराठी भाषा थी उसके ऊपर हिंदी का प्रभाव भी था। अंग्रेज आ चुके थे तो अंग्रेजी भी उपयोग में थी। जैसे जोतीराव फुले की जो बुआ थीं, वह भी अंग्रेजी बोलती थीं, क्योंकि वह एक अंग्रेज अधिकारी के यहां काम करती थीं। जोतीराव भी मिशनरी स्कूल में पढ़े थे और उनकी भी अंग्रेजी अच्छी थी। इस तरह देखिए कि उस समय की मराठी भाषा में पुरानी मराठी तो थी ही, संस्कृत, हिंदी और अंग्रेजी भी शामिल हो चुकी थी। इसलिए एक पटकथा लिखते हुए यह एक चुनौती थी। इसके बाद फुले के पीरियड को दृश्यमान करने की भी चुनौती थी। जैसे कि घर हैं, रास्ते हैं, बंगले हैं या अन्य जगहें आदि हैं। वैसे जब हम इस तरह की इतिहास पर आधारित फिल्में बनाते हैं तो इस तरह की बहुत सारी चुनौतियां रहती हैं। 

मराठी फिल्म ‘सत्यशोधक : दी पाथ ऑफ विजडम’ का पोस्टर व निर्देशक नीलेश जलमकर

इस फिल्म में आपने संदीप कुलकर्णी और राजश्री देशपांडे को क्रमश: जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले के रूप में कास्ट किया। दोनों अनुभवी कलाकार हैं। इनके साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा?

बहुत अच्छा रहा। वे खुद भी फिल्म और थियेटर से जुड़े लोग हैं। उनके साथ काम करते हुए मुझे भी बहुत कुछ सीखने को मिलता था। बहुत सारी कठिनाईयां भी आती थीं, क्योंकि बहुत सारी चीजों पर लंबी-लंबी बहसें चलती थीं। हांलाकि हम इसे कठिनाई नहीं कहेंगे क्योंकि जो बहसें होती थीं, उनसे अच्छी ही बातें निकलकर आती थीं। 

इस फिल्म को ‘समता फिल्म्स’ और ‘अभिता फिल्मस’ के बैनर तले बनाया गया है। कृपया इसके बारे में भी बताएं?  

‘समता फिल्म्स’ ऐसे आठ-दस लोगों का मिलकर बनाया हुआ फाउंडेशन है जो सामाजिक और सांस्कृतिक कार्य करते हैं। उसी हिसाब से जो महान पुरुष हुए हैं उनका चरित्र किस तरह से लोगों के सामने लाया जाए, वे यह कोशिश करते हैं। इसके साथ ही एक ‘अभिता फिल्म्स’ भी है जो कि सुनील सर [प्रोड्यूसर सुनील शेलाके] का बैनर है और उनका भी ‘महापरिनिर्वाण’ नाम से एक सामाजिक फिल्म आ रही है जो कि उस व्यक्ति पर आधारित है जिसने डॉ. आंबेडकर का परिनिर्वाण होने पर उनकी अंतिम यात्रा को शूट किया था।

क्या आप अपनी फिल्म को हिंदी में भी लाएंगे?

हां, काम चल रहा है। अभी डबिंग हो रही है जो कि अंतिम चरण में है। इसे जल्द ही ओटीटी पर भी रिलीज कया जाएगा।      

आने वाले समय में आपकी क्या परियोजनाएं हैं?

आने वाले समय में मैं एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक फिल्म बना रहा हूं। यह बड़े बजट की फिल्म है। अभी उस पर काम चल रहा है।

क्या वह भी बायोपिक होगी?

बायोपिक नहीं कह सकते। लेकिन वह भी ऐतिहासिक विषय पर ही आधारित है।    

(संपादन : समीक्षा/राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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