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जननायक को भारत रत्न का सम्मान देकर स्वयं सम्मानित हुई भारत सरकार

17 फरवरी, 1988 को ठाकुर जी का जब निधन हुआ तब उनके समान प्रतिष्ठा और समाज पर पकड़ रखनेवाला तथा सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाला कोई नेता नहीं था। वे वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाए जाने के पक्षधर थे, लेकिन बाद के दिनाें में जो राजनीतिक घटनाक्रम घटित हुए, उनके बारे में मैं केवल इतना कह सकता हूं कि यदि वे कुछ साल और जी जाते तो भारत के प्रधानमंत्री होते। पढ़ें, जननायक के निजी सचिव रहे बिहार सरकार के पूर्व मंत्री अब्दुलबारी सिद्दीकी का यह संस्मरण

जननायक कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न का सम्मान दिया जाना निस्संदेह हर्षसूचक है। फिर चाहे यह जिन राजनीतिक कारणों से दिया गया हो। उनकी जन्मशती के मौके पर दिया गया यह वह सम्मान है, जिसे बहुत पहले दिया जाना वह डिजर्व करते थे। इसकी मांग भी लंबे समय से की जा रही थी। यह सम्मान उस महान नेता का सम्मान है, जिसे गुदड़ी का लाल, गरीबाें का नेता, सामाजिक न्याय का पुरोधा और ईमानदारी की मिसाल आदि तब भी कहा जाता था जब वे जीवित थे। उन्हें देर से ही सही, लेकिन उन्हें भारत रत्न का सम्मान देकर भारत सरकार स्वयं सम्मानित हुई है। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मेरे स्मरण में ऐसा कोई नेता नहीं हुआ, जो उनके जैसी परिस्थितियों से निकलकर आया हो। 

मैं यह मानता हूं कि वे महात्मा गांधी, डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के जैसे नहीं थे, लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है कि वे इन तीनों महापुरुषों से अलग थे। आप देखें कि गांधी एक समृद्ध परिवार से थे और बैरिस्टरी पढ़ने लंदन गए। उन्हें वे दुख नहीं उठाने पड़े, वे अपमान नहीं झेलने पड़े थे, जो नाई जाति से आनेवाले जननायक कर्पूरी ठाकुर को झेलना पड़ा था। डॉ. राममनोहर लोहिया भी एक समृद्ध मारवाड़ी परिवार से थे और उनके समक्ष भी आर्थिक और सामाजिक दुश्वारियां नहीं थीं। वहीं लोकनायक जयप्रकाश नारायण भी समृद्ध जमींदार परिवार से थे और उनके सामने भी न तो रोटी की चिंता थी और न ही शिक्षा पाने की या फिर सामाजिक सम्मान की। मैं यह बात इसलिए भी कह रहा हूं क्योंकि नाई जाति भले ही दलित समुदाय में शामिल नहीं है और इस जाति के लोग हिंदू समाज में विभिन्न संस्कारों को अंजाम देते हैं, लेकिन वास्तविकता यही है कि उनकी स्थिति दलित समुदाय के समकक्ष ही रही है।

आज जब उन जननायक को मरणोपरांत भारत रत्न का सम्मान दिए जाने का ऐलान किया गया है तो मैं समझता हूं कि यह उस व्यक्ति का सम्मान है जिसने अत्यंत गरीबी में रहते हुए, बारह किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल जाकर पढ़ाई की और अपना पूरा जीवन उन वर्गों की बेहतरी के लिए खपा दिया जो वंचित और शोषित रहा। ईमानदारी की बात करूं तो अपने जीवन में ठाकुर जी ने अपने लिए कोई वाहन नहीं खरीदा। वे आजकल के नेताओं के जैसे नहीं थे कि विधायक बनते ही गाड़ियां खरीद ली। वे आठ बार विधायक चुने गए। एक बार उपमुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री तथा एक बार सांसद रहे। इसके बावजूद उनके पास अपना कोई वाहन नहीं था। जब कभी ऐसी आवश्यकता होती तो वे कार्यकर्ताओं को कहते। मैं स्वयं उनमें शामिल रहा हूं, जिसके साथ लैंब्रेटा स्कूटर पर सवार होकर ठाकुर जी ने यात्राएं की। 

याद आता है कि जब ठाकुर जी ने पहली बार पिछड़ों, अति पिछड़ों, महिलाओं और गरीब ऊंची जातियों के लोगों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया तब समाज में वैमनस्य फैलानेवाले, वंचितों की सदियों से हकमारी करनेवाले लोगों ने उनका सार्वजनिक तौर पर अपमान किया। उन्हें यहां तक कहा गया कि “आरक्षण की नीति कहां से आई, कर्पूरिया की माई …”। लेकिन तब भी कर्पूरी ठाकुर डिगे नहीं थे।

मैं स्वयं को खुशकिस्मत मानता हूं कि मुझे उनके साथ केवल काम करने का ही नहीं, बल्कि उनके साथ जीने का अवसर भी मिला। दरअसल हुआ यह कि 1977 में मैं पहली बार विधायक बना और पार्टी की पार्लियामेंट्री कमेटी का मेंबर था। वर्ष 1980 में मैं चुनाव हार गया। लेकिन कर्पूरी ठाकुर व अन्य बड़े नेता चुनाव जीत गए थे। ठाकुर जी तब विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष चुने गए थे। मेरे सामने रोटी और आवास दोनों का संकट था। मैं अपनी बड़ाई नहीं कर रहा कि मैं ईमानदार था, लेकिन बड़े नेता होने की पहचान यही होती है कि वे अपने छोटे-से-छोटे कार्यकर्ता को भी महत्व देते हैं। एक दिन कर्पूरी जी ने मुझसे कहा कि मेरे पास निजी सचिव का पद रिक्त है और मैं चाहता हूं कि आप यह पद स्वीकार करें। आपको मेरा पीए बनने की आवश्यकता नहीं है। बस इतना ही करिएगा कि मैं जो लोगों के दरख्वास्त आदि इकट्ठे करता हूं, उनका ध्यान रखें तथा आप अपनी राजनीति भी करें। इससे आपके रहने की समस्या का अंत हो जाएगा और आर्थिक समस्या का भी। आप दो दिन के भीतर मुझे अपने निर्णय से अवगत कराएं। 

गत 23 जनवरी, 2024 को पटना में आयोजित कर्पूरी ठाकुर जन्मशती समारोह को संबोधित करते इस आलेख के लेखक अब्दुलबारी सिद्दीकी

मेरे सामने समस्या थी कि मैं विधायक और पार्लियामेंट्री कमिटी का मेंबर रह चुका था, यदि मैं पीए का पद स्वीकार करता तो लोग मेरी हंसी उड़ाते। लेकिन मैंने यह सोचा कि मुझे ऐसे महान नेता के साथ जीने का अवसर मिल रहा है। मैंने तय कर लिया था, लेकिन मैं ठाकुर जी के पास तीसरे दिन पहुंचा। तब हुआ यह कि आज जहां पटना में जननायक की स्मृति में संग्रहालय है, उस समय उनका सरकारी आवास हुआ करता था। ठाकुर जी का दफ्तर उस आवास का आगे वाला हॉल हुआ करता था। उस समय वह अकेले थे। मैंने उनके प्रस्ताव को स्वीकार करने की सूचना दी। तब वे हंसते हुए बोले कि आपके नाम की अनुशंसा मैंने दो दिन पहले ही भेज दिया था।

ऐसे ही सहज थे जननायक। उन्होंने अपने जीवन का हर क्षण समाज को दे रखा था। एक वाकया याद आ रहा है कि किशनगंज में तत्कालीन विधायक मुन्ना मुश्ताक ने एक कार्यक्रम रखा था। दरअसल वहां एक सामाजिक कार्यकर्ता की हत्या हो गई थी। कर्पूरी जी के साथ मैं, उनके एक अंगरक्षक और सरकारी आंबेसडर (कार) का चालक (वह ब्राह्मण जाति के थे, अब तो उनका भी निधन हो गया) थे। हम सबसे पहले मुंगेर पहुंचे। वहां ठाकुर जी ने सरकारी गेस्ट हाउस में ही एक प्रेस कांफ्रेंस किया और खाना खाने के बाद एक जनसभा को संबोधित किया। शाम में अगला पड़ाव पूर्णिया में था और वहां एक बड़ी जनसभा आहूत थी। जनसभा का आयोजन शाम के छह बजे तय था। लेकिन बारिश हो जाने के कारण यह जनसभा नहीं हो सकी। परंतु यह घोषित कर दिया गया था कि जनसभा अगले दिन 11 बजे होगी। पूर्णिया पहुंचते-पहुंचते हमें देर हो गई। ठाकुर जी की सभा की खास बात यह होती थी कि आम जन तो उनकी सभा में आते ही थे, विपक्षी दलों के नेता भी पहुंचते थे। तब जमाना आज के जैसा नहीं था कि छोटे नेता बड़े नेता के बगल में खड़े होकर फोटो खिंचवाकर अपनी राजनीति करते थे। अगले दिन जब जनसभा का आयोजन हुआ तब बहुत भीड़ उमड़ी और मैं मंच के बजाय मैदान में लोगों के बीच रहता था और यह जानने की कोशिश करता था कि लोग क्या बात कर रहे हैं और क्या सोच रहे हैं।

खैर, अगले दिन जनसभा के बाद खाना हुआ और हम किशनगंज के रास्ते में आगे बढ़े। ठाकुर जी की आदत यह थी कि वह रात चाहे कितने बजे भी सोएं, जग वह सुबह में ठीक चार बजे ही जाते थे। जो नींद वह रात में पूरी नहीं कर पाते, वह उसे कार में पूरी करने की कोशिश करते थे। उस दिन भी यही हुआ। कार में बैठते ही उन्हें नींद आ गई। तब किशनगंज जाने के लिए बंगाल की सीमा से गुजरना पड़ता था। संभवत: वह मुर्शिदाबाद का इलाका था। मैं शहरी जनजीवन जीने लगा था और चाय की बड़ी तलब होती थी। लेकिन ठाकुर जी चाय नहीं पीते थे। मैंने मुर्शिदाबाद में ही एक छोटी-सी दुकान को देखा, जहां कोई नहीं था। मैंने कार चालक को कहा कि ठाकुर जी सो रहे हैं, हमलोग चाय पी लेते हैं। 

तो हुआ यह कि गाड़ी रूकी और उसके साथ ही ठाकुर जी की नींद खुल गई। उन्होंने पूछा कि क्या हुआ? अब देखिए कि बड़े नेताओं के सामने झूठ बोलना भी कितना मुश्किल होता है। मैंने कहा कि कार के रेडियटर में पानी डालना पड़ेगा। वह हंसते हुए बोले कि जाइए, अपलोग चाय पी आइए।

खैर, उस दिन हमें किशनगंज पहुंचने में रात के 11 बज गए थे। वहां सर्किट हाउस में हमारा विश्राम था। लेकिन खाने की समस्या थी। ठाकुर जी ने कहा कि वे खाना नहीं खाएंगे, आप लोग स्टेशन के पास जाकर खा आइए। स्टेशन पहुंचते-पहुंचते हमें बारह तो बज ही गए थे। वहां खाने को मिला भी तो केवल टोस्ट और ऑम्लेट। हम खाकर लौटे तो मैं सर्किट हाउस के उस कमरे में गया जिसमें ठाकुर जी थे। उन दिनों सर्किट हाउस में आज की तरह एयर कंडीशन नहीं लगा होता था, बस पंखा होता था। गर्मी का मौसम था। गर्मी के कारण जननायक ने अपना जेबी वाला सिलवाया हुआ बनियान भी उतार दिया था और सो रहे थे। मैं उन्हें देखकर रो पड़ा। वजह यह कि उनकी पीठ पर लाल-लाल निशान पड़ गए थे। मैंने सर्किट हाउस के ही एक कर्मचारी से कहा कि नाइसिल पाउडर ले आओ। वह ले आया और मैं उनके शरीर पर छिड़कने लगा। नाइसिल पाउडर लगाते समय ठंडा लगता है तो ठाकुर जी की नींद खुल गई। पहला सवाल यही कि क्या हुआ? मैंने कहा कि कुछ नहीं, बस दवाई लगा दे रहा हूं। फिर वे कहने लगे कि यह सब तो लगा ही रहता है। जाइए, सो जाइए। लेकिन मैं भी कहां माननेवाला था।

अगले दिन मुन्ना मुश्ताक जी के साथ जननायक उस सामाजिक कार्यकर्ता के घर गए और उनके परिजनों से मुलाकात की। फिर वहां एक जनसभा का आयोजन किया गया था। उस जनसभा में भी बहुत भीड़ जुटी थी। यह सब होते-होते शाम हो गया। मुन्ना मुश्ताक जी ने खाने का इंतजाम नहीं किया था। ठाकुर जी इससे नाराज थे कि मुन्ना मुश्ताक जी ने हमलोगों से यह कहा कि आप सब लाइन होटल में खा लिजिएगा। ठाकुर जी ने कह दिया कि वे खाना नहीं खाएंगे। दरअसल अगले दिन पटना में विधायक दल की महत्वपूर्ण बैठक होनी थी। ठाकुर जी हर हाल में सुबह दस बजे तक पटना पहुंचना चाहते थे। हम पटना की ओर चल पड़े। 

मैं उस रात को कभी नहीं भूल सकता। उस रात जिस कार में हम सवार थे, वह खगड़िया तक पहुंचते-पहुंचते छह बार खराब हुई थी। जितनी बार गाड़ी रूकती, ठाकुर जी की नींद खुल जाती और वह चिड़चिड़ा भी रहे थे। लेकिन जब खगड़िया शहर से एक किलोमीटर पहले ही कार खराब हुई तब उन्होंने मुझसे कहा कि हम यहां से पैदल ही चलेंगे और उन्होंने कार चालक को कहा कि आपकी कार आपको ही मुबारक हो।

उस समय सुबह के तीन बजे होंगे और जननायक के साथ मैं सड़क पर चल रहा था। लेकिन जननायक का क्या था कि वे पूरे बिहार में इतना घूम चुके थे कि उन्हें हर रास्ता याद हो गया था। खगड़िया शहर में पहुंचने पर एक जगह उन्होंने कहा कि यहां आसपास ही एसडीओ (सिविल) का सरकारी आवास है, जरा देखिए तो। थोड़ा आगे बढ़ने पर मिल भी गया। कर्पूरी जी ने कहा कि आप आवाज लगाइए। उस समय यही पौने चार बजे होंगे। मेरी आवाज सुनकर एसडीओ का संतरी बाहर आया। ठाकुर जी ने उससे कहा कि आप अपने अधिकारी महोदय को अभी यह कहें कि कर्पूरी ठाकुर आए हैं। थोड़ी ही देर में वह अधिकारी (शायद वह कोई भूमिहार या राजपूत थे, क्योंकि बोर्ड पर उनके नाम में ‘सिंह’ सरनेम लिखा था) लुंगी बांधते हुए बाहर आया। उसने ठाकुर जी को प्रणाम किया और बिना समय गंवाए ठाकुर जी ने उनसे कहा कि मुझे दस बजे तक पटना पहुंचना है, आप अभी कोई इंतजाम कर दें। उस अधिकारी ने अपनी सरकारी जीप और अपना चालक दिया, जिससे हम वापस पटना पहुंचे।

इस संस्मरण को बताने का मकसद यह है कि कर्पूरी ठाकुर न केवल अपने लिए समय का महत्व समझते थे, बल्कि दूसरों के समय का भी ध्यान रखते थे। उनकी जीवनशैली ही ऐसी थी कि लोग उनसे स्वयं ही जुड़ जाते थे। आज भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न का सम्मान दिया है, लेकिन वे जननायक तभी मान लिए गए थे जब वे जीवित थे और यह सम्मान किसी दूसरे ने नहीं बल्कि बिहार की आम अवाम ने खुद दिया था। यह बहुत बड़ी बात थी। 17 फरवरी, 1988 को ठाकुर जी का जब निधन हुआ तब उनके समान प्रतिष्ठा और समाज पर पकड़ रखनेवाला तथा सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाला कोई नेता नहीं था। वे वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाए जाने के पक्षधर थे, लेकिन बाद के दिनाें में जो राजनीतिक घटनाक्रम घटित हुए, उनके बारे में मैं केवल इतना कह सकता हूं कि यदि वे कुछ साल और जी जाते तो भारत के प्रधानमंत्री होते।

बहरहाल, जननायक को भारत रत्न का सम्मान दिया जाना एक सुखद अनुभूति है। यह इसलिए कि उन्हें यह सम्मान जिस कारण दिया गया, उसके लिए उन्हें क्या-क्या नहीं सुनना पड़ा था। लेकिन मजबूत इरादे वाले नेता थे, अपने विचारों से कभी नहीं डिगे। एक सूत भी नहीं।

(नवल किशोर कुमार के साथ दूरभाष पर बातचीत के आधार पर)

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अब्दुल बारी सिद्दीकी

लेखक बिहार सरकार के पूर्व मंत्री हैं

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